Book Title: Dodhak Bavni Author(s): Diptipragnashreeji Publisher: ZZ_Anusandhan View full book textPage 3
________________ फेबुआरी - 2006 55 एक टेक धरके जसा निर्गुण निर्मम देव दोष रोष यांमे नहिं करवों ताकि सेव ॥१२॥ ए विषमगति कर्मकी लखी न काहूं जात रंकने राजा करे राजा रंक देखात ॥१३।। ओसबिंदु कुंशअन थे परत न लागे वार आउं अथिर तेसे जसां कर कछु धर्मविचार ॥१४॥ औषध नमिजे मीचकुं(?)याथे मरे न कोइ कर औषध एक धर्मको जशा अमर तुं होई ॥१५|| अंध-पंग ज्जो एक ह्वे जरे न पावकमाहिं त्युं ज्ञान साहीत क्रिया करे जशा अमरपुर जाय ॥१६॥ अमर जगतमें को नही मरे अशुर शुरराय गढमढमंदिर ढह परें अमर सुजश जसराज ॥१७॥ कंचन ते पीत्तर भए मुरख मुढ गमार तजें धर्म मिथ्यामति भजे अधर्म अशार ॥१८॥ खल संगत तजीओ जसा विद्या सोभित तोई पनंगमणि संयुक्त तो क्युं न भयंकर होइ ॥१९॥ गाज सरदकी कारमी करत बोहीत अवाज तनक न वरसें दांन ज्यो कृपण न दे जसराज ॥२०॥ घरटीके दो पुड विचे कण चुरण ज्युं होय त्युं दो नारी विच परयो नर उगरे न कोइ ॥२१।। नही ग्यांन जांमे जशा नहि विवेक विचार ताको संग न किजिइं परहरीधे निरधार ॥२२|| चपला कमला जांनिके कछु खरचो कछु खाओ इक दिन भूइ सुवो जशा लाबां करके पाऊ ॥२३॥ छलकर बलकर बुधकर करके जशा उपाइ आतम वस आपणो दुर्जय दुरिजन ताइ ॥२४॥ जवती सव जग वश कीयो किसी न राखी मांम जे इशथे न्यारा रहे ताकुं यशा प्रणांम ॥२५॥ : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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