Book Title: Dhyana ka Swaroop
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 12
________________ २१ २० ध्यान का स्वरूप जाती है; उसका ध्यान आये बिना नहीं रहता। प्रयत्न करने पर भी यह संभव नहीं है कि उसका ध्यान ही न आवें।" उक्त कथा का सार मात्र इतना ही है कि जिसका परिचय हो, जिससे अपनापन हो, जिससे राग हो गया हो, स्नेह हो गया हो, जो अपना सर्वस्व लगने लगे; उसके प्रति तो सर्वस्व समर्पण हो ही जाता है, हो ही जाना चाहिए; उसका ध्यान करने के लिए प्रयत्न नहीं करना पड़ता। उसके लिए किसी प्रेरणा की आवश्यकता नहीं पड़ती, उसका प्रशिक्षण भी नहीं लेना पड़ता, सबकुछ सहज ही होता है। अरे भाई! एक बार निज भगवान आत्मा को जानिये तो सही, पहिचानिये तो सही, उसमें अपनापन तो स्थापित कीजिए, उसकी रुचि तो जगाइये; फिर देखिये कि उसका ध्यान होता है कि नहीं? इसलिए मैं कहता हूँ कि ध्यान की कक्षायें लगाने की आवश्यकता नहीं है, उसका ध्यान करने की प्रेरणा देने की भी जरूरत नहीं है। आवश्यकता मात्र अपने आत्मा को सही रूप में जानने की है, पहिचानने की है। अत: कक्षायें और शिविर आत्मा को समझने-समझाने के लिये ही लगाये जाने चाहिए। धर्मध्यान एक सहज प्रक्रिया है; जो सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान होने पर सहज भाव से प्रतिफलित होती है। सामायिक ध्यान का ही एक रूप है; जो दिगम्बर परम्परा में प्रचलित भी है। साधु-सन्तों के साथ व्रतीश्रावक भी प्रतिदिन सामायिक करते ही हैं। दूसरी प्रतिमा में होनेवाले बारह व्रतों में सामायिक नाम का एक व्रत है। तीसरी प्रतिमा का तो नाम ही सामायिक प्रतिमा है। इसप्रकार हमारे यहाँ सामायिक के रूप में ध्यान को समुचित स्थान प्राप्त है ही।। __ व्यवहार धर्मध्यान चिन्तनात्मक होता है, विकल्पात्मक होता है और निश्चय धर्मध्यान चिन्तन के निरोधरूप निर्विकल्पक होता है। वस्तुतः बात यह है कि चिन्तन ध्यान का प्रारंभिकरूप है। रुचि ध्यान की नियामक होने से चिन्तन की भी नियामक होती है। जिसकी जिसे रुचि होती है, पहले उसके बारे में विकल्पात्मक चिन्तन चलता है; फिर रुचि जिनागम के आलोक में की तीव्रता में विकल्पात्मक चिन्तन निर्विकल्पक ध्यान में परिवर्तित हो जाता है। यह एक सहज प्रक्रिया है। अनुप्रेक्षा (चिन्तन) और ध्यान में अन्तर स्पष्ट करते हुये आचार्य अकलंकदेव लिखते हैं : "स्यादेतदनुप्रेक्षाऽपि धर्मध्यानेऽन्तर्भवतीति प्रथगासामुपदेशोऽनर्थक इति; तन्न, किं कारणम्? ज्ञानप्रवृत्ति विकल्पत्वात् । अनित्यादिविषयचिन्तनं यदा ज्ञानं तदानुप्रेक्षाव्यपदेशो भवति, यदा तत्रैकाग्रचिंतानिरोधस्तदा धर्मध्यानम् ।' अनुप्रेक्षाओं का धर्मध्यान में अन्तर्भाव हो जाने से, उनका पृथक् कथन करना उचित नहीं है - यदि कोई ऐसा कहे तो उसका कथन ठीक नहीं है; क्योंकि अनुप्रेक्षाएँ ज्ञानप्रवृत्तिविकल्परूप हैं। अनित्यादि विषयों का चिन्तन जब ज्ञानरूप होता है, तब वह अनप्रेक्षा कहलाता है और जब अनित्यादि विषयों में चित्त एकाग्र होता है, तब धर्मध्यान नाम पाता है।" __यदि हम उक्त कथन पर गंभीरता से विचार करें तो एक बात अत्यन्त स्पष्ट है कि निर्विकल्पक धर्मध्यान होने के पहले होनेवाली ज्ञानप्रवृत्तिविकल्परूप अनुप्रेक्षा में शरीरादि संयोगों की अनित्यता, अशरणता, असारता, भिन्नता और अशुचिता आदि का चिन्तन होता है और जब विकल्परूप चिन्तन का निरोध होकर उसी विषयवस्तु में चित्त निर्विकल्परूप से एकाग्र हो जाता है तो वह धर्मध्यान नाम पाता है। तात्पर्य यह है कि धर्मध्यान के पहले और धर्मध्यान में भी देहादि से विरक्ति के लिए उसकी अनित्यता, अशरणता, असारता और अशुचिता आदि का चिन्तन तो हो सकता है; पर शरीरादि के पोषण का विकल्प, चिन्तन, ध्यान तो महा अनर्थ है, धर्मध्यान के विरुद्ध प्रवृत्ति है। ध्यान के नाम पर आज यही सबकुछ हो रहा है। ध्यान के नाम पर आत्मकल्याण और आत्मज्ञान व आत्मध्यान में लगनेवाली बुद्धि, शक्ति, १. राजवार्तिक, अध्याय ९, सूत्र ३६, वार्तिक १३

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