Book Title: Dharma ka Vaigyanik Vivechan Author(s): Virendra Sinha Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf View full book textPage 2
________________ धर्म का वैज्ञानिक विवेचन ३६६ ne होती है क्योंकि वैज्ञानिक तर्कना में विश्लेषण और संश्लेषण का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। अवतार, लीला तथा ब्रह्म आदि की धारणाएँ विकासवादी सिद्धान्त तथा मनोविज्ञान की दृष्टि से नये परिप्रेक्ष्य में विश्लेषित एवं मूल्यांकित की जा सकती हैं। धार्मिक प्रतीकों की वैज्ञानिकता उपर्युक्त विवेचन के प्रकाश में 'अवतार' की धारणा को एक नयी परिदृष्टि प्रदान होती है जो विकास-परम्परा का एक प्रतीकात्मक निर्देश है। विकासवाद सिद्धांत (Evolution) में चेतना के क्रमिक विकास और शारीरिक संगठन को अन्योन्याश्रित माना गया है। भारतीय दस अवतार प्राणियों के चेतना-विकास के क्रमिक सोपान हैं जिससे यह भी स्पष्ट होता है कि मानव नामधारी प्राणी अन्य मानवेतर प्राणियों से सम्बद्ध है और 'वह' विकास परम्परा में शीर्षस्थ है। प्रथम अवतार मत्स्य है जो नितांत जल में रहनेवाला प्राणी है और दूसरा कूर्म है जो अंशतः जल और धरती दोनों पर रह सकता है, जिसे जीवशास्त्रीय भाषा में एम्फीबियन कहा गया है। यह दूसरी अवस्था पहली अवस्था से ज्यादा विकसित है । वाराह अवतार तक आते स्तनधारी प्राणियों (मैमल्स) का प्रादुर्भाव होता है जो केवल पृथ्वी का ही निवासी है। चौथा अवतार नरसिंह है । इसमें नर के साथ पशु-अंश की विद्यमानता है जिसका उन्नयन 'वामनावतार' में होता है। यदि फिर भी, इस पशु-प्रवृत्ति (रक्त) का अवशेष रह जाता है, वह 'परशुराम' के अवतार में दृष्टव्य है। सातवां । अवतार 'राम' है जो परशुराम की अहं प्रवृत्ति का शमन करते हैं। आठवां कृष्णावतार है जिसमें मानव के बहुमुखी व्यक्तित्व का विकास होता है । 'बुद्ध' और 'कल्कि' अवतार 'अतिमानव' (सुपरमैन) के भावी संभावित रूप हैं जो मानव की अन्तनिहित शक्तियों का क्रमिक साक्षात्कार है। इसी प्रकार ब्रह्म, लीला, द्रव्य आदि की धारणाओं को वैज्ञानिक दृष्टि से समझा जा सकता है । यह तथ्य यह भी स्पष्ट करता है कि ज्ञान का स्वरूप सापेक्ष है और अन्तर-अनुशासनीय है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि ज्ञान का क्षेत्र 'सापेक्ष सत्य' के साक्षात्कार का क्षेत्र है और इसका 'आनंद' उस प्रक्रिया में निहित है जो साक्षात्कार तक पहुँचने का माध्यम है, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार गंतव्य तक पहुँचने की लालसा का आनंद गंतव्य प्राप्त हो जाने पर उसका क्रमशः शमन हो जाना। इस दृष्टि से धार्मिक प्रतीकों का रहस्य भी ज्ञान-परक है। जब यह ज्ञान 'अनुभूति' के संस्पर्श से ऊर्ध्वगामी होता है, तब वह भौतिक क्षेत्र को छोड़कर तात्त्विक क्षेत्र की व्यंजना करता है । विज्ञान भी इसी तात्त्विकता की ओर अग्रसर हो रहा है । अनेक विचारकों ने धार्मिक प्रतीकों या ज्ञान को केवल भौतिक क्षेत्र के अन्दर ही सीमित माना है और उनका महत्त्व केवल नैतिक-मूल्यों तक ही सीमित रखा है। इसके समर्थक काँट, फीत्से आदि विचारक हैं। इनके अनुसार यदि नैतिकता के मानदण्डों का निर्माण न हो तो धार्मिक प्रतीकात्मक-दर्शन का विकास ही संभव न हो सकेगा। इस मत में सत्य का केवल एक पक्ष ही है। धार्मिक-दर्शन में नैतिक मूल्यों का एक प्रमुख स्थान है, पर उसके 'ज्ञान' को केवलमात्र 'नैतिकता' के दायरे में बांधा नहीं जा सकता है। सत्य में, नैतिकता का विकास भी विकासवादी परम्परा की सापेक्षता में होता है। नैतिकता के अतिरिक्त, धार्मिक-प्रतीकों में किसी धारणा या आदर्श का अव्यक्त रहस्य और ऊर्ध्वगामी अभियानों का दिग्दर्शन होता है। ईश्वर, आत्मा, अनंत अथवा निरपेक्ष (एब्सोल्यूट Absolute) की धारणाओं का हृदयंगम केवल नैतिक मान्यताओं के द्वारा नहीं हो सकता है । दूसरा वर्ग उन - ANAL ३ दे० पुरानाज इन दि लाइट आफ माडर्न साइंस, के० एन० अय्यर, पृ० ५०-६० ४ लैंगवेज एण्ड रियाल्टी, अरबन, पृ० ६०० marimminimumminemamsin ALANKARIANAJARAMBAirriasJANADAaminaamanaria n ANABAJIRMALAIJANIMAnima आचावट आनन आचार्यप्रवर अभिनय श्रीआनन्दपाश्रीआनन्द अन्य man Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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