Book Title: Dharm vidhi Prakaranam
Author(s): Udaysinhsuri, Shreeprabhsuri
Publisher: Hansvijayji Library

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Page 12
________________ मिविधि सानुवादम् ** । ६ ॥ ता भो भव्या तुन्भे वि, वीरजिणरायसासणाउ इमं । निहिमिव धम्म लहिउँ, दोगच्चं दलह अचिरेण ॥४८॥ रयणं व मणुस्सत्त, सुदुल्लहं एसमेव मा गमह । अवलंबिऊण दूसम--तुज्छबलत्ताइए दोसे ॥४९॥ एयं सिरिधम्मविहि, सिरिसिरिपहसूरिणा समाइहूँ । जे आयरंति सम्म, लहंति ते सासयमुहाई ॥५०॥ तत् भो भन्या यूयमपि, वीरजिनराजशासनादिमम् । निधिमिव धर्म लब्ध्वा, दौर्गत्यं दलयताचिरेण ।। ४८ ॥ रत्नमिव मनुष्यत्वं, सुदुर्लभं एवमेव मा गमयत । अवलम्ब्य दुःषमातुच्छबलत्वादीन् दोषान् ॥ ४९ ॥ एनं (त) श्रीधम्मविधि, श्रीश्रीप्रभसूरिणा समादिष्टं । ये आचरन्ति सम्यक्, लभन्ते ते शास्वतसुखानि ॥ ५० ॥ * * ********************** ॥ इति श्रीधर्मविधिप्रकरणम् ॥ .... ॥सानुवादम् ॥ * * *

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