Book Title: Dravya Sangraha
Author(s): Nemichandra Acharya, Vidyasagar Maharaj, Kishor Khandhar
Publisher: Samtaben Khandhar Charitable Trust

View full book text
Previous | Next

Page 15
________________ * सात पदार्थों का नाम-निर्देश आसव बंधण संवर णिज्जर मोक्खो सपुण्णपाया जे।।। जीवाजीबबिसेसा तेवि समासेण पभणामो ॥ २८॥ आसवबंधनसंवरनिर्जरमोक्षाः सपुण्यपापाः ये। . जीवाजीवविशेषाः तान् अपि समातेन प्रभणामः ॥ २८ ॥ आग्रव-बन्धन-संवर-निर्जर-मोक्ष-तत्त्व भी बतलाया, सात-तत्त्व, नव पदार्थ होते पाप-पुण्य को मिलवाया। जीव-द्रव्य औ-पुद्गल की ये विशेषतायें मानी है, कुछ वर्णन अब इनका करती जिन-गुरु-जन की वाणी है ॥२८॥ जि] [आसवबंधणसंवरणिज्जरमोक्खो भाशय, अंध, संदर, निर, भोला सिपुण्णपावा] पु१५ भने ५५ सहित त तप छ । [जीवाजीवविसेसा] 0 भने भ व्य मे तिवि] तेगाने ५५ [समासेण] संदेपथी [पभणामो] भाग में छी. अब जीव, अजीव के भेदरूप जो आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य तथा पाप ऐसे सात पदार्थ हैं, इनको संक्षेप से कहते हैं ।। २८ ॥ We shall describe briefly those varieties of Jiva and Ajiva which are (known as) Asrava, Bandha, Samvara, Nirjara and Moksha with Punya' and Papa.? * आम्रव का स्वरूप आसवदि जेण कर्म परिणामेणप्पणो स विण्णेओ । भावासको जिणुत्तो कम्मासवणं परो होदि ॥ २९ ॥ आस्रवति येन कर्म परिणामेन आत्मनः सः विज्ञेयः । भावासवः जिनोक्तः कर्मास्रवणं परः भवति ।। २९ ।। द्रव्याखव औ भावासव यों माने जाते आसव दो. आतम के जिन परिणामों से कर्म बने 'भावासव' सो । कर्म-वर्गणा जड़ है जिन का कर्म रूप में ढल जाना, 'द्रव्याखव' बस यही रहा है जिनवर का यह बतलाना ॥ २९ ॥ [अप्पणो] भान [जेण] के [परिणामेण] परिणामयी [कम्म] पुनल 5 [आसवदि] भावे छ [स] २ [जिणुत्तो निद्राने ideal ___ [भावासवो भावास [विण्णेओ] neो रोई माने [कम्मासवणं] पुसख भनु भाव त परो] द्रव्यानव [होदि] छ. आत्मा के जिस परिणाम से कर्म का आस्रव होता है उसे श्री जिनेन्द्र द्वारा कहा हुआ भावास्रव जानना चाहिए कर्मों का और जो ज्ञानावरणादिक रूप कर्मों का आस्रव है सो द्रव्याखव है ॥ २९ ॥ That modification of the soul by which Karma gets into it is to be known as Bhavasrava as told by the Jina and the influx of Karma is to be known as the other kind of Asrava, Dravyasrava. 1. Auspicious Bhava. 2. Inauspicious Bhava. शुभ्र-सरल तुम, बाल तव, कुटिल कृष्णन्तम नाग । तव चिति चित्रित ज्ञेय से, किन्तु न उसमें दाग ॥ विराग पद्मप्रभु आपके, दोनों पाद-सराग । रागी मम मन जा वहीं, पीता तभी पराग ॥ २८ .

Loading...

Page Navigation
1 ... 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30