Book Title: Darshanopayog aur Gyanapayog ka Vishleshan
Author(s): Bansidhar Pandit
Publisher: Z_Bansidhar_Pandit_Abhinandan_Granth_012047.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोगका विश्लेषण विश्व की रचना जैनदर्शनमें विश्वको रचना जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और कालके भेदसे छह प्रकारके पदार्थोके आधारपर स्वीकृत की गयी है । इनमेंसे जीवोंकी संख्या अनन्तानन्त है, पुद्गलोंकी संख्या भी अनन्तानन्त है, धर्म, अधर्म और आकाश एक-एक हैं तथा काल असंख्यात हैं । प्रत्येक पदार्थका स्वभाव धर्म, अधर्म, आकाश और सभी कालोंमें अपनी-अपनी स्वतःसिद्ध स्वभावभूत भाववतीशक्ति विद्यमान है व सभी जीवों और पुद्गलोंमें अपनी-अपनी स्वतःसिद्ध स्वभावभूत भाववतीशक्तिके साथ-साथ अपनी-अपनी स्वतःसिद्ध स्वभावभत कियावतीशक्ति भी विद्यमान है। क्रियावतीशक्तिकी विद्यमानताके कारण ही जीव और पुद्गल दोनों प्रकारके पदार्थ सक्रिय कहलाते हैं और क्रियावतीशक्तिकी अविद्यमानताके कारण ही धर्म, अधर्म, आकाश और काल नामके पदार्थ निष्क्रिय कहलाते हैं।' प्रत्येक पदार्थका कार्य प्रत्येक पदार्थ अपनी-अपनी भाववती शक्तिके आधारपर सतत अपना-अपना कार्य कर रहा है। अर्थात् आकाश अपनी भाववतीशक्तिके आधारपर स्व और अन्य सभी पदार्थोंको सतत अपने पेटमें समाये हए है, सभी काल अपनी-अपनी भाववतीशक्तिके आधारपर स्व और अन्य सभी पदार्थोंको सतत एक क्षणवर्ती तथा अनेक क्षणवर्ती पर्यायोंके रूप में विभाजित कर रहे हैं। धर्म अपनी भाववतीशक्तिके आधारपर जीवों और पुद्गलोंकी यथावसर होनेवाली हलन-चलनरूप क्रियामें सतत सहायक होता रहता है और अधर्म अपनी भाववतीशक्तिके आधारपर जीवों और पद्गलोंकी उक्त क्रियाके यथावसर होनेवाले स्थगनमें सतत सहायक होता रहता है। इसी प्रकार प्रत्येक जीव अपनी-अपनी यथायोग्य रूपमें विकसित भाववतीशक्तिके आधारपर स्व और अन्य सभी पदार्थों का सतत यथायोग्य रूपमें सामान्य अवलोकन (दर्शन) पूर्वक विशेष अवलोकन (ज्ञान) करता रहता है और इसी प्रकार प्रत्येक पुद्गल अपनी-अपनी भाववतीशक्तिके आधारपर सतत रससे रसान्तररूप, गन्धसे गन्धान्तररूप, स्पर्शसे स्पर्शान्तररूप और वर्णसे वर्णान्तररूप परिणमन किया करता है। इसके अतिरिक्त जीव और पुदगल अपनी-अपनी क्रियावतीशक्तिके आधारपर यथावसर क्षेत्रसे क्षेत्रान्तररूप क्रिया सतत करते रहते हैं और अपनी इसी क्रियावतीशक्तिके आधारपर संसारी जीव यथावसर पौदगलिक कर्मो तथा नोकर्मों के साथ व पुद्गल यथावसर संसारी जीवों और अन्य पुद्गलोंके साथ सतत मिलते व विछुड़ते रहते हैं। मुक्त जीवोंका जो ऊर्ध्वगमन होता है वह भी उनको अपनी इसी क्रियावतीशक्तिके आधार पर होता है ? किन्तु वे जो लोकके अग्रभागमें स्थित होकर रह जाते हैं उसका कारण आगे धर्मास्तिकायका अभाव है । १. पंचाध्यायी, अध्याय २, श्लोक २५, २६, २७ ।। २. तदनन्तरमूवं गच्छत्यालोकान्तात् । -तत्त्वार्थसूत्र १०-५ । ३. प्रश्न-'आह यदि मुक्त ऊर्ध्वगतिस्वभावो लोकान्तादुर्ध्वमपि कस्मान्नोत्पततीत्यत्रोच्यते ? (सर्वार्थ सिद्धि), समाधान-धर्मास्तिकायाभावात् । -तत्त्वार्थसूत्र । “जीवाण पौग्गलाणं गमणं जाणेहि जाव धम्मत्थी । धम्मत्थिकायभावे तत्तो परदो ण गच्छंति । -नियमसार, १८३ । Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवकी भावती शक्ति में विशेषता प्रत्येक जीवकी भाववतीशक्ति अनादिकालसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण और वीर्यान्तराय नामके पौद्गलिक कर्मों से प्रभावित होकर रहती आयी है, परन्तु अनादिकालसे ही प्रत्येक जीवमें उक्त तीनों कर्मोंका नियमसे यथायोग्यरूपमें क्षयोपशम रहनेके कारण वह भाववती शक्ति भी यथायोग्यरूप में विकासको प्राप्त होकर रहती आयी है। प्रत्येक जीवकी भाववतीशक्तिका यह विकास ज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशमके आधारपर ज्ञानशक्तिके रूप में दर्शनावरणकर्मके क्षयोपशमके आधारपर दर्शनभक्तिके रूपमें और वीर्यान्तरायकर्मके क्षयोपशमके आधारपर वीर्यशक्तिके रूपमें रहता आया है । ४ / दर्शन और न्याय : ४९ यहाँ इतना विशेष समझ लेना चाहिये कि जिन जीवोंमें समस्त ज्ञानावरण, समस्त दर्शनावरण और वीर्यान्तराय कर्मोंका पूर्ण क्षय हो चुका है उनमें उनकी उस भाववतीशक्तिका ज्ञानशक्ति, दर्शनशक्ति और वीर्यशक्तिके रूप में पूर्ण विकास 'चुका है व जिन जीवों में उक्त समस्त ज्ञानावरण, समस्त दर्शनावरण और वीर्यान्तराय कर्मोंका आगे जब पूर्ण क्षय हो जायगा तब उनमें भी उनकी उस भाववतीशक्तिका ज्ञानशक्ति, दर्शनशक्ति और वीर्यशक्तिके रूप में पूर्ण विकास जायगा । यद्यपि जीवको भाववतीशक्तिपर दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय और उपभोगान्तराय कर्मोंका भी अनादिकाल से प्रभाव पड़ रहा है और अनादिकालसे इन कर्मोंका भी क्षयोपशम रहनेके कारण प्रत्येक जीव में उस भाववतीशक्तिका दानशक्ति, लाभशक्ति, भोगशक्ति और उपभोगशक्तिके रूपमें यथायोग्य विकास भी अनादिकाल से रहता आया है, परन्तु इन दानादि चारों शक्तियोंका सम्बन्ध जीवकी क्रियावतीशक्तिके साथ होने के कारण यहाँ इनको उपेक्षित किया जा रहा है । ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोगका स्वरूप जीवक विकासको प्राप्त ज्ञानशक्ति, दर्शनशक्ति और वीर्यशक्ति- इन तीनों शक्तियोंमेंसे ज्ञानशक्तिका कार्य जीवको स्व और अन्यपदार्थोंका विशेष अवलोकन अर्थात् ज्ञान करानेका है, दर्शनशक्तिका कार्य जीवको स्व और अन्यपदार्थोंका सामान्य अवलोकन अर्थात् दर्शन करानेका है और वीर्यशक्तिका कार्य उक्त ज्ञानशक्ति और दर्शनशक्ति के कार्य में जीवको यथायोग्यरूप में सक्षम बनानेका है । इस तरह जीवकी विकसित ज्ञानशक्तिका जो स्व और अन्य पदार्थोंका विशेष अवलोकन अर्थात् ज्ञान होने रूप कार्य है उसका नाम ज्ञानोपयोग है और उसकी विकसित दर्शनशक्तिका जो स्व और अन्यपदार्थोंका सामान्य अवलोकन अर्थात् दर्शन होनेरूप कार्य है उसका नाम दर्शनोपयोग है । विशेष अवलोकन और सामान्य अवलोकनका अर्थ यहाँपर ज्ञानोपयोग और वर्शनोपयोग के स्वरूप निर्देशनमें जो यह बतलाया गया है कि जीवकी विकसित ज्ञानशक्तिका स्व और अन्यपदार्थोंका विशेष अवलोकन अर्थात् ज्ञान होने रूप कार्य तो ज्ञानोपयोग है व उसकी विकसित दर्शनशक्तिका स्व और अन्यपदार्थोंका सामान्य अवलोकन अर्थात् दर्शन होने रूप कार्य दर्शनोपयोग है । इसमें विशेष अवलोकन अर्थात् ज्ञानका अर्थं जीव द्वारा दीपककी तरह स्व और अन्य पदार्थों प्रतिभासित किया जाना है और सामान्य अवलोकन अर्थात् दर्शनका अर्थ जीवमें दर्पणकी तरह स्व और roarrer प्रतिबिम्बित होना है, जिसका तात्पर्य यह होता है कि जिस प्रकार दीपकका स्वभाव स्व और अन्यपदार्थोंको प्रतिभासित करनेका है उसी प्रकार जीवका स्वभाव भी स्व और अन्य पदार्थोंको प्रतिभासित करने का है तथा जिस प्रकार दर्पणका स्वभाव स्व और अन्यपदार्थोंको अपने अन्दर प्रतिबिम्बित करनेका है। उसी प्रकार जीवका स्वभाव भी स्व और अन्यपदार्थोंको अपने अन्दर प्रतिविम्बित करनेका है । ४-७ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ यहाँ पर प्रतिविम्बित शब्दका अर्थ स्वकी अपेक्षा दर्पण अथवा जीवकी तदात्मक स्थितिके रूपमें और अन्यपदार्थों की अपेक्षा दर्पण अथवा जीवकी उन अन्यपदार्थोके निमित्तसे होनेवाली तदनुरूप परिणतिके रूपमें लेना चाहिये। जीवके स्वभावको समझनेके लिये यहाँ पर जो दीपक और दर्पण दोनोंको उदाहरण के रूपमें प्रस्तुत किया गया है, इसका कारण यह है कि यद्यपि दीपकका स्वभाव अन्य पदार्थोंको प्रतिभासित अर्थात् प्रकाशित करनेका है, परन्तु उन अन्य पदार्थोंको अपने अन्दर प्रतिबिम्बित करनेका स्वभाव नहीं है। इसी तरह यद्यपि दर्पणका स्वभाव अन्य पदार्थोंको अपने अन्दर प्रतिविम्बित करने का है, परन्तु उन अन्य पदार्थोंको प्रतिभासित अर्थात् प्रकाशित करनेका उसका स्वभाव नहीं है जब कि जीव में दीपक और दर्पणकी अपेक्षा यह विशेषता पायी जाती है कि उसका स्वभाव दीपककी तरह अन्य पदार्थोंको प्रतिभासित अर्थात् ज्ञान करनेका भी है और दर्पण की तरह अन्य पदार्थोंको अपने अन्दर प्रतिबिम्बित करनेका भी है। आगममें भी इसीलिये जीवके स्वभावको समझनेके लिये दीपक और दर्पण दोनोंको उदाहरणके रूपमें प्रस्तुत किया गया है। दोपक और जीव द्वारा अन्य पदार्थों के प्रतिभासित होनेका आधार देखने में आता है कि दीपक अन्य पदार्थोके साथ जब तक अपना सम्बन्ध स्थापित नहीं कर लेता है तब तक वह उनको प्रतिभासित अर्थात् प्रकाशित करने में असमर्थ ही रहा करता है। इसी प्रकार जीवके सम्बन्धमें भी यह स्वीकार करना आवश्यक है कि वह भी जब तक अन्य पदार्थोके साथ अपना सम्बन्ध स्थापित नहीं कर लेगा तब तक वह उनको प्रतिभासित अर्थात ज्ञात करने में असमर्थ ही रहेगा। परन्तु र वाद बात है कि जिस प्रकार दीपक अन्य पदार्थों के पास पहुँच कर उनसे अपना सम्बन्ध स्थापित करता है उस प्रकार जीव अन्य पदार्थोके पास पहुँच कर उनसे अपना सम्बन्ध स्थापित नहीं कर पाता है। अतः जैनदर्शनमें यह स्वीकार किया गया है कि जीवमें दर्पणकी तरह जब अन्य पदार्थ प्रतिबिम्बित होते हैं तभी वह उनको दीपककी तरह प्रतिभासित अर्थात् ज्ञात करता है। इस विवेचनके आधारपर ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोगके सम्बन्धमें मैं यह कहना चाहता हूँ कि जीवमें दर्पणकी तरह पदार्थका प्रतिबिम्बित हो जाना ही दर्शनोपयोग है और इस प्रकारके दर्शनोपयोगपूर्वक जीवको दीपककी तरह पदार्थका प्रतिभासित अर्थात ज्ञान हो जाना ही ज्ञानोपयोग है। दर्शनोपयोग ज्ञानोपयोगमें कारण होता है--यह बात आचार्य नेमिचन्द्रने द्रव्यसंग्रहमें "दंसणपुव्वं गाणं" गाथांश द्वारा स्पष्ट कर दी है। उपर्युक्त कथनका समर्थन उपर्युक्त कथनके समर्थनमें यह कहा जा सकता है कि जैनदर्शनमें वणित दर्शनोपयोग और बौद्धदर्शन में वर्णित प्रत्यक्षमें समानता पायी जाती है। इतना अवश्य है कि बौद्धदर्शनमें जहाँ उसके द्वारा माने गये प्रत्यक्षको प्रमाण माना गया है वहां जैनदर्शनमें उसके द्वारा माने गये दर्शनोपयोगको प्रमाणता और अप्रमाणताके दायरेसे परे रखा गया है। इसका कारण यह है कि जैनदर्शनमें स्वपरव्यवसायीको प्रमाण माना गया है और जो स्वव्यवसायी होते हए भी परव्यवसायी नहीं होता उसे अप्रमाण माना गया है। ये दोनों प्रकार १. जीवके स्वभावको समझनेके लिये परीक्षामुखमें "प्रदीपवत् ॥१-१२॥" सूत्र द्वारा दीपकको व पुरुषार्थ सिद्धयुपायमें "तज्जयति परं ज्योति" इत्यादि पद्य द्वारा तथा रत्नकरण्डकश्रावकाचारमें "नमः श्रीवर्द्धमानाय' इत्यादि पद्य द्वारा दर्पणको उदाहरणके रूपमें प्रस्तुत किया गया है। Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / दमन और न्याय : ५१ की अवस्थायें ज्ञानोपयोगकी ही हआ करती है, अतः ज्ञानोपयोग तो प्रमाण तथा अप्रमाण दोनों रूप होता है, किन्तु दर्शनोपयोगमें स्व और पर दोनों प्रकारको व्यवसायात्मकताका सर्वथा अभाव जैनदर्शनमें स्वीकार किया गया है । अतः उसे न तो प्रमाणरूप ही कह सकते है ओर न अप्रमाणरूप ही कह सकते हैं। इतना अवश्य है कि ज्ञानोपयोगकी उत्पत्तिमें अनिवार्य कारणताके आधारपर दर्शनोपयोगकी सत्ता और उपयोगिताको अवश्य ही जैनदर्शनमें स्वीकृत किया गया है। दर्शनोपयोगकी यह स्थिति, जीवमें पदार्थ के प्रतिबिम्बित रूपको दर्शनोपयोग माननेसे ही बन सकती है। अतः जीवमें पदार्थके प्रतिबिम्बित होनेको हो दर्शनोपयोग स्वीकृत करना चाहिये। तात्पर्य यह है कि जब सामान्य अवलोकन अर्थात् दर्शन या दर्शनोपयोगका अर्थ ज्ञेय पदार्थका जीवके अन्दर प्रतिबिम्बित होना स्वीकृत किया जाता है तभी उसकी स्थिति जैनदर्शनके अनुसार प्रमाणता और अप्रमाणतासे परे सिद्ध हो सकती है व बोद्धदर्शनके अनुसार संशय, विपर्यय तथा अनध्यवसायरूप दोषोंसे रहित हो सकती है। इसका कारण यह है कि जैनदर्शनमें एक तो स्वपरव्यवसायात्मकताको प्रमाणताका और स्वव्यवसायात्मकताके रहते हुए भी परव्यवसायात्मकताके अभावको अप्रमाणताका चिन्ह मानकर दर्शनोपयोगमें स्वव्यवसायात्मकता और परव्यवसायात्मकता दोनोंका अभाव स्वीकार किया गया है। दूसरे, जीवमें पदार्थका प्रतिविम्ब पड़े बिना ज्ञानोपयोगकी उत्पत्तिकी असंभावनाको स्वीकार किया गया है, तीसरे दर्शनोपयोगका ऐसा कोई अर्थ नहीं स्वीकृत किया गया है जो दर्शनोपयोगके उपर्युक्त स्वरूपके विरुद्ध हो और चौथे यह बात भी है कि ज्ञानोपयोग जैसा विद्यमान और अविद्यमान दोनों तरहके पदार्थोके विषयमें होता है वैसा दर्शनोपयोग विद्यमान और अविद्यमान दोनों प्रकारके पदार्थों के विषयमें न होकर केवल विद्यमान पदार्थों के विषयमें ही होता है, इस बातको भी जैनदर्शनमें स्वीकार किया गया है। इतना ही नहीं, इसी आधारपर बौद्धदर्शनमें प्रत्यक्षकी स्थिति संशय, विपर्यय और अनध्यवसायरूप दोषोंसे रहित स्वीकृत की गयी है। इस प्रकार यह बात अच्छी तरह स्पष्ट हो जाती है कि जैनदर्शनके दर्शनोपयोग और बौद्धदर्शनके प्रत्यक्षका अर्थ जीवमें पदार्थका प्रतिबिम्बित होना ही है और इसके आधारपर जीवको जो पदार्थका प्रतिभास होता है वही ज्ञानोपयोग है। यहां इतनी बात और समझ लेना चाहिये कि यत. सर्वज्ञके दर्शनावरणकर्मका सर्वथा क्षय हो जाने से उसमें संपूर्ण पदार्थ अपनी त्रिकालवर्ती पर्यायोंके साथ प्रतिक्षण स्वभावतः प्रतिबिम्बित होते रहते हैं अतः उसको ज्ञानावरणकर्मके सर्वथा क्षय हो जानेके आधारपर वे सम्पूर्ण पदार्थ अपनी उन त्रिकालवर्ती समस्त पर्यायोंके साथ प्रतिक्षण स्वभावतः प्रतिभासित होते रहते हैं और यतः अल्पज्ञमें ऐसे पदार्थों का प्रतिबिम्बित होना निमित्ताधीन है अर्थात् प्रतिनियत पदार्थका प्रतिनियत इन्द्रिय द्वारा प्रतिनियत आत्मप्रदेशोंमें जब प्रतिविम्ब पड़ता है तब उस-उस इन्द्रिय द्वारा उस-उस पदार्थका ज्ञान जीवको हुआ करता है। जैनदर्शनमें उसउस इन्द्रिय द्वारा आत्मप्रदेशोंमें पड़नेवाले पदार्थप्रतिबिम्बको तो उस-उस इन्द्रियके दर्शन नामसे पुकारा गया है और इसके आधारपर होनेवाले पदार्थज्ञानको उस-उस इन्द्रियके मतिज्ञान नामसे पुकारा गया है। अर्थात् जैनदर्शनमें चक्षसे आत्मामें पड़नेवाले पदार्थप्रतिबिम्बको चक्षुर्दर्शन तथा स्पर्शन, रसना, नासिका, कर्ण और मनसे आत्मामें पड़नेवाले पदार्थ प्रतिबिम्बको अचक्षुर्दर्शन कहा गया है तथा उस-उस दर्शनके आधारपर उसउस इन्द्रियसे होनेवाले मतिज्ञानको देखने, छूने, चखने, संघने, सुनने और अनुभव करने के रूपमें उस-उस इन्द्रियका मतिज्ञान कहा गया है। यहाँ इतना विशेष समझना चाहिये कि अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणारूप मतिज्ञानमें पदार्थदर्शन Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ सरस्वती-वरवपुत्र पं० वंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्य साक्षात् कारण होता है तथा स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क और अनुमानरूप मतिज्ञानमें तथा श्रुतज्ञान में पदार्थदर्शन परंपरया कारण होता है। इसका आधार यह है कि दर्शन और अवग्रह, ईहा, अवाय अथवा धारणारूप मतिज्ञानोंके मध्य कोई व्यवधान नहीं है जबकि दर्शन और स्मृतिके मध्य धारणाज्ञानका दर्शन और प्रत्यभिज्ञानके मध्य स्मृतिका, दर्शन और तर्कके मध्य प्रत्यभिज्ञानका दर्शन और अनुमानके मध्य तर्कका और दर्शन और श्रुतज्ञानके मध्य अनुमानज्ञानका व्यवधान रहा करता है। यहां श्रुतसे शब्दजन्य धुत लिया गया है - ऐसा जानना चाहिये । जिन जीवोंको अवधिज्ञान होता है उनके उसकी उत्पत्तिमें भी दर्शन कारण होता है, जिसे अवधिदर्शन कहते हैं और केवलज्ञानकी उत्पत्तिमें जो दर्शन कारण होता है उसे केवलदर्शन कहा जाता है । यद्यपि मन:पर्ययज्ञान भी दर्शनपूर्वक ही होता है परन्तु उस दर्शनको कौनसा दर्शन कहा जाय ? इसका उल्लेख मुझे आगममें देखने को नहीं मिला है। फिर भी मेरा अभिमत है कि मनः पर्ययज्ञान मनःस्थित आत्मप्रदेशों में मन:पर्ययज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशमपूर्वक होता है और वह ईहाज्ञानके पश्चात् होता है अतः हो सकता है कि उस दर्शनको मानस दर्शनके रूपमें अचक्षुदर्शनमें अन्तभूतकर दिया गया हो, विद्वान पाठकोंको इसपर विचार करना चाहिये । दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग के विविध नाम और उनका आधार (१) यतः दर्शन या दर्शनोपयोगका अर्थ पूर्वोक्त प्रकारसे आत्मा में पदार्थोंका प्रतिविम्बित होना ही है अतएव उसे सामान्य अवलोकन या सामान्यग्रहण नामोंसे पुकारा जाता है और ज्ञान या ज्ञानोपयोगका अर्थ पूर्वोक्त प्रकारसे आत्माको पदार्थोंका प्रतिभासित होना ही है अतः उसे विशेष अवलोकन या विशेषग्रहण नामोंसे पुकारा जाता है । यहाँपर वस्तुके सामान्य अंशका प्रतिभास होना दर्शन और विशेष अंशका प्रतिभास होना ज्ञान है - ऐसा अर्थ सामान्य अवलोकन या सामान्य ग्रहणका और विशेष अवलोकन या विशेष ग्रहणका नहीं करना चाहिये । तात्पर्य यह है कि उक्त प्रकारके दर्शन या दर्शनोपयोग में पदार्थका अवलम्बन होनेसे वह पदार्थावलोकन या पदार्थ ग्रहणरूप तो है फिर भी वह द्रष्टाको अपना संवेदन कराने में असमर्थ है और जो अपना संवेदन नहीं करा सकता है वह परका संवेदन कैसे करा सकता है ? अतः दर्शन या दर्शनोपयोगको सामान्य अवलोकन या सामान्य ग्रहण नामोंसे पुकारा जाता है। चूंकि प्रमाणज्ञानरूप ज्ञान या ज्ञानोपयोग में स्वपरसंवेदकता पायी जाती है और अप्रमाणज्ञानरूप ज्ञान या ज्ञानोपयोगमें परसंवेदकताका अभाव रहते हुए भी स्वसंवेदकता तो नियमसे पायी जाती है अतः उन्हें विशेष अवलोकन या विशेष ग्रहण नामोंसे पुकारा जाता है। (२) दर्शन या दर्शनोपयोगका अर्थ जब आत्मामें पदार्थका प्रतिविम्बित होना ही है तभी उसे आगम में निराकार शब्दसे पुकारा गया है और ज्ञान या ज्ञानोपयोगका अर्थ जब आत्माको पदार्थका प्रतिभासित होना ही है तभी उसे साकार शब्दसे पुकारा जाता है । इसका भी तात्पर्य यह है कि उक्त प्रकारके दर्शन या दर्शनोपयोग में पदार्थका अवलम्बन होते हुए भी स्वसंवेधकता और परसंवेदकता दोनों ही प्रकार के आकारोंका अभाव पाया जाता है अतः उसे निराकार शब्दसे पुकारते हैं। चूंकि प्रमाणज्ञानरूप ज्ञान या ज्ञानोपयोग मे स्वपरसंवेदकता पायी जाती है और अप्रमाणज्ञान में परसंवेदकताका अभाव रहते हुए भी स्वसंवेदकता तो नियमसे पायी जाती है अतः उन्हें साकार शब्दसे पुकारते हैं। (३) दर्शन या दर्शनोपयोगका अर्थ जब आत्मामें पदार्थका प्रतिबिम्बित होना ही है तभी उसे आगममें Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / दर्शन और न्याय : ५३ निर्विकल्पक शब्दसे पुकारते हैं और ज्ञान या ज्ञानोपयोगका अर्थ जब आत्माको पदार्थका प्रतिभासित होना ही है तभी उसे सविकल्पक शब्दसे पुकारते हैं । इसका भी तात्पर्य यह है कि उक्त प्रकारके दर्शन या दर्शनोपयोगमें पदार्थका अवलम्बन होते हए भी स्वसंवेदकता और परसंवेदकता दोनों ही प्रकारके विकल्पोंका अभाव पाया जाता है अतः उसे निर्विकल्पक शब्दसे पुकारते हैं। चूंकि प्रमाणज्ञानरूप ज्ञान या ज्ञानोपयोगमें स्वपरसंवेदकता पायी जाती है और अप्रमाणज्ञानरूप ज्ञान या ज्ञानोपयोगमें परसंवेदकताका अभाव रहते हुए भी स्वसंवेदकता तो नियमसे पायी जाती है अतः उन्हें सविकल्पक शब्दसे पुकारते हैं । अर्थात् विद्यमान घड़ेको विषय करनेवाले प्रमाणज्ञानमें “मैं घड़ेको जानता हूँ" ऐसा विकल्प और "यह घड़ा है" ऐसा विकल्प ज्ञाताको होता है तथा अप्रमाणज्ञानमें भी सीपमें “यह सीप है या चाँदी है" या "यह चांदी है" अथवा "यह कुछ है" ऐसा विकल्प ज्ञाताको होता है। परन्तु उक्त प्रकारके दर्शनमें उक्त प्रकार या अन्य प्रकारका कोई विकल्प संभव नहीं है। (४) इसी प्रकार दर्शन या दर्शनोपयोगका अर्थ जब आत्मामें पदार्थका प्रतिबिम्बित होना ही है तभी उसे अव्यवसायात्मक शब्दसे पुकारा गया है और ज्ञान या ज्ञानोपयोगका अर्थं जब आत्माको पदार्थका प्रतिभासित हो जाना है तभी उसे व्यवसायात्मक शब्दसे पुकारा जाता है। इसका भी तात्पर्य यह है कि उक्त दर्शन या दर्शनोपयोगमें पदार्थका अवलम्बन होते हुए भी स्वसंवेदकता और परसंवेदकता दोनों ही प्रकारको व्यवसायात्मकताका अभाव पाया जाता है अतः उसे अध्यवसायात्मक शब्दसे पुकारते हैं। चूंकि प्रमाणज्ञानरूप ज्ञान अथवा ज्ञानोपयोगमें स्वपरसंवेदकता पायी जाती है और अप्रमाणज्ञानरूप ज्ञान या ज्ञानोपयोगमें परसंवेदकताका अभाव रहते हए भी स्वसंवेदकता तो नियमसे पायी जाती है अतः उन्हें व्यवसायात्मक शब्दसे पुकारा जाता है । यहाँ इतना विशेष समझना चाहिये कि आगममें अप्रमाणज्ञानको जो अव्यवसायी कहा गया है वह इसलिये कहा गया है कि विपर्ययज्ञानमें जिस पदार्थका दर्शन होता है उससे भिन्न पदार्थका ही साद श्यवशात बोध होता है, संशयज्ञानमें जिस पदार्थका दर्शन होता है उसका तथा उसके साथ ही उससे भिन्न पदार्थका भी सादृश्यवशात ढलमिल बोध होता है और अनध्यवसायज्ञानमें तो पदार्थका दर्शन होते हए भी अनिर्णीत बोध होना स्पष्ट है। दर्शनोपयोगकी उपयोगात्मकता आगममें दर्शन या दर्शनोपयोग और ज्ञान या ज्ञानोपयोग दोनोंको ही उपयोगात्मक माना गया है। इनमेंसे ज्ञान या ज्ञानोपयोगको पूर्वोक्त प्रकार विशेष अवलोकन या विशेष ग्रहण रूप होनेसे तथा साकार, सविकल्पक और व्यवसायात्मक होनेसे उपयोगात्मक मानना तो निर्विवाद है, परन्तु दर्शन या दर्शनोपयोगको सामान्य अवलोकन या सामान्यग्रहणरूप होनेसे तथा निराकार, निर्विकल्पक और अव्यवसायात्मक होनेसे उपयोगात्मक मानना अयुक्त जान पड़ता है । फिर भी उसे इसलिये उपयोगात्मक माना गया है कि एक इन्द्रियसे पदार्थका प्रतिबिम्ब आत्मामें पड़नेके अवसरपर अन्य इन्द्रियोंसे भी पदार्थका प्रतिबिम्ब आत्मामें पड़ता है और इसी प्रकार प्रत्येक इन्द्रियसे एक साथ नाना पदार्थोंका प्रतिविम्ब भी आत्मामें एक साथ पड़ता है। इस तरह आत्मा नाना इन्द्रियोंसे नानापदार्थोंका प्रतिविम्बि एक साथ पड़ने पर भी अथवा एक ही इन्द्रियसे नाना पदार्थों का प्रतिबिम्ब एक साथ पड़नेपर भी उस समय उसी इन्द्रियसे और उसी पदार्थ के आत्मामें पड़नेवाले प्रतिबिम्बको दर्शन या दर्शनोपयोग कहना चाहिये, जो अपने प्रभावको अधिकताके कारण उस समय होनेवाले पदार्थज्ञानमें कारण होता है, क्योंकि नाना इन्द्रियोंसे नाना पदार्थों के तथा एक ही इन्द्रियसे नाना पदार्थोके Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ प्रतिबिम्ब आत्मामें एक साथ पड़नेपर भी अल्पज्ञ जीवोंको उस अवसरपर एक ही इन्द्रियसे एक ही पदार्थका बोध हआ करता है। इस प्रकार आगममें पदार्थप्रतिबिम्बसामान्यको दर्शन या दर्शनोपयोग न मानकर पदार्थप्रतिबिम्बविशेषको ही दर्शन या दर्शनोपयोग स्वीकार किया गया है। दर्शनोपयोग ज्ञानोपयोगसे पथक है यद्यपि दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग दोनों ही उपयोगात्मक है फिर दर्शनोपयोगको ज्ञानोपयोगसे पृथक् ही जैनदर्शनमें स्थान दिया गया है। इसका एक कारण तो यह है कि जहां ज्ञानोपयोगको विशेप अवलोकन या विशेषग्रहणरूप तथा साकार, सविकल्पक और व्यवसायात्मक स्वीकार किया गया है वहां दर्शनोपयोगको सामान्य-अवलोकन या सामान्यग्रहणरूप तथा निराकार, निर्विकल्पक और अव्यवसायात्मक स्वीकार किया गया है। दूसरा कारण यह है कि पूर्वोक्त प्रकार दर्शनोपयोग ज्ञानोपयोगकी उत्पत्तिमें कारण होता है। तीसरा कारण यह है कि दर्शनोपयोग विद्यमान पदार्थका ही हुआ करता है जबकि ज्ञानोपयोग विद्यमान और सादृश्यवशात कदाचित् अविद्यमान पदार्थका भी हुआ करता है। चौथा कारण यह है कि दर्शन पदार्थप्रतिबिम्बरूप होता है जबकि ज्ञान पदार्थप्रनिभासरूप होता है। और पांचवा कारण यह है कि आगममें जीवकी भाववतीशक्तिके विकासके रूपमें दर्शन और ज्ञान दो पृथक् पृथक शक्तियां स्वीकार की गयी हैं तथा इनको ढकनेवाले दर्शनावरण और ज्ञानावरण दो पृथक पृथक् कर्म भी वहां स्गीकार किये गये हैं जिनके क्षयोपशम या क्षय से इनका पृथक् पृथक् विकास होता है। इन्हीं विकसित दर्शनशक्ति और ज्ञानशक्तिके पृथक् पृथक् सामान्य अवलोकन और विशेष अवलोकन करने रूप व्यापारोंको ही क्रमशः दर्शनोपयोग व ज्ञानोपयोग समझना चाहिये । दोनों उपयोगोंके क्रम और योगपद्यपर विचार यद्यपि आत्मामें पदार्थके प्रतिबिम्बित होनेका नाम दर्शनोपयोग है और वह तबतक विद्यमान रहता है जबतक जीवको पदार्थज्ञान होता रहता है, परन्तु दर्शनोपयोगकी पूर्वोक्त उपयोगात्मकताको लेकर यदि विचार किया जाय तो यही तत्त्व निष्पन्न होता है कि छद्मस्थ जीवोंको दर्शनोपयोगके अनन्तर ही ज्ञानोपयोग होता है व सर्वज्ञको दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग दोनों साथ-साथ ही हुआ करते है । जैसा कि द्रव्यसंग्रहकी निम्नलिखित गाथासे स्पष्ट है "दंसणपुव्वं णाणं छदुमत्थाणं ण दुण्णि उवओगा । जुगवं जम्हा केवलिणाहे जुगवं तु ते दो वि ॥४४॥" अर्थ-छद्मस्थ (अल्पज्ञ) जीवोंको दर्शनोपयोगपूर्वक अर्थात दर्शनोपयोगके अनन्तर पश्चात ज्ञानोपयोग हुआ करता है क्योंकि उनके ये दोनों उपयोग एकसाथ नहीं हआ करते हैं लेकिन सर्वज्ञके ये दोनों उपयोग एक ही साथ हुआ करते हैं। दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोगकी छद्मस्थ (अल्पज्ञ) और सर्वज्ञकी अपेक्षासे क्रम और योगपद्य रूप उपर्युक्त व्यवस्थाको स्वीकृत करनेका आधार यह है कि सर्वज्ञके ज्ञान में संपूर्ण पदार्थ कालके प्रत्येक क्षणसे विभाजित अपनीअपनी समस्त त्रैकालिक पर्यायोंके साथ सतत् प्रतिभासित होते रहते हैं अर्थात् कालका ऐसा एक क्षण भी नहीं है जिसमें सम्पूर्ण पदार्थोंका अपनी-अपनी उक्त प्रकारकी समस्त कालिक पर्यायोंके साथ प्रतिभास न होता हो,क्योंकि उसका (सर्वज्ञका) ज्ञान भी पूर्वोक्त प्रकारके दर्शनका अवलम्बन लेकर ही उत्पन्न हुआ करता है। यतः उसके दर्शन और ज्ञानमें सहभावीपना निश्चित हो जाता है। यतः अल्पज्ञका ज्ञान विषयीकृत पदार्थकी क्षणवर्ती पर्यायको पकड़नेमें असमर्थ रहता है क्योंकि वह अन्तर्मुहुर्तवर्ती पर्यायोंकी स्थूलरूपताको हो सतत एक पर्या यके रूपमें ग्रहण करता है अतः उसके ज्ञान क्षणिक विभाजन नहीं हो पाता है। दूसरी बात यह है कि सर्वज्ञका Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / वर्शन और न्याय: ५५ ज्ञान समय के भेदसे परिवर्तित होनेपर भी विषयके भेदसे कभी परिवर्तित नहीं होता है, क्योंकि उसका ज्ञान प्रथम क्षण में पदार्थों को जिस रूप में जानता है उसी रूपमें द्वितीयादि क्षणोंमें भी जानता है । परन्तु अल्पज्ञका ज्ञान विषयभेदके आधारपर सतत परिवर्तित होता रहता है। अर्थात् अल्पज्ञको कभी किसी इन्द्रियद्वारा किसी रूपमें पदार्थज्ञान होता है और कभी किसी इन्द्रियद्वारा किसी रूप में पदार्थज्ञान होता है। इसी प्रकार एक ही इन्द्रियसे कभी किसी रूप में पदार्थज्ञान होता है और कभी किसी रूप में पदार्थज्ञान होता है। पदार्थज्ञानकी यह स्थिति अल्पज्ञके दर्शनोपयोग में परिवर्तन माननेके लिये बाध्य कर देती है । तीसरी बात, जैसी कि पूर्व में स्पष्टकी गयी है, यह है कि आत्मामें पड़ने वाले पदार्थ प्रतिविम्ब सामान्यका नाम दर्शनोपयोग नहीं है किन्तु आत्मामें पड़ने वाले पदार्थ प्रतिविम्बविशेषका नाम ही दर्शनोपयोग है अर्थात् ज्ञानोपयोगकी उत्पत्तिके कारणभूत आत्मामे पडनेवाले पदार्थप्रतिविम्बका नाम ही दर्शनोपयोग है। इस प्रकार इन आधारोंसे अल्पज्ञके दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग में दोनोंकी उपयोगात्मकता और कार्यकारणभाव के आधारपर दोनोंमें क्रम सिद्ध हो जाता है । अर्थात् विशेषग्रहणके अवसरपर सामान्य ग्रहणकी स्थिति उपयोगात्मकता के आधारपर क्षीण हो जाती है और कार्यकारणभावके आधारपर जैसे कषायका पूर्णरूपेण उपशम अथवा क्षय दश गुणस्थानके अन्त समयमें मानकर उसके अनन्तर समयमै उपशान्तमोह नामक एकादश गुणस्थानकी अथवा क्षीणमोह नामक द्वादश गुणस्थानको व्यवस्थाको आगम में स्वीकार किया गया है वैसे हो अल्पज्ञके दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोगके क्रमको स्वीकार करना चाहिये तथा जैसे कषायके उपशम व क्षयके साथ आत्माकी उपशान्तमोहरूप अवस्थाके व क्षीणमोहरूप अवस्थाके सद्भावकी अपेक्षा क्षणभेद नहीं है वैसा ही क्षणभेद सद्भावकी अपेक्षा अल्पशके दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग में नहीं है । अर्थात् ज्ञानोपयोगके साथ दर्शनोपयोगका यदि सद्भाव न स्वीकार किया जाय तो ज्ञानोपयोगका आधार समाप्त हो जानेसे ज्ञानोपयोगका ही अभाव हो जायगा । दर्शनोपयोगका महत्त्व यद्यपि पूर्व के विवेचनसे ज्ञानोपयोग के समान दर्शनोपयोगका महत्त्व स्पष्ट हो जाता है । फिर भी यहाँ अनेक प्रकारसे दर्शनोपयोगका महत्व स्पष्ट किया जा रहा है। ज्ञान या ज्ञानोपयोग अवस्थाओंके भेदके आधारपर आगम में पूर्वोक्त प्रकार अवग्रह, ईहा अवाय, धारणा, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवलके भेदसे बारह भेद बतलाये गये हैं और इन सबको प्रत्यक्ष और परोक्षके नामसे दो वर्गोंम गर्भित कर दिया गया है। अब यहाँ प्रश्न उपस्थित होता है कि एक ज्ञान प्रत्यक्ष और दूसरा परोक्ष क्यों है ? इस प्रश्नके समाधान स्वरूप आगममें जो कुछ प्रतिपादित है उसका सार यह है कि सब जीवोंमें पदार्थोंके जानने की जो शक्ति विद्यमान हैं उसके आधारपर ही प्रत्येक जीव पदार्थोंका बोध किया करता है, जिस बोधका फल प्रवृत्ति, निवृत्ति अथवा उपेक्षाके रूपमें जीवको प्राप्त होता है । पदार्थोंका बोध सामान्यतया मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञानके भेदसे पाँच प्रकारका होता है। मतिज्ञान में स्पर्शन, रसना, नासिका, नेत्र और कर्म इन पाँच इन्द्रियों अथवा मनकी सहायता अपेक्षित रहा करती है। श्रुतज्ञान केवल मनकी सहायतासे ही उत्पन्न हुआ करता है तथा अवधि, मनःपर्यय और केवल ये तीन ज्ञान इन्द्रिय अथवा मनकी सहायताकी अपेक्षा किये बिना ही उत्पन्न हुआ करते हैं। ज्ञानके उपयुक्त बारह भेदोंमें अवग्रह, ईहा अवाय धारण, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क और अनुमान इन सबको मतिज्ञान में अन्तर्भूत कर दिया गया है तथा शेष श्रुत, अवधि, मनःपयय और केवल ये चार स्वतंत्र ज्ञान हैं । इनमेंसे अवधि, मन:पर्यय और केवल ये तीन ज्ञान सर्वथा प्रत्यक्ष हैं, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ अनुमान और श्रुत ये पाँच ज्ञान सर्वथा परोक्ष हैं तथा अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चार ज्ञान कथंचित् प्रत्यक्ष हैं और कथंचित् परोक्ष हैं । अब यहाँ ये प्रश्न उपस्थित होते हैं कि मतिज्ञानके भेद स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क और अनुमान तथा श्रतज्ञान ये सब सर्वथा परोक्ष क्यों है ? तथा अवधि, मनःपर्यय और केवल ये ज्ञान सर्वथा प्रत्यक्ष क्यों है ? व इसी प्रकार मतिज्ञानके ही भेद अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये ज्ञान कथंचित प्रत्यक्ष और कथंचित् परोक्ष क्यों हैं ? इन प्रश्नोंका समाधान यह है कि आगममें प्रत्यक्ष और परोक्ष शब्दोंके दो-दो अर्थ स्वीकार किये गये है । अर्थात् एक प्रत्यक्ष तो वह ज्ञान है जो इन्द्रिय अथवा मनकी सहायताकी अपेक्षा किये बिना ही होता है और दूसरा प्रत्यक्ष वह ज्ञान है जिसमें पदार्थका विशद ( साक्षात्कार ) रूप बोध होता है। इसी प्रकार एक परोक्ष तो वह ज्ञान है जो इन्द्रिय अथवा मनकी सहायतासे होता है और दूसरा परोक्ष वह ज्ञान है जिसमें पदार्थका अविशद (असाक्षात्कार) रूप बोध होता है। प्रत्यक्ष और परोक्षके उक्त लक्षणोंमेंसे पहला-पहला लक्षण तो करणानुयोगको विशुद्ध आध्यात्मिक पद्धतिके आधारपर निश्चित किया गया है और दूसरा-दूसरा लक्षण द्रव्यानुयोगकी तत्त्वप्रतिपादक पद्धतिके आधारपर निश्चित किया गया है। पहला-पहला लक्षण तो ज्ञानोंकी स्वाधीनता व पराधीनता बतलाता है और दूसरा-दुसरा लक्षण ज्ञानोंके तथ्यात्मक स्वरूपका प्रतिपादन करता है। इस विवेचनके आधारपर मैं यह कहना चाहता हूँ कि स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और श्रुत ये सभी ज्ञान इन्द्रिय अथवा मनकी सहायतासे उत्पन्न होनेके आधारपर पराधीन होनेके कारण करणानुयोगकी विशद्ध आध्यात्मिकदृष्टिसे भी परोक्ष हैं व इनमें पदार्थका अविशद ( असाक्षात्कार ) रूप बोध होनेके कारण द्रव्यानुयोगकी तथ्यात्मकस्वरूप-प्रतिपादनदृष्टिसे भी परोक्ष हैं, अतः सर्वथा परोक्ष है। इसी तरह अवधि, मनःपर्यय और केवल ये तीन ज्ञान इन्द्रिय अथवा मनकी सहायताके बिना ही उत्पन्न होनेके आधारपर स्वाधीन होनेके कारण करणानुयोगकी विशुद्ध आध्यात्मिकदृष्टिसे भी प्रत्यक्ष है व इनमें पदार्थका विशद (साक्षात्कार) रूप बोध होनेके कारण द्रव्यानुयोगकी तथ्यात्मकस्वरूप-प्रतिपादनदृष्टिसे भी प्रत्यक्ष हैं, अतः सर्वथा प्रत्यक्ष है । लेकिन अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चार ज्ञान इन्द्रिय अथवा मनकी सहायतासे उत्पन्न होनेके आधारपर पराधीन होनेके कारण करणानुयोगको विशुद्ध आध्यात्मिक दृष्टिसे जहाँ परोक्ष हैं वहाँ इनमें पदार्थका विशद (साक्षात्कार) रूप बोध होनेके कारण द्रव्यानुयोगकी तथ्यात्मकस्वरूप-प्रतिपादनदृष्टि से प्रत्यक्ष हैं, अतः कथंचित् परोक्ष और कथंचित् प्रत्यक्ष हैं। यहाँपर यदि यह प्रश्न किया जाय कि पदार्थका विशद (साक्षत्कार) रूप बोध क्या है ? और पदार्थ का अविशद (असाक्षात्कार) रूप बोध क्या है ? तो इसका समाधान यह है कि जिस बोधमें पदार्थदर्शन साक्षात् कारण होता है वह बोध पदार्थका स्पष्ट बोध होनेके आधारपर विशद ( साक्षात्कार ) रूप बोध कहलाता है और जिस बोधमें पदार्थदर्शन साक्षात् कारण न होकर परंपरया कारण होता है वह बोध पदार्थका अस्पष्ट बोध होनेके आधारपर अवशिद (असाक्षात्कार) रूप बोध कहलाता है और यह बात पूर्वमें बतलायी जा चकी है कि पदार्थका विशद (साक्षात्कार) रूप बोध ही प्रत्यक्ष है और पदार्थका अविशद (असाक्षात्कार) रूप बोध ही परोक्ष है । यतः अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणारूप मतिज्ञानोंमें व अवधि, मनःपर्यय और केवलरूप ज्ञानोंमें पदार्थदर्शन साक्षात् कारण होता है, इसलिये इस दृष्टिसे ये सब ज्ञान प्रत्यक्ष कहलाते हैं और यतः स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क तथा अनुमानरूप मतिज्ञानोंमें व श्रुतज्ञानमें पदार्थदर्शन साक्षात् कारण नहीं होकर Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4/ वर्शन और न्याय : 57 परंपरया कारण होता है क्योंकि दर्शन और इन ज्ञानोंके मध्य अन्य ज्ञानोंका व्यवधान रहा करता है जैसा कि पूर्वमें बतलाया जा चुका है कि दर्शन और स्मृतिके मध्य धारणाज्ञानका व्यवधान होता है क्योंकि स्मतिजान धारणाज्ञानपूर्वक होता है, दर्शन और प्रत्यभिज्ञानके मध्य धारणाज्ञानके अनन्तर पश्चात् होनेवाले स्मतिज्ञानका व्यवधान रहा करता है क्योंकि प्रत्यभिज्ञान स्मतिज्ञान पर्वक होता है, दर्शन और तर्क ज्ञानके मध्य स्मृतिज्ञानके अनन्तर पश्चात् होने बाले प्रत्यभिज्ञानका व्यवधान रहता है क्योंकि तर्कज्ञान प्रत्यभिज्ञान पूर्वक होता है, दर्शन और अनुमान ज्ञानके मध्य प्रत्यभिज्ञानके अनन्तर पश्चात् होने वाले तक ज्ञानका व्यवधान रहता है क्योंकि अनुमानज्ञान तर्कज्ञान पूर्वक होता है और दर्शन और श्रुतज्ञानके मध्य तर्क ज्ञानके अनन्तर पश्चात् होनेवाले अनुमान ज्ञानका व्यवधान रहता है क्योंकि श्रुतज्ञान अनुमान पूर्वक होता है, इसलिये ये स्मृति आदि ज्ञान इस दृष्टिसे परोक्ष कहलाते हैं। इस विवेचनसे यह बात बात अत्यन्त स्पष्ट हो जाती है कि एक तो पदार्थदर्शन पदार्थज्ञानमें अनिवार्य कारण होता है और दूसरे पदार्थदर्शनको साक्षात् कारणता पदार्थ ज्ञानकी प्रत्यक्षाका और पदार्थदर्शनकी असाक्षात कारणता अर्थात परंपरया कारणता पदार्थ ज्ञानकी परोक्षताका आधार है. इसलिये दर्शनोपयोगका महत्त्व प्रस्थापित हो जाता है और तब इस प्रश्नका भी समाधान हो जाता है। कि एक ज्ञान प्रत्यक्ष और दूसरा ज्ञान परोक्ष क्यों है ? अब यहाँ पर एक बात और विचारणीय रह जाती है कि जिस प्रकार दर्शन और स्मृति, प्रत्यभिज्ञान तर्क, अनुमान और श्रुतनामके ज्ञानोंके मध्य पूर्वोक्त प्रकार यथासम्भव धारणा आदि ज्ञानोंका व्यवधान रहता है उसी प्रकार जब ईहाज्ञान अवग्रहपूर्वक होता है, अबायज्ञान ईहाज्ञानपूर्वक होता है और धारणाज्ञान अवायज्ञानपूर्वक होता है, तथा इसी प्रकार मनःपर्ययज्ञान भी ईहाज्ञानपूर्वक ही होता है तो अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणाज्ञानोंमें तथा मनःपर्ययज्ञानमें भी दर्शनके साथ यथासम्भव अन्य ज्ञानोंका व्यवधान सिद्ध हो जाने से इन्हें प्रत्यक्ष कैसे कहा जा सकता है ? इसका उत्तर यह है कि यद्यपि ईहाज्ञानमें अवग्रहज्ञानकी कारणता, अवायज्ञानमें ईहाज्ञानकी कारणता, धारणाज्ञानमें अवायज्ञानकी कारणता और मनःपर्ययज्ञानमें भी ईहाज्ञानकी कारणता विद्यमान है अर्थात् ये सब ज्ञान इनके पश्चात् ही होते हैं फिर भी पूर्वोक्त दर्शन इन ज्ञानोंमें साक्षात् ही कारण होता है अर्थात् दर्शन और इन ज्ञानोंके मध्य वे अवग्रह आदि ज्ञान व्यवधानकारक नहीं होते हैं इसलिये इन ज्ञानोंमें दर्शनकी साक्षात् कारणताकी सिद्धि में कोई बाधा नहीं उत्पन्न होती है / अतः इन ज्ञानोंकी प्रत्यक्षतामें भी इस दृष्टिसे कोई बाधा नहीं उत्पन्न होती है। ___ यहाँ प्रसंगवश मैं इतना और कह देना चाहता हूँ कि कहीं-कहीं (अभ्यस्त दशामें) अवग्रहज्ञान अवायात्मक रूपमें ही उत्पन्न होता है और कहीं-कहीं (अनभ्यस्त दशामें) अवग्रहज्ञानके पश्चात संशय उत्पन्न होने पर ईशाज्ञान उत्पन्न होता है और तब वह अवग्रहज्ञान अवायज्ञानका रूप धारण करता है।