Book Title: Dharma ka Vaigyanik Vivechan
Author(s): Virendra Sinha
Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf

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Page 3
________________ areasirdanandn.nakarma-MARNAMAAAA-Nahadatara..... सर्मप्रव17 नाव अभिर श्रीआनन्द अन्यश्रीआनन्द अन्५५ ३७० धर्म और दर्शन विचारकों का है जो धर्म को केवलमात्र भौतिक अनुभाव तथा प्रयोग का विकसित रूप मानते हैं। इस मत के पोषक ली रो (Le Roe), विलियम जेम्स तथा रसेल आदि विचारक हैं। इन विचारकों ने इसाई-धर्म की अनेक रूढ़ियों एवं मान्यताओं का विश्लेषण करने के बाद इस निष्कर्ष को सामने रखा है कि धार्मिक प्रतीकों तथा मान्यताओं का सर्वप्रथम महत्त्व उनके अर्थ में समाहित है जो अनुभव के तथा प्रयोग-पद्धति के द्वारा विकसित हुए हैं। केवलमात्र 'अनुभव' ही किसी मान्यता अथवा प्रस्थापना की सत्यता का मापदण्ड है।" इस सिद्धांत के पक्ष में कहा जा सकता है कि इसका क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है क्योंकि ज्ञान का आरम्भ एवं विस्तार अनुभव पर ही आश्रित है। परन्तु इसका क्षेत्र, जैसा कि इन विचारकों ने बताया है, केवलमात्र भौतिक ही है और मैं किसी सीमा के बाद इससे सहमत नहीं है। जहाँ तक भौतिकता का प्रश्न है, उससे भी मेरा कोई मतभेद नहीं है। परन्तु अनुभव का क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत है। वह केवल भौतिक प्राचीरों (ऐंद्रियजन्य) के अन्दर ही सीमित नहीं है । उसका क्षेत्र भौतिकता से परे, तात्त्विकता का भी क्षेत्र है। इस क्षेत्र में आकर 'अनुभव', भौतिकता की परिधि को छोड़कर 'अनुभूति' (इन्ट्यूशन Intution) के क्षेत्र के प्रवेश करता है। समस्त मानवीय ज्ञान इसी 'अनुभूति' के क्षेत्र को किसी-न-किसी रूप में स्पर्श करते हैं। धर्म और आत्मज्ञान उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि धार्मिक प्रतीक तथा प्रत्यय जहाँ अनुभव की परिधि को स्पर्श करते हैं, वहीं वे तत्त्व-चिन्तन की भावभूमि को छूते हैं । अतः दृश्यमान भौतिक क्षेत्र से अदृश्यमान तात्त्विक क्षेत्र तक एक क्रमागत सम्बन्ध है जिसमें नैतिक तथा अन्य प्रकार के अनुभवों का एक अभिन्न योगदान है। दृश्य अथवा भौतिकता का यहाँ तिरोभाव या नकार नहीं है, पर उसका उचित तथा अर्थवान सन्निवेश है। आधुनिक वैज्ञानिक-चिन्तन भी भौतिकता से क्रमशः अदृश्य प्रत्ययों की ओर गतिशील हो रहा है। परमाणु, ऊर्जा (Energy) ईथर, दिक्, काल तथा गुरुत्वाकर्षण शक्ति आदि ऐसे ही प्रत्यय हैं जो अदृश्य कल्पनाएं हैं जिन पर विज्ञान (भौतिकी और गणित आदि) की तात्त्विकता दृष्टिगत होती है । आधुनिक पदार्थ (या जैन शब्दावली में "द्रव्य") का स्वरूप नितान्त भौतिक नहीं रह गया है, यहाँ तक कि दिक् और काल को भी पदार्थ का रूपान्तर माना गया है। बट्रेन्ड रसेल का तो यहाँ तक कथन है कि पदार्थ वह है जहाँ तक 'मन' अन्तिम रूप से पहँच न सके । आधुनिक विज्ञान की यह धारणा एक तात्त्विकता की ओर संकेत करती है और ज्ञान के एक ऐसे पक्ष की ओर संकेत करती है जिसे हम आत्मिक या आध्यात्मिक-ज्ञान की संज्ञा देते हैं। ज्ञान का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है और उसी की व्यापकता पर "यथार्थ" का स्वरूप स्पष्ट होता है । सत्य और यथार्थ का स्वरूप निरपेक्ष न होकर सापेक्ष है और सापेक्षता की दशा में कोई भी प्रत्यय या प्रतीक किसी 'अन्य' से सम्बन्धित होकर ही अपनी अर्थवत्ता प्रकट करता है। सत्य का सापेक्षिक साक्षात्कार मूलतः ज्ञानपरक 'आस्था' पर ही आधारित है। कोई भी ज्ञान-क्षेत्र (चाहे वह धर्म हो या विज्ञान आदि) बिना 'आस्था' के पंगु रह जाता है और आत्मज्ञान की प्रक्रिया में यह आस्था तथा विश्वास का तर्कसम्मत रूप ही मान्य है । यह आस्था का प्रश्न मूलतः 'प्रतिबद्धता' (Commitment) का प्रश्न है जो हमारे कार्यों, विचारों तथा व्यवहारों को ५ इस विचारधारा को "प्रेगमैटिज्म' कहते हैं जो वैज्ञानिक पद्धति का दार्शनिक रूप है। ६ फिलासिफिकल एस्पेक्ट्स आफ माडर्न साइंस, सी० ई० एम० जोड, पृ० ६१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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