Book Title: Dhyana ka Swaroop Author(s): Hukamchand Bharilla Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur View full book textPage 8
________________ १२ ध्यान का स्वरूप सम्यग्दर्शनशुद्धा: नारकतिर्यङ्कनपुंसकस्त्रीत्वानि । दुष्कुलविकृताल्पायुः दरिद्रतां च व्रजन्ति नाप्यव्रतिकाः । । ' जो जीव सम्यग्दर्शन से शुद्ध हैं, वे यदि व्रत रहित हों, तब भी नरक और तिर्यंचगति में नहीं जाते, स्त्री व नपुंसक नहीं होते, दुष्कुल में पैदा नहीं होते, विकृत शरीरवाले नहीं होते, अल्पायु नहीं होते और दरिद्री भी नहीं होते। प्रश्न- आपने कहा कि अज्ञानियों के आर्त- रौद्रध्यान संसार के कारण हैं, तिर्यंच व नरकगति के कारण हैं और अज्ञानियों के धर्मध्यान व शुक्लध्यान होते नहीं हैं। उक्त कथनानुसार तो सभी अज्ञानियों को तिर्यंच और नरकगति में ही जाना चाहिए; पर हमने तो शास्त्रों में पढा है कि अज्ञानी द्रव्यलिंगी मुनि नववें ग्रैवेयक तक जाते हैं। उत्तर - अरे भाई ! नौ ग्रैवेयक भी तो संसार में ही हैं। आर्त और रौद्रध्यानवाले सभी अज्ञानी नरक व तिर्यंच गति में ही जाते हैं - यह बात नहीं है; क्योंकि फिर तो उनका चतुर्गति परिभ्रमण भी संभव नहीं होगा। अभव्य भी तो चारों गतियों में परिभ्रमण करता है। जिस समय आर्त- रौद्रध्यान तिर्यंच और नरक आयुकर्म के बंध के योग्य तीव्रता में होते हैं; उसी समय तिर्यंच व नरक आयु का बंध होता है। इसी अपेक्षा से उन्हें तिर्यंच व नरकगति का कारण कहा गया है। दुःखरूप आर्तध्यान और आनन्दरूप रौद्रध्यान के संदर्भ में आप कह सकते हैं कि गजब हो गया हंसे तो पाप और रोयें तो पाप, आखिर हम करें तो करें क्या ? अरे भाई! धर्म तो वीतराग भाव का नाम है, सहज ज्ञाता दृष्टा भाव का नाम है; इस जगत में सहज भाव से जो कुछ भी देखने-जानने में आवे; उसे सहज वीतराग भाव से जान लें; देख लें - यही आत्मधर्म है, सुख-शान्ति प्राप्त करने का तो एकमात्र यही उपाय है। १. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, छन्द ३५ जिनागम के आलोक में १३ इन बातों पर तो किसी का ध्यान है नहीं, हो भी कैसे ? क्योंकि ये आर्तध्यान और रौद्रध्यान भी ध्यान हैं एक तो इस बात का पता ही नहीं है, दूसरे यदि शास्त्रों में पढ भी लिया है, विद्वानों से सुन भी लिया है तो भी अन्दर से ऐसा आभास (फील) ही नहीं हुआ कि ये भी ध्यान हैं। जब भी ध्यान करने की बात चलती है तो पद्मासन से बैठ जायें, रीढ की हड्डी को सीधी रखें, आती-जाती सांसों को देखें- ऐसी बातें ही होती हैं। पर भाई ! ये तो सब जड़ शरीर की क्रियायें हैं; इनसे आत्मा के ध्यान का क्या संबंध हो सकता है ? जब ध्यान से लाभ की बात आयेगी तो यही कहा जायेगा कि इससे रक्तचाप ठीक हो जाता है, मधुमेह में लाभ होता है, नाड़ी संस्थान भी स्वस्थ हो जाता है आदि न जाने कितने लाभ गिनाये जायेंगे; कहा जायेगा करके तो देखिये छह माह में आपका कायापलट हो जायेगा, आप घोड़े जैसे दौड़ने लगेंगे। जैनधर्म में जिस ध्यान के गीत गाये गये हैं, उसका फल काया से मुक्त होना है या कायापलट करना ? अरे भाई ! मृत्यु होने पर काया तो बदल ही जाती है, असली कायापलट तो हो ही जाता है। घोड़े से दौड़कर क्या आदमी से घोड़ा बनना है ? जिस धर्म में यह कहा गया हो कि - जीवोऽन्य पुद्गलश्चान्य इत्यसौ तत्त्वसंग्रहः । यदन्यदुच्यते किञ्चित्सोऽसु तस्यैव विस्तरः ।। ( दोहा ) देह जुदा आतम जुदा यही तत्त्व का सार । बाकी जो कुछ और है याही का विस्तार ।। क्या उस धर्म में, धर्मध्यान में देह को ही संभालते रहना, उसकी चिन्ता में ही मग्न रहना; धर्म हो सकता है ? १. आचार्य पूज्यपाद: इष्टोपदेश, छन्द ५०Page Navigation
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