Book Title: Dakshin Bharatiya ka Jain Puratattva Author(s): Bhagchandra Jain Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf View full book textPage 6
________________ - यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - इतिहासयहाँ के मंदिरो में चित्रकला के अवशेष भी दृष्टव्य हैं। कणकचंद्र पण्डित का शिष्य था, जिसे सुंदर पाण्ड्या के काल में उड़ीसा में रामगढ़ पहाड़ी की जोगी मेर गुफा में भित्तिचित्रों के भूमिदान भी मिला था। १३वीं शती तक यह स्थान जैन-श्रमण अवशेष को प्राथमिक स्तर का कह सकते हैं, सित्तन्नवासल चित्र वसति बना रहा। भी इसी कोटि के हैं। धर्मप्रचार की दृष्टि से जैनों ने चित्रकला का बोम्मइमलइ में भी एक गहा मंदिर है. जिसमें उल्लेख है अच्छा उपयोग किया है। कि जैन-श्रमणों के लिए यहाँ ७५३ ई. सन् में भूमिदान मिला पुटुक्कोत्तई था। सदियरपइ में ८वीं शती की महावीरमूर्ति है एक गुहामंदिर में। इसे सुंदर पांड्या के ही समय काफी भूमिदान दिया गया था। पटक्कोत्तई (तमिलनाड) जिले में काफी जैन-पुरातत्व 1वीं से १३वीं शती तक यह भी एक जैनकेन्द्र रहा है। मिलता है। लगभग १६ कि.मी. पर सित्तनवसल प्रधान केन्द्र है। इसमें एक जैनगुफा, जैनमंदिर और भित्तिचित्र है। जैनगुफा लगभग मलयक्कोइ पुटुक्कोत्तइ से १८ कि.मी. दूर है। यहाँ एक द्वितीय शती ई. पू. की मानी जाती है। ब्राह्मीलिपि में लेख भी है। गुफामंदिर में गुणसेन नामक जैन मुनि का उल्लेख है शिलालेख ७-८ वीं शती तक यहाँ श्रमणों का आवास रहा है। समीपवर्ती में। यहाँ से १२ कि.मी. दूर पोत्तम्बुर में एक जिनमूर्ति मिली है । पहाड़ी पर गुहा-मंदिर है जो लगभग ७वीं शती का है। इसमें तीन जो गणेश के नाम से पूजी जाती है। इसे ग्रामवासी मोत्तईपिल्लयर तीर्थंकरों की मूर्तियाँ हैं--ऋषभदेव, नेमिनाथ और महावीर। कहते हैं। यह मूर्ति १२वीं शती की है। आदित्यचोल (८८८ ई.) मंडप की एक दीवार पर पार्श्वनाथ का चित्र है, जिस पर श्री के शिलालेख से पता चलता है कि यह एक जैनकेन्द्र था ८वीं तिरुवसिरियम लिखा है, जिसका अर्थ है महान् आचार्य। समवशरण शती में। इसी के पास चेत्तियति है जो समनर कुण्डु कहा जाता आदि के भी संदर भित्तिचित्र हैं। समणरमेड, तेक्कादर आदि है। यह भी एक जैनकेन्द्र रहा है। यहाँ एक मंदिर है, जिसमें - पार्श्वनाथ और महावीर की सुंदर मूर्तियाँ हैं १० वीं शती की स्थानों पर भूगर्भ से जैन मूर्तियाँ निकली है। अम्बिका की भी एक अच्छी मूर्ति है। यहाँ के लेख में मतिसागर तेणिमलइ की समीपवर्ती पहाड़ी पर जैनसाधुओं के लिए। मुनि का उल्लेख है, दयापाल और वादिराज उनके शिष्य थे। एक आवास स्थान-सा बना है, जो लगभग प्रथम शती का । होगा। ब्राह्मीलेख भी है। यहाँ ८वीं शती तक श्रमण रहा करते थे। चेत्तिपत्ति के पास कयममत्ति है, जहाँ जैनमंदिर के अवशेष पड़े हुए हैं। इसे 'समदर तिदल' कहा जाता है । सिद्धासन में एक यहाँ तीन जिनमूर्तियाँ भी हैं। मूर्ति मिली है। यहाँ इसी के साथ एक जैनमठ भी था जिसे ___ पुट्टक्कोत्तई से १८ कि.मी. दूर नारन्तमलइ पहाड़ी है जो तिरुवयतलमदरम कहा जाता था। जिसे नगरत्तर आदि श्रेष्ठियों ने समतटकुडग के नाम से जानी जाती है। यहाँ दो मंदिर हैं, एक बनवाया था। शिव का और दूसरा अर्हतजिन का। अर्हतजिन का मंदिर १३वीं शती में वैष्णव-मंदिर के रूप में परिवर्तित कर दिया गया और सित्तनवसल के पास ही अन्नवसल है, जो किसी समय समर्थ जैनकेन्द्र रहा है। यद्यपि यहाँ एक मंदिर ध्वस्त हो गया है फिर उसे पतिनेनभूमि विन्न गरूलवार केलि कहा जाने लगा। अर्धमंडप में जैनाचार्य नेमिचंद का उल्लेख है शिलालेख में। र पर तीर्थंकर मूर्तियाँ अच्छी हालत में मिली हैं। कोनगुडु में महावीर १२वीं शती में इस मंदिर को भूमिदान भी दिया गया था। लगभग की मनोरम मूर्ति मिली है ११वीं शती की। सोमपत्तुर में एक १२२८ ई. में वैष्णवों ने इसे अपने अधिकार में ले लिया मरवरमन तालाब के किनारे जैनमंदिर है जो ध्वस्त हो गया है इसके स्तम्भ सुन्दर पांडवा के काल में। यहां के अर्धमण्डप को ही महामण्डप वगैरह, तेन्नगुडि के शिवमंदिर में लगे है। यहाँ तीर्थंकर और यक्षी के रूप में बदल दिया गया। मूर्तियाँ मिली हैं। आलुरुंदरमलइ नरतमलइ के पास ही है। इसमें भी लगभग पदक्कोत्तइ में एक जैन-मूर्ति-संग्रहालय है, जहाँ आसपास प्रथम सदी का गुहामंदिर है। जिसमें ध्यानमद्रा में तीर्थंकरों की का मूर्तियों को एकत्रित कर दिया गया है। मोसक्कडि से प्राप्त मूर्तियाँ हैं। यहीं१०वीं शती का लेख भी है। तदनसार धर्मदेवाचार्य मूर्तियां कलात्मक दृष्टि से बहुत अच्छी हैं। आदिनाथ पार्श्वनाथ dardiariordarbaridroidisardaridrsariridroid१२६binirdinidiadiansaxsridododiaries Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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