Book Title: Dashvaikalaik Sutram
Author(s): Aatmaramji Maharaj, Shivmuni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti

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Page 5
________________ प्रकाशकीय जैन आगमों के स्वाध्याय की परम्परा प्राचीन काल से चली आ रही है। आगम, जैन दर्शन की अमूल्य धरोहर हैं / आगम वह ज्ञान है जो अनादि काल से अज्ञान-तिमिर में गुमराह मानव का दिव्य रोशनी देकर उज्ज्वल, ध्वल सम्यक् पथ प्रशस्त करता है। आगम अध्ययन से एक प्रेरणा प्रकट होती है जो जीवन जीने की कला सिखाती है। आगम, अरिहंत वाणी का दिव्य शंख है। जैन परम्परा ग्रन्थ भण्डारों की परम्परा है। जैसलमेर, पाटण आदि के ग्रन्थ भण्डार, भारतीय संस्कृति की अमूल्य निधि हैं। जैन भण्डार और साहित्य ने भारतीय इतिहास के निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। किन्तु उन के संरक्षकों द्वारा ग्रन्थ संरक्षण की यह परम्परा आगे जाकर ग्रन्थगोपन के रूप में परिणत हो गई। ग्रन्थों का पठन-पाठन कम हो गया और उन्हें छिपा कर रखा जाने लगा। उन्हें अपरिचित व्यक्ति को दिखाते हुए भी संकोच होने लगा। सम्भव है मुस्लिम शासन में ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई हो जिससे बाध्य होकर ऐसा करना पड़ा। परिणाम स्वरुप ग्रन्थों का प्रचार व प्रसार बहुत कम हो गया। __ जैन-साहित्य का प्राचीनतम रुप चौदह पूर्व माने जाते हैं। यद्यपि इस समय कोई पूर्व उपलब्ध नहीं है, फिर भी उस साहित्य में से उद्धृत् उस आधार पर रचे गए ग्रन्थ विपुल मात्रा में आज भी विराजमान हैं। दशवैकालिक शय्यंभवाचार्य की रचना है जो जिनशासन के चतुर्थ पट्टधर आचार्य थे। जैन धर्म दिवाकर, आगम महोदधि आचार्य सम्राट श्री आत्माराम जी महाराज इस युग के एक धुरंधर विद्वान् और आगमों के प्रकाण्ड पण्डित मुनिराज थे। उन्होंने अपने जीवन काल में बत्तीस आगमों पर बृहट्टीकाएँ लिखीं और स्वतन्त्र ग्रन्थों का भी प्रणयन किया। सरल भाषा में ग्रन्थों की व्याख्या कर जैन समाज को महान् उपहार दिया। दशवैकालिक का पूर्व प्रकाशन पचपन वर्ष पूर्व लाहौर (पाकिस्तान) में हुआ था। समय के प्रभाव से आज बहुत कम मात्रा में यह आगम उपलब्ध है और श्रमण-श्रमणियों की जिज्ञासा थी कि आचार्य श्री का व्याख्याकृत दशवैकालिक सर्वसुलभ हो, इसी तथ्य को दृष्टिपथ पर रखकर प्रस्तुत आगम के प्रकाशन का कार्य प्राथमिक रूप से कराने का यत्न किया गया। पूज्य आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज के ही पौत्र शिष्य आचार्य सम्राट् श्री शिवमुनि जी महाराज ने आचार्य श्री जी के समग्र टीका साहित्य को पुनः प्रकाशित कराने का भागीरथ संकल्प किया है और समस्त चतुर्विध श्री संघ आचार्य श्री के इस संकल्प का अनुगामी है। फलतः आत्म ज्ञान श्रमण शिव आगम प्रकाशन समिति का गठन किया गया। इस समिति द्वारा आचार्य श्री जी के आगम उपासकदशांग, अनुत्तरोपपातिक तथा उत्तराध्ययन सूत्र (तीन भागों में) प्रकाशित हो चुके हैं। परम श्रद्धेय आचार्य सम्राट श्री शिवमुनि जी महाराज के दिशानिर्देशन में आगम दशवैकालिक का नवीन संस्करण प्रकाशित हो रहा है।आशा करते हैं कि इसको सभी मुमुक्षु आत्माएँ एवं साधु-साध्वियाँ प्राप्तकर जन-जन में स्वाध्याय की प्रेरणा प्रदान करेंगे। अध्यक्ष आत्म-ज्ञान-श्रमण-शिव आगम प्रकाशन समिति लुधियाना (पंजाब)

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