Book Title: Drushtantabhasa Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf View full book textPage 8
________________ २१४ पर लिखा जाता है जिनमें से सबसे पहले दूपण और दूषणाभास को लेकर विचार किया जाता है । दूषण और दूषणाभास के नीचे लिखे मुद्दों पर यहाँ विचार प्रस्तुत है - १. इतिहास, २. पर्याय - समानार्थक शब्द, ३. निरूपण - प्रयोजन, ४. प्रयोग की अनुमति या विरोध, ५. भेद-प्रभेद । I १ – दूषण और दूषणाभास का शास्त्रीय निरूपण तथा कथा का इतिहास कितना पुराना है यह निश्यपूर्वक कहा नहीं जा सकता, तथापि इसमें कोई सन्देह नहीं कि व्यवहार में तथा शास्त्र में कथा का स्वरूप निश्चित हो जाने के बाद बहुत ही जल्दी दूषण और दूषणाभास का स्वरूप तथा वर्गीकरगा शास्त्रवद्ध हुआ होगा । दूषण और दूषणाभास के कमोबेश निरूपण का प्राथमिक यश ब्राह्मण परम्परा को है । बौद्ध परम्परा में उसका निरूपण ब्राह्मण परम्परा द्वारा ही दाखिल हुआ है । जैन परम्परा में उस निरूपण का प्रथम प्रवेश साक्षात् तो बौद्ध साहित्य के द्वारा ही हुआ जान पड़ता है । परम्परया न्याय साहित्य का भी इस पर प्रभाव अवश्य है। फिर भी इस बारे में वैद्यक साहित्य का जैन निरूपण पर कुछ भी प्रभाव पड़ा नहीं है जैसा कि इस विषय के बौद्ध साहित्य पर कुछ पड़ा हुआ जान पड़ता है । प्रस्तुत विषयक साहित्य का निर्माण ब्राह्मण परम्परा में ई० स० पूर्व दो या चार शताब्दियों में जान पड़ता है जब कि बौद्ध परम्परा में वह ईसवी सन् के और जैनपम्परा में तो और भी पीछे से शुरू हुआ है । बौद्ध परम्परा का वह प्रारम्भ ईसवी के बाद तीसरी शताब्दी से पुराना शायद ही हो और जैन परम्परा का वह प्रारम्भ ईसवी सन् के बाद पाँचवीं छठी शताब्दी से पुराना शायद ही हो । २ – उपालम्भ, प्रतिषेध, दूषण, खण्डन, उत्तर इत्यादि पर्याय शब्द हैं । इनमें से उपालम्भ, प्रतिषेव श्रादि शब्द न्यायसूत्र (१.२.१ ) में प्रयुक्त हैं, जबकि दूषण आदि शब्द उसके भाष्य में आते हैं। प्रस्तुतविषयक बौद्ध साहित्य में से तर्कशास्त्र, जो प्रो० टुयची द्वारा प्रतिसंस्कृत हुआ है उसमें खण्डन शब्द का बार-बार प्रयोग है जब कि दिङ्नाग, शङ्करस्वामी, धर्मकीर्त्ति आदि ने दूषण शब्द का ही प्रयोग किया है । (देखो - न्यायमुख का० १६, न्यायप्रवेश पृ० ८ न्यायबिन्दु० ३ १३८ ) । जैन साहित्य में भिन्न-भिन्न ग्रन्थों में उपालम्भ, दूषण आदि सभी पर्याय शब्द प्रयुक्त हुए हैं। जाति, श्रसदुत्तर, असम्यक् खडन, दूषणाभास आदि शब्द पर्यायभूत हैं जिनमें से जाति शब्द न्याय परम्परा के साहित्य में प्रधानतया प्रयुक्त देखा जाता है । बौद्ध साहित्य में सम्यक् खण्डन तथा जाति शब्द का प्रयोग कुछ प्राचीन ग्रन्थों में है, पर दिङ्नाग से लेकर सभी बौद्धतार्किकों के तर्कप्रन्थों में दूषणाभास शब्द के प्रयोग का प्राधान्य Jain Education International For Private & Personal Use Only कभी प्रारम्भ हुआ बाद ही शुरू हुआ www.jainelibrary.orgPage Navigation
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