Book Title: Dharm Dhyan Ek Anuchintan
Author(s): Kanhaiyalal Lodha
Publisher: Z_Sadhviratna_Pushpvati_Abhinandan_Granth_012024.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 1
________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ SR धर्म-ध्यान : एक अनुचिन्तन - कन्हैयालाल लोढ़ा तात्विक दृष्टि से साधना के तीन अंग हैं - ( १ ) पुण्य, (२) संवर और, (३) निर्जरा । पाप प्रवृत्तियों को त्यागकर सद्-प्रवृत्तियों को अपनाना पुण्य है । पुण्य से आत्मा पवित्र होती है, इससे संवर और निर्जरा की भूमिका तैयार होती है, पुण्य आत्मोत्थान में सहायक है बाधक नहीं । मन, वचन, काया व इन्द्रियों का संवरण (संकोच) करना संवर है । संवर निवृत्ति व निषेधपरक साधना है । पूर्वसंचित कर्मों के तादात्म्य को तोड़ना निर्जरा है । पुण्य से उदयमान (विद्यमान) कर्मों का उदात्तीकरण होता है जो पाप या राग को गलाता है, आत्मा को पवित्र करता है । संवर से नवीन कर्मों का बन्ध रुकता है और निर्जरा से पूर्व कर्मों का बन्ध या सम्बन्ध टूटता है अर्थात् निर्जरा या तप से चेतन का जड़ से तादात्म्य टूटता है । तादात्म्य तोड़ने के लिए तप का विधान है । तप दो प्रकार का है - ( १ ) बाह्य और ( २ ) आभ्यन्तर । अनशन, ऊनोदरी आदि बाह्य तप बहिर्मुखी वृत्तियों का संग तोड़ते हैं । प्रायश्चित्त, विनय आदि आभ्यन्तर ता राग-द्वेष आदि आन्तरिक वृत्तियों का संग तोड़ते हैं । ध्यान आभ्यन्तर तप है । आभ्यन्तर तप अन्तर्मुखी अवस्था में होता है । अन्तर्मुखी होने का अर्थ है अपनी देह के भीतर के जगत में स्थित हो जाना / विचरण करना । अतः ध्यान आन्तरिक अनुभूति है । ध्यान साधक अपने अन्तर्जगत में विचरण करता है और जहाँ-जहाँ तादात्म्य घनीभूत ग्रन्थियाँ है, जड़ता है, वहाँ वहाँ चित्त की एकाग्रता की तीक्ष्णता में ग्रन्थियों का वेधन कर व धुनकर क्षय करता है । चित्त की एकाग्रता अनित्य बोधमय समता से सधती है । समताभाव का ही दूसरा नाम सामायिक है । सामायिक ही सब साधनाओं का हार्द है । सामायिक साधना से जितनाजितना पर से अपना तादात्म्य टूटता जाता है उतना उतना साधक स्व की ओर उन्मुख होता जाता है । पूर्ण तादात्म्य टूटने पर साधक देहातीत व लोकातीत हो स्व में स्थित हो जाता है जिससे उसे स्व के अविनाशी, निराकुल स्वरूप का अनुभव होता है । परन्तु यह रहस्य वे ही ध्यान-साधक जान पाते हैं जिन्होंने ध्यान का प्रयोगात्मक अभ्यास किया है व ध्यान की गहराई में उतरकर स्वानुभव किया है । प्रस्तुत लेख में इसी दृष्टि से धर्म ध्यान के समय होने वाले अन्तरानुभव विषयक आगमिक कथन का विवेचन प्रस्तुत किया जा रहा है । धर्म-ध्यान : एक अनुचिन्तन : कन्हैयालाल लोढ़ा | ३६६ www.jaine

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6