Book Title: Darshanopayog aur Gyanapayog ka Vishleshan
Author(s): Bansidhar Pandit
Publisher: Z_Bansidhar_Pandit_Abhinandan_Granth_012047.pdf

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Page 4
________________ ४ / दमन और न्याय : ५१ की अवस्थायें ज्ञानोपयोगकी ही हआ करती है, अतः ज्ञानोपयोग तो प्रमाण तथा अप्रमाण दोनों रूप होता है, किन्तु दर्शनोपयोगमें स्व और पर दोनों प्रकारको व्यवसायात्मकताका सर्वथा अभाव जैनदर्शनमें स्वीकार किया गया है । अतः उसे न तो प्रमाणरूप ही कह सकते है ओर न अप्रमाणरूप ही कह सकते हैं। इतना अवश्य है कि ज्ञानोपयोगकी उत्पत्तिमें अनिवार्य कारणताके आधारपर दर्शनोपयोगकी सत्ता और उपयोगिताको अवश्य ही जैनदर्शनमें स्वीकृत किया गया है। दर्शनोपयोगकी यह स्थिति, जीवमें पदार्थ के प्रतिबिम्बित रूपको दर्शनोपयोग माननेसे ही बन सकती है। अतः जीवमें पदार्थके प्रतिबिम्बित होनेको हो दर्शनोपयोग स्वीकृत करना चाहिये। तात्पर्य यह है कि जब सामान्य अवलोकन अर्थात् दर्शन या दर्शनोपयोगका अर्थ ज्ञेय पदार्थका जीवके अन्दर प्रतिबिम्बित होना स्वीकृत किया जाता है तभी उसकी स्थिति जैनदर्शनके अनुसार प्रमाणता और अप्रमाणतासे परे सिद्ध हो सकती है व बोद्धदर्शनके अनुसार संशय, विपर्यय तथा अनध्यवसायरूप दोषोंसे रहित हो सकती है। इसका कारण यह है कि जैनदर्शनमें एक तो स्वपरव्यवसायात्मकताको प्रमाणताका और स्वव्यवसायात्मकताके रहते हुए भी परव्यवसायात्मकताके अभावको अप्रमाणताका चिन्ह मानकर दर्शनोपयोगमें स्वव्यवसायात्मकता और परव्यवसायात्मकता दोनोंका अभाव स्वीकार किया गया है। दूसरे, जीवमें पदार्थका प्रतिविम्ब पड़े बिना ज्ञानोपयोगकी उत्पत्तिकी असंभावनाको स्वीकार किया गया है, तीसरे दर्शनोपयोगका ऐसा कोई अर्थ नहीं स्वीकृत किया गया है जो दर्शनोपयोगके उपर्युक्त स्वरूपके विरुद्ध हो और चौथे यह बात भी है कि ज्ञानोपयोग जैसा विद्यमान और अविद्यमान दोनों तरहके पदार्थोके विषयमें होता है वैसा दर्शनोपयोग विद्यमान और अविद्यमान दोनों प्रकारके पदार्थों के विषयमें न होकर केवल विद्यमान पदार्थों के विषयमें ही होता है, इस बातको भी जैनदर्शनमें स्वीकार किया गया है। इतना ही नहीं, इसी आधारपर बौद्धदर्शनमें प्रत्यक्षकी स्थिति संशय, विपर्यय और अनध्यवसायरूप दोषोंसे रहित स्वीकृत की गयी है। इस प्रकार यह बात अच्छी तरह स्पष्ट हो जाती है कि जैनदर्शनके दर्शनोपयोग और बौद्धदर्शनके प्रत्यक्षका अर्थ जीवमें पदार्थका प्रतिबिम्बित होना ही है और इसके आधारपर जीवको जो पदार्थका प्रतिभास होता है वही ज्ञानोपयोग है। यहां इतनी बात और समझ लेना चाहिये कि यत. सर्वज्ञके दर्शनावरणकर्मका सर्वथा क्षय हो जाने से उसमें संपूर्ण पदार्थ अपनी त्रिकालवर्ती पर्यायोंके साथ प्रतिक्षण स्वभावतः प्रतिबिम्बित होते रहते हैं अतः उसको ज्ञानावरणकर्मके सर्वथा क्षय हो जानेके आधारपर वे सम्पूर्ण पदार्थ अपनी उन त्रिकालवर्ती समस्त पर्यायोंके साथ प्रतिक्षण स्वभावतः प्रतिभासित होते रहते हैं और यतः अल्पज्ञमें ऐसे पदार्थों का प्रतिबिम्बित होना निमित्ताधीन है अर्थात् प्रतिनियत पदार्थका प्रतिनियत इन्द्रिय द्वारा प्रतिनियत आत्मप्रदेशोंमें जब प्रतिविम्ब पड़ता है तब उस-उस इन्द्रिय द्वारा उस-उस पदार्थका ज्ञान जीवको हुआ करता है। जैनदर्शनमें उसउस इन्द्रिय द्वारा आत्मप्रदेशोंमें पड़नेवाले पदार्थप्रतिबिम्बको तो उस-उस इन्द्रियके दर्शन नामसे पुकारा गया है और इसके आधारपर होनेवाले पदार्थज्ञानको उस-उस इन्द्रियके मतिज्ञान नामसे पुकारा गया है। अर्थात् जैनदर्शनमें चक्षसे आत्मामें पड़नेवाले पदार्थप्रतिबिम्बको चक्षुर्दर्शन तथा स्पर्शन, रसना, नासिका, कर्ण और मनसे आत्मामें पड़नेवाले पदार्थ प्रतिबिम्बको अचक्षुर्दर्शन कहा गया है तथा उस-उस दर्शनके आधारपर उसउस इन्द्रियसे होनेवाले मतिज्ञानको देखने, छूने, चखने, संघने, सुनने और अनुभव करने के रूपमें उस-उस इन्द्रियका मतिज्ञान कहा गया है। यहाँ इतना विशेष समझना चाहिये कि अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणारूप मतिज्ञानमें पदार्थदर्शन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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