Book Title: Dharm Jivan Jine ki Kala
Author(s): Satyanarayan Goyanka
Publisher: Sayaji U B Khin Memorial Trust Mumbai

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Page 102
________________ धर्म-दर्शन आखिर ये विकार भी क्यों पैदा होते हैं ? और पाया कि समस्त विकारों की जननी तृष्णा है। प्रिय को प्राप्त करने की तृष्णा, अप्रिय को दूर हटाने की तृष्णा । भीतर ही भीतर कोई प्रिय-सुखद संवेदना जाग्रत हुई कि राग-रूपी और कोई अप्रिय दुखद संवेदना हुई कि द्वषरूपी तृष्णा जागी। खोज जारी रही और उन्होंने जानना चाहा कि ये प्रिय-अप्रिय, सुखद-दुखद संवेदनाएं आखिर क्यों जागती हैं ? तो उन्होंने देखा कि जब-जब आँख, कान, नाक, जीभ, त्वचा और मन इन छह इन्द्रियों का अपने विषयों-रूप, शब्द, गंध, रस, स्पर्शव्य और चिंतन से संस्पर्श-संघात होता है, तब-तब भीतर ही भीतर शरीर और चित्त-स्कंध पर विभिन्न प्रकार की अनगिनित सूक्ष्म तरंगें पैदा होती हैं और अपने पूर्व संस्कारों व अनुभूतियों के आधार पर हम उन्हें प्रिय या अप्रिय की संज्ञा देते हैं। उन्होंने यह भी देखा कि जब आंख, कान, नाक, जीभ पर किसी विषय का कोई स्पर्श नहीं हो रहा हो और परिणामतः संस्पर्शजन्य संवेदना नहीं हो रही हो तो भी शरीर और चेतना के स्तर पर तो जब तक जीवित हैं, तब तक प्रतिक्षण यह स्पर्श.संवेदनाएं होती ही रहती हैं और इन्हें प्रिय-अप्रिय मानकर हम राग अथवा द्वेष की प्रतिक्रिया करते ही रहते हैं । और उन्होंने यह भी देखा कि यह सारा का सारा प्रपंच अन्तर्मन के उस स्तर पर चलता रहता है जिस स्तर पर कि हमें होश ही नहीं रहता। याने हमें पता ही नहीं चलता कि कब स्पर्श हुआ ? उसके परिणामस्वरूप कब संवेदना जागी और उसकी प्रतिक्रिया करते हुए कब हम राग-द्वेष के स्रोत में पड़ गए ? कब तनाव-खिचाव की गांठें बांधने लगे और कब दुःखों का ढेर लगाने लगे? उन्होंने देखा कि ऊपर-ऊपर तथाकथित होश बने रहने पर भी भीतर ही भीतर बेहोशी, अज्ञान, अविद्या, मोह के माहौल में हम इस चित्तधारा में प्रतिक्षण अनजाने ही राग-द्वेष का मैल प्रवाहित करते रहते हैं। वैसे ही जैसे नासूर में से पीप का आस्रव सतत बहता रहता है । इसी कारण दुख-निमग्न हुए रहते हैं । शोध जारी रही। उन्होंने देखा कि जिस.जिस क्षण अन्तर्मन की उन गहराइयों तक जागरूक रहते हैं, अप्रमत्त रहते हैं, अज्ञान, अविद्या और मोह से मुक्त रहते हैं, इस अनित्य प्रवाह को निर्लिप्त अनासक्त भाव से देखते रहते हैं उस-उस क्षण चित्तधारा पर नया राग नहीं जागता, नया द्वेष नहीं जागता । परिणामस्वरूप पुराने आस्रव क्षीण होते हैं, पूर्व संचित मैल छंटता है। उन्होंने देखा कि बार-बार की समतामयी जागरूकता के अभ्यास से

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