Book Title: Darshanopayog aur Gyanapayog ka Vishleshan Author(s): Bansidhar Pandit Publisher: Z_Bansidhar_Pandit_Abhinandan_Granth_012047.pdf View full book textPage 1
________________ दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोगका विश्लेषण विश्व की रचना जैनदर्शनमें विश्वको रचना जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और कालके भेदसे छह प्रकारके पदार्थोके आधारपर स्वीकृत की गयी है । इनमेंसे जीवोंकी संख्या अनन्तानन्त है, पुद्गलोंकी संख्या भी अनन्तानन्त है, धर्म, अधर्म और आकाश एक-एक हैं तथा काल असंख्यात हैं । प्रत्येक पदार्थका स्वभाव धर्म, अधर्म, आकाश और सभी कालोंमें अपनी-अपनी स्वतःसिद्ध स्वभावभूत भाववतीशक्ति विद्यमान है व सभी जीवों और पुद्गलोंमें अपनी-अपनी स्वतःसिद्ध स्वभावभूत भाववतीशक्तिके साथ-साथ अपनी-अपनी स्वतःसिद्ध स्वभावभत कियावतीशक्ति भी विद्यमान है। क्रियावतीशक्तिकी विद्यमानताके कारण ही जीव और पुद्गल दोनों प्रकारके पदार्थ सक्रिय कहलाते हैं और क्रियावतीशक्तिकी अविद्यमानताके कारण ही धर्म, अधर्म, आकाश और काल नामके पदार्थ निष्क्रिय कहलाते हैं।' प्रत्येक पदार्थका कार्य प्रत्येक पदार्थ अपनी-अपनी भाववती शक्तिके आधारपर सतत अपना-अपना कार्य कर रहा है। अर्थात् आकाश अपनी भाववतीशक्तिके आधारपर स्व और अन्य सभी पदार्थोंको सतत अपने पेटमें समाये हए है, सभी काल अपनी-अपनी भाववतीशक्तिके आधारपर स्व और अन्य सभी पदार्थोंको सतत एक क्षणवर्ती तथा अनेक क्षणवर्ती पर्यायोंके रूप में विभाजित कर रहे हैं। धर्म अपनी भाववतीशक्तिके आधारपर जीवों और पुद्गलोंकी यथावसर होनेवाली हलन-चलनरूप क्रियामें सतत सहायक होता रहता है और अधर्म अपनी भाववतीशक्तिके आधारपर जीवों और पद्गलोंकी उक्त क्रियाके यथावसर होनेवाले स्थगनमें सतत सहायक होता रहता है। इसी प्रकार प्रत्येक जीव अपनी-अपनी यथायोग्य रूपमें विकसित भाववतीशक्तिके आधारपर स्व और अन्य सभी पदार्थों का सतत यथायोग्य रूपमें सामान्य अवलोकन (दर्शन) पूर्वक विशेष अवलोकन (ज्ञान) करता रहता है और इसी प्रकार प्रत्येक पुद्गल अपनी-अपनी भाववतीशक्तिके आधारपर सतत रससे रसान्तररूप, गन्धसे गन्धान्तररूप, स्पर्शसे स्पर्शान्तररूप और वर्णसे वर्णान्तररूप परिणमन किया करता है। इसके अतिरिक्त जीव और पुदगल अपनी-अपनी क्रियावतीशक्तिके आधारपर यथावसर क्षेत्रसे क्षेत्रान्तररूप क्रिया सतत करते रहते हैं और अपनी इसी क्रियावतीशक्तिके आधारपर संसारी जीव यथावसर पौदगलिक कर्मो तथा नोकर्मों के साथ व पुद्गल यथावसर संसारी जीवों और अन्य पुद्गलोंके साथ सतत मिलते व विछुड़ते रहते हैं। मुक्त जीवोंका जो ऊर्ध्वगमन होता है वह भी उनको अपनी इसी क्रियावतीशक्तिके आधार पर होता है ? किन्तु वे जो लोकके अग्रभागमें स्थित होकर रह जाते हैं उसका कारण आगे धर्मास्तिकायका अभाव है । १. पंचाध्यायी, अध्याय २, श्लोक २५, २६, २७ ।। २. तदनन्तरमूवं गच्छत्यालोकान्तात् । -तत्त्वार्थसूत्र १०-५ । ३. प्रश्न-'आह यदि मुक्त ऊर्ध्वगतिस्वभावो लोकान्तादुर्ध्वमपि कस्मान्नोत्पततीत्यत्रोच्यते ? (सर्वार्थ सिद्धि), समाधान-धर्मास्तिकायाभावात् । -तत्त्वार्थसूत्र । “जीवाण पौग्गलाणं गमणं जाणेहि जाव धम्मत्थी । धम्मत्थिकायभावे तत्तो परदो ण गच्छंति । -नियमसार, १८३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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