Book Title: Dharm Jivan Jine ki Kala
Author(s): Satyanarayan Goyanka
Publisher: Sayaji U B Khin Memorial Trust Mumbai

View full book text
Previous | Next

Page 28
________________ धर्म का सार १७ कि व्यावहारिक जगत में हम शुद्ध चित्त का जीवन जी रहे हैं या नहीं। अपने आपको ईश्वरवादी कहने वाला व्यक्ति कल की चिन्ता में कितना व्याकुल हो रहा है ? अपने आपको अनात्मवादी कहने वाला व्यक्ति अपने अहं में किस कदर डूबा हुआ है ? ऐसी अवस्था में कोरा सैद्धान्तिक पक्ष किस काम का? मुख्य बात तो व्यावहारिक पक्ष की है, आचरण की है। शुद्ध चित्त पर आधारित आचरण ही धर्म है । कोई विशेष वेषभूषा पहनें या न पहनें, कोई विशेष कर्मकाण्ड सम्पन्न करें या न करें, कोई विशेष दार्शनिक मान्यता माने या न माने; परन्तु यदि हमारा मन-मानस द्वष-दौर्मनस्यता से भरा रहता है तो हम सर्वथा धर्महीन हैं और यदि वह स्नेह-सौमनस्यता से भरा रहता है तो हम धार्मिक ही हैं। कोई वेषभूषा, कोई कर्मकाण्ड, कोई दार्शनिक मान्यता हमारे चित्त की विशुद्धि में सहायक सिद्ध होती हो तो ग्राह्य है और यदि हमारी चित्तशुद्धि से उसका कोई सम्बन्ध नहीं हो तो निरर्थक, निस्सार है । अगर यही हमें धार्मिक होने की मिथ्या भ्रान्ति पैदा करने वाली हो जाय तो जहरीले सांप की तरह खतरनाक है । अतः सर्वथा त्याज्य है। जब हम धर्म के सत्यसार को नहीं समझते तो ऐसे ही खतरनाक जहरीले सांप-बिच्छू अपने भीतर पालते हैं। भाँति-भाँति के गन्दे कूड़े-करकट बटोरकर उन्हें अपनी छाती से लगाकर कहते हैं—यही हमारा धर्म, यही अनमोल रत्न, यही मणि है। जब तक धर्म की वास्तविक मणि नहीं प्राप्त होती, तब तक हम कंगाल हैं । हमारा जीवन निस्सार दिखावे, निरर्थक कर्मकाण्ड और निकम्मे बुद्धिकिलोल से भरा रहता है। परन्तु इतना होते हुए भी यदि हम इस सच्चाई को समझते हों कि यह सब सारहीन छिलके हैं, धर्म का सार तो चित्त की शुद्धता में है, राग-द्वष-मोह के बन्धनों से मुक्त होने में है, विषम स्थितियों में भी चित्त की समता बनाए रखने में है, मैत्री, करुणा, मुदिता में है और साथसाथ यह भी समझते हों कि यह गुण हममें नहीं हैं, तो देर-सबेर हम धर्म के सार को प्राप्त कर ही लेते हैं । लेकिन जब हम इन निस्सार छिलकों को ही धर्म मानने लगें तो शुद्ध धर्म प्राप्त कर सकने की सारी सम्भावनाएँ समाप्त हो जाती हैं । हम इन बाह्य छिलकों में रमे हुए कभी भीतर की ओर निहारते ही नहीं, आत्म-निरीक्षण करते ही नहीं । हम यह जाँच कभी करते ही नहीं कि जिसे धर्म माने जा रहे हैं, उसकी वजह से हमारे मन मानस में क्या सुधार हो रहा है ? हमारे जीवन-व्यवहार में क्या सुधार हो रहा है ? जन्म

Loading...

Page Navigation
1 ... 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119