Book Title: Dravya Sangraha
Author(s): Nemichandra Acharya, Vidyasagar Maharaj, Kishor Khandhar
Publisher: Samtaben Khandhar Charitable Trust

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Page 18
________________ * संवर - तत्व का स्वरूप एवं भेद चेदणपरिणामो जो कम्मस्सासवणिरोहणे हेदू । सो भावसंवरो खलु दव्यासवरोहणे अण्णो ॥ ३४॥ चेतनपरिणामः यः कर्मणः आस्रवनिरोधने हेतुः । सः मावसंवरः खलु द्रव्यास्रवरोधने अन्यः ।। ३४ ।। चेतन गुण से मण्डित जो है आतम का परिणाम रहा, कमसिव के निरोध मैं है कारण, सो अभिराम रहा । यही 'भाव-संवर' है माना स्वाश्रित है सम्बल-थर है, कत्रिव का रुक जाना ही रहा 'द्रव्य-संवर' जड़ है ॥ ३४ ॥ [जो] [चेदणपरिणामो] सामान परिम [कम्मस्स] भना [आसवणिरोहणे] भासपने मां हिंदू ॥२८. [सो] . [भावसंवरो] भावसंव२ छ भने [दव्वासदरोहणे] ३५ ५६ बयना मास 40 sal निश्ची [अण्णो] अन्य भात व्यसं५२ छ. आत्मा का जो परिणाम कर्मके आस्रव को रोकने में कारण है, उसको भावसंवर कहते हैं और जो द्रव्यास्रव को रोकने में कारण है सो द्रव्यसंवर है । ॥ ३४ ॥ * भाव - संबर के भेद बदसमिदीगुत्तीओ धम्माणुपेहा परीसहजओ य । • चारित्तं बहुभेया णायया भावसंवरविसेसा ॥ ३५ ॥ व्रतसमितिगुप्तयः धर्मानुप्रेक्षाः परीषहजयः च । चारित्रं बहुभेदाः ज्ञातव्याः भावसंदरविशेषाः ॥ ३५ !! पञ्च-समितियाँ, तीन-गुप्तियाँ पञ्च-व्रतों का पालन हो, बार-दोर बारह भावन भी दश-धर्मों का धारण हो। तथा विजय हो परीषहों पर बहुविध-चारित में रमना, भेद, 'भाव-संवर' के ये सब रमते इनमें वे श्रमणा ॥ ३५ ॥ - [वदसमिदीगुत्तीओ] प्रत, समिति भने अलि [धन्माणुपेहा] , अनुप्रेक्षu परीसहजओ] परीचय [य] भने [चारित्तं] यास्त्रि [बहुभेया] मे मनः ॥२- [भावसंवर - विसेसा] भावसंवरनो [णायव्वा] That Modification of Consciousness which is the cause of checking Asrava (influx) of Karma, is surely Bhavasamvara, and the other (known as Dravyasamvara is known from) checking Dravyasrava. . पांच द्रत, पांच समिति, तीन गुप्ति, दश धर्म, बारह अनुप्रेक्षा, बाईस , परीषह-जय तथा अनेक प्रकार का चारित्र इस तरह ये सब भावसंवर के भेद जानने चाहिये ।। ३५ ॥ The Vratas (vows), Samitis (attitudes of carefulness), Guptis (Restraints), Dharmas (observances), Anupreksas (meditations), Parisaha-jayas (the victories over troubles) and various kinds of charitra (conduct) are to be known as varieties of Bhavasamvara. चंद्र कलंकित, किन्तु हो, चन्द्रप्रभु अकलंक । वह तो शंकित केतु से, शंकर तुम निःशंक ॥ रंक बना हूँ मम अत, मेटो मन का पंक । जाप जपूँ जिन-नाम का, बैठ सदा. पर्यंक ॥ मनाका पंक।

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