Book Title: Ek Prasiddh Vakta Ki Taskar Vrutti Ka Namuna
Author(s): Gunsundarsuri
Publisher: 

View full book text
Previous | Next

Page 13
________________ महाराज इसके योग नहीं हु, में प्रदेशी चलता। विने जान पहचान व्याह वह, कैसे होवे भलता // 244 // मुनिवचनसे जाना हमने, तुम हो राजकुमार | लिजे मान वचन अब मेरा, नहीं किजे इन्कार // 245 // इत्यादि आगे श्रीपाल और रैनमंजुषाका विवाहा करवा दीया है देखिये उन्मत्त हस्तीकी माफीक पागलोंकि तस्करवृति। जिस रासपरसे यह श्रीपाल चरित्र बनाया है उस रासमें मन्दिर मूर्ति प्रभुपूजादिका अधिकार निकालके उन्मत्त हाथी की कथा लिख कैसा अनंत संसार बढाया है ? अरे ! भद्रिक ढूंढक ढूँढणीयें ! अगर तुमारी सर्व बुद्धि नष्ट नहीं हुई हो तो इस तस्कर वृत्तिकी तरफ लक्ष दिजिये कि एसे भृष्टाचरणवालेको अतिशय ज्ञान तो हो ही नहीं सक्ता है फिर पूर्व महर्षियोंके ग्रंथोसे कविता बनाना और उनसे मूलपाठ निकाल देना वह सब तुम अज्ञ लोगोंको गहरी खाडमें गीरानेका उपाय है अगर तुमारे अन्दर कुच्छ भी सद्ज्ञान होतो जैसे उत्सूत्रवादी अमोलष ढूँढकके छपाये हुवे 32 सूत्रोंका हिन्दी अनुबाद को ढूंढक समाजने / बहिष्कार किया था उसी माफीक ढूँढकजीके बनाया श्रीपाल चरित्रका शीघ्रतासे बहिष्कार करदो। ... जहाँ राजा कनककेतु और श्रीपाल ऋषभदेवके मन्दिरमें बैठे थे और कोटवाल धवल शेठको पकड लाया लिखा है वहाँ पर ढूँढकजीने मुनिके स्थान लाना लिख मारा है पर ढूँढकजीकी यह हिम्मत नहीं हुई कि ढूंढक स्थानक लिखदे एसेही मन्दिरके बहार चारण मुनिने श्रीपालजीका परिचय राजा और नागरिकोकों कराया था उसकों उलटाके रैनमंजूषा के सामने श्रीपालजीके मुंहसे कहलाया है

Loading...

Page Navigation
1 ... 11 12 13 14 15 16