Book Title: Dharm Dhyan Ek Anuchintan Author(s): Kanhaiyalal Lodha Publisher: Z_Sadhviratna_Pushpvati_Abhinandan_Granth_012024.pdf View full book textPage 4
________________ Anamonominatihistatutt साध्वीरत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ HTRA + जो भी घटित हो रहा है उसमें सदैव प्रसन्न रहना उसके प्रति राग-द्वेष रूप प्रतिक्रिया नहीं करना, समभाव से रहना निसर्ग रुचि है। (३) सूत्र रुचि--निसर्ग के नियम सूत्र हैं। निसर्ग के नियम कारण-कार्य का अनुगमन करने वाले होने से सत्य हैं, स्वतः सिद्ध हैं, तर्कातीत हैं, जैसे । जो क्रोध करेगा उसका हृदय जलेगा, जो कामना करेगा उसके चित्त में अशांति होगी।) जे गुणे ते मुलट्ठाणे- अर्थात् भोग ही संसार का मूलस्थान है, कम्मबीजंराग द्वेष कर्मबीज हैं। 'अप्पा कत्ता विकत्ता सुहाण य दुहाण य-आत्मा स्वयं ही सुख-दुख का कर्ता अकर्ता है। ये नैसर्गिक नियम हैं-- सत्र हैं । इन सूत्रों के प्रति रुचि होना सूत्र रुचि है। वीतराग वाणीरूप आगम में भी इन्हीं नैसर्गिक सूत्रों का संकलन है अतः वीतरागवाणी के प्रति रुचि होना सूत्र रुचि है। (४) अवगाढ़ रुचि-अवगाहन करना-गहरा उतरना अवगाढ़ कहा जाता है । आज्ञा, निसर्ग एवं सूत्र की गहराई में पैठने की रुचि अवगाढ़ रुचि है। साधक द्वारा अपने ही अन्तर्लोक में प्रवेश कर आत्मनिरीक्षण करते हुए आज्ञा (सत्य), निसर्ग एवं सूत्र का साक्षात्कार करने के लिए रुचि रखना अवगाढ़ रुचि है। सत्य, निसर्ग एवं सूत्र की यथार्थता का अनुभव अपने अन्तर्जगत में गहरे पैठने से ही होता है, अतः अवगाढ़ रुचि अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इन चार लक्षणों से धर्मध्यान पहचाना जाता है। धर्म-ध्यान के आलम्बन अर्थात् सहयोगी अंग चार हैं(१) वांचना, (२) पृच्छना, (३) परिवर्तना और (४) धर्मकथा। वाचना-नैसर्गिक सत्य पर आधारित जो सूत्र (नियम) हैं उनका ज्ञान होना वाचना है। पृच्छना-पृच्छना जिज्ञासा को कहते हैं, उन सूत्रों (नियमों) के मर्म-रहस्य को जानने की जिज्ञासा पृच्छना है। परिवर्तना-उन सूत्रों को हृदयगंम करने के लिए बार-बार चिन्तन-मनन करना परिवर्तना है। धर्मकथा-उन सूत्रों में निहित सत्य कथन का साक्षात्कार करने का पुरुषार्थ करना धर्मकथा है। स्मरण रहे कि जिस वस्तु का जो आलम्बन होता है वह उससे भिन्न होता है। आलम्बन वस्तु नहीं होता है। इसी प्रकार उपर्युक्त चारों आलम्बन धर्म-ध्यान की प्राप्ति में सहायक हैं, परन्तु धः नहीं हैं। कारण कि इनमें चिन्तन-चर्चा चलती है और जब तक चिन्तन व चर्चा चलती है तब तक चित्त एकाग्र नहीं होता है, अन्तर्मुखी नहीं होता है, आत्म-साक्षात्कार नहीं होता। धर्म-ध्यान है-आत्म-साक्षात्कार करना । अतः ये आलम्बन धर्म-ध्यान के साधन हैं, धर्म-ध्यान नहीं हैं। . वस्तुतः ये चारों आलम्बन स्वाध्याय तप के अंग हैं जो ध्यान की पूर्ववर्ती अवस्था है । स्वाध्याय तप के बिना ध्यान में प्रवेश सम्भव नहीं है । स्वाध्याय तप का पांचवाँ भेद अनुप्रेक्षा है । अनुप्रेक्षा के दो रूप हैं चिन्तन और साक्षात्कार (अनभव, बोध)। अनप्रेक्षा का चिन्तन रूप का समावेश स्वाध्या हो जाता है और उसका बोध, साक्षात्कार (अनुभव) रूप धर्म-ध्यान में प्रकट होता है । अतः अनुप्रेक्षा को स्वाध्याय और ध्यान दोनों में स्थान दिया गया है । ध्यान में अनुप्रेक्षा अनुभव रूप में है और स्वाध्याय में चिन्तन रूप में। । THURALLमसम्म्म्म्म्म्म्म्E ३७२ | सातवां खण्ड : भारतीय संस्कृति में योग HOM Ma Iw.jaineli EEEEEEPage Navigation
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