Book Title: Drushtantabhasa
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 12
________________ २१८ दूसरी परम्परात्रों से बार बार वाद में भिड़ना पड़ा तब उसे अनुभव हुश्रा कि छल आदि के प्रयोग का ऐकान्तिक निषेध व्यवहार्य नहीं। इसी अनुभव के के कारण कुछ जैन तार्किकों ने छल आदि के प्रयोग का श्रापवादिक रूप से अवस्था विशेष में समर्थन भी किया। इस तरह अन्त में बौद्ध और जैन दोनों परम्पराएँ एक या दूसरे रूप से समान भूमिका पर श्रा गई। बौद्ध विद्वानों ने पहले छलादि के प्रयोग का समर्थन करके फिर उसका निषेध किया, जब कि जैन विद्वान् पहले आत्यन्तिक विरोध करके अन्त में अंशतः उससे सहमत हुए। यह ध्यान में रहे कि छलादि के आपवादिक प्रयोग का भी समर्थन श्वेताम्बर तार्किको ने किया है पर ऐसा समर्थन दिगम्बर तार्किकों के द्वारा किया हुश्रा देखने में नहीं आता । इस अन्तर के दो कारण मालुम होते हैं। एक तो दिगम्बर परम्परा में श्रौत्सर्गिक त्याग अंश का ही मुख्य विधान है और दूसरा ग्यारहवीं शताब्दि के बाद भी जैसा श्वेताम्बर परम्परा में विविध प्रकृतिगामी साहित्य बना वैसा दिगम्बर परम्परा में नहीं हुश्रा । ब्राह्मण परम्परा का छलादि के प्रयोग का समर्थन तथा निषेध प्रथम से ही अधिकारीविशेषानुसार वैकल्पिक होने से उसकी अपनी दृष्टि बदलने की जरूरत ही न हुई। ५ - अनुमान प्रयोग के पक्ष, हेतु, दृष्टान्त श्रादि अवयव हैं । उनमें आनेवाले वास्तविक दोषों का उद्घाटन करना दूषण है और उन अवयवों के निर्देोष होने पर भी उनमें असत् दोषों का अारोपण करना दूषणाभास है। ब्राह्मण परम्परा के मौलिक ग्रन्थों में दोषों का, खासकर हेतु दोषों का ही वर्णन है। पक्ष, दृष्टान्त आदि के दोषों का स्पष्ट वैसा वर्णन नहीं है जैसा बौद्ध परम्परा के ग्रन्थों में दिङ्नाग से लेकर वर्णन है । दूषणाभास के छल, जाति रूप से भेद तथा उनके प्रभेदों का जितना विस्तृत व स्पष्ट वर्णन प्राचीन ब्राह्मण ग्रन्थों में है उतना प्राचीन बौद्ध ग्रन्थों में नहीं है श्रीर पिछले बौद्ध ग्रन्थों में तो वह नामशेष मात्र हो गया है। जैन तर्क ग्रन्थों में जो दूषण के भेद-प्रभेदों का वर्णन है वह मूलतः बौद्ध ग्रन्थानुसारी ही है और जो दूषणाभास का वर्णन है वह भी बौद्ध परम्परा से साक्षात् सम्बन्ध रखता है । इसमें जो ब्राह्मण परम्परानुसारी वर्णन खण्डनीयरूप से आया है वह खासकर न्यायसूत्र और उसके टीका, उपटीका ग्रन्थों से आया है। यह अचरज की बात है कि ब्राह्मण परम्परा के वैद्यक १ 'अयमेव विधेयस्तत् तत्त्वज्ञेन तपस्विना । देशाद्यपेक्षयाऽन्योऽपि विज्ञाय गुरुलाघवम् ।।'-यशो वादद्वा० श्लो०८। २ मिलाओ-न्यायमुख, न्यायप्रवेश और न्यायावतार । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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