Book Title: Gandharwad Kavyam
Author(s): Sushilsuri
Publisher: Sushilsuri Jain Gyanmandiram

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Page 16
________________ छिन्नमि संसयंमी जाइजरामरणविप्पमुक्केणं । सो समणो पव्वइतो तिहिं उसहखंडिय सएहिं ॥ आज भी इस भौतिक युग तथा विज्ञान के युग में इन्हीं प्रश्नों के बारे में मनुष्य में भ्रम है और सच्चे ज्ञान के अभाव में मनुष्य दुःखी है। - आचार्यश्री ने भाषा में एवं संस्कृत में सटीक विश्लेषण कर बहुत ही सरल शैली में इन्हीं प्रश्नों को प्रभु की वाणी में सरलता से अभिव्यक्त किया है। __ आपके सच्चे ज्ञान एवं आपकी गहन शास्त्रीय विद्वत्ता के कारण इन गम्भीर प्रश्नों का सरलीकरण हुआ है । . तत्त्वग्रन्थ होते हुए भी 'गरणधरवादकाव्य' अपनी सरसता और सरलता के कारण साधारण से साधारण पाठक को भी गूढ ज्ञान की जानकारी देने में सक्षम है। भाषा का प्रवाह संस्कृत तथा हिन्दी दोनों में ही सहज आकर्षक है तथा शास्त्रीय एवं तत्त्वपरम्पराओं का सम्पूर्ण ज्ञान कराता है। आपके अनेक ग्रन्थों से पाठक परिचित होंगे ही। यह : ग्यारह :

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