Book Title: Dharma ka Vaigyanik Vivechan
Author(s): Virendra Sinha
Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf

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Page 5
________________ RAKAMANANDANuskuranate-Baatein dae आचालनमा प्रिय अभिसाचार्यप्रवर अभी श्राआनन्द अन्यश्रीआनन्दन ३७२ धर्म और दर्शन वाया AC प्रतीकों का इतना गहरा सम्बन्ध है कि विद्वानों ने इनके अस्तित्व को एकदेशीय न मानकर अंतर्देशीय माना है। इस तथ्य से यह स्पष्ट होता है कि धर्म, दर्शन, विज्ञान, कला, साहित्य और समाजशास्त्र आदि के प्रतीकों का प्रयोग किसी एक ज्ञान-क्षेत्र से ही सम्बन्धित नहीं है, वरन् उनका प्रयोग अनेक क्षेत्रों में होता आया है और आज भी होता जा रहा है। यह एक ऐसा क्षेत्र है जो विज्ञान, धर्म और कला के आपसी संवादों को, एक निश्चयात्मक भावी संभावना के रूप में प्रस्तुत करता है। अतः इस सत्य को ध्यान में रखकर जब हम यह देखते हैं कि 'प्रतीकों' को लेकर हम आपस में लड़ते हैं, तो यह संघर्ष कितना बेमानी हो जाता है। प्रतीकोपासना का यह रूप इस बात की ओर संकेत करता है कि उपासना में हम प्रतीक के स्वरूप का साक्षात्कार करते हैं जो हमें किसी न किसी रूप में 'सत्य' के निकट ले जाता है। सत्य के प्रति इस प्रकार की सही दृष्टि विभिन्न धर्मों के 'प्रतीकों' में संघर्ष की स्थिति को कम ही करेगी। प्रतीकोपासना का अर्थ उनका संघर्ष नहीं है, पर उनका आदर और सम्मान है। यही वैज्ञानिक दृष्टि है जो तर्क एवं विवेक के आधार पर एक अन्तर्दृष्टि प्रदान करती है। प्रतीकों का अन्तर्गमन भी यही सिद्ध करता है जिसकी ओर ऊपर संकेत किया गया । धर्म : एक वस्तुगत समस्या उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि कोई भी मानवीय क्रिया निरपेक्ष नहीं होती है और उसकी सापेक्षता किसी न किसी वस्तु या प्रत्यय से होती है। इस दृष्टि से धर्म और विज्ञान का सम्बन्ध तथा महत्त्व मानव-सापेक्ष ही है। आधुनिक मानव की वैज्ञानिक-परिदृष्टि के द्वारा वस्तुगत तार्किकता की जो दृष्टि प्राप्त हुई है, उसने धर्म को एक वस्तुगत समस्या के रूप में भी स्वीकार किया है। या तु या मैजिक और धर्म का सम्बन्ध एक ऐतिहासिक सम्बन्ध है और धर्म के विकास के साथ यह तथ्य भी स्पष्ट होता है कि धर्म, मानव और उसके परिवेश की क्रियाप्रतिक्रिया का फल है। धर्म का सम्बन्ध मानवीय-भाग्य से जुड़ा है और साथ ही धर्म भी एक सबल मानवीय-जीवन पद्धति है क्योंकि 'धर्म' का तात्पर्य है जो धारण किया जा सके। यह धारण करने की प्रक्रिया ही मानव-जीवन सापेक्ष है और धर्म, यदि उसे आज की तार्किकता एवं बौद्धिकता में गतिशील होना है तो उसे यथार्थ की कठोर भूमि को स्पर्श करना होगा। यह यथार्थ मानवीय आस्था से प्रतिबद्ध है और आस्था का बल आज की वैज्ञानिक प्रगति से टूटता जा रहा है। धर्म और विज्ञान का पारस्परिक सम्बन्ध इसी 'आस्था' को मानवीय-संदर्भ में रेखांकित करना है । यहाँ पर जे० हक्सले का मत है कि धर्म का रोल समाज-सापेक्ष है, और इसके लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि वह ईश्वर की भावना का त्याग करे और उसका कहना है कि जिस प्रकार असुर, अप्सराएँ और मिश्रित देवताओं (Hybrid Gods) का विलोप होता जा रहा है, उसी प्रकार ईश्वर की धारणा का भी विलोप होता जा रहा है।'' ऊपर से तो यह बात नितांत सत्य है, क्योंकि आज के मूल्यों में जो विघटन की प्रवृत्ति नया ६ प्रतीकों के इस अन्तर्गमन के विस्तृत विवेचन के लिए देखें, डा० जगदीश गुप्त की प्रसिद्ध पुस्तक "प्रागैतिहासिक भारतीय चित्रकला", पृ० ४००-४२० १० ईश्वर के नाम पर जो अंधविश्वास चल पड़े हैं उनका त्याग आवश्यक है, ईश्वरत्व की ___ भावना का नहीं। (सम्पादक) ११ मैन इन दि माडर्न वर्ल्ड, जे० हक्सले, पृ० १३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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