Book Title: Chitrakavya ka Utkarsh Saptasandhan Mahakavya
Author(s): Satyavrat
Publisher: Z_Agarchand_Nahta_Abhinandan_Granth_Part_2_012043.pdf

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Page 8
________________ यस्मिन्नलं फलललद्दलशालिशाल-वृन्दावनी सुरजनी रजनीश्वरास्या। गीतस्वरैः सुरमणी रमणीप्रणीतैस्तन्तन्यते तनुभृतामतनूदयं सा ॥ ३।३ - इन अलंकृति प्रधान वर्णनोंकी बाढ़में कहीं-कहीं प्रकृतिका सहज सरल चित्र देखनेको मिल ही जाता है। पावसको रातमें कम्बल ओढ़कर अपने खेतकी रखवाली करनेवाले किसान तथा वर्षाके जलसे भीगे हुए गलकम्बलको हिलानेवाली गायका यह मधुर चित्र स्वाभाविकतासे ओतप्रोत है। रजनिबहुधान्योच्चै: रक्षाविधौ धृतकम्बलः सपदि दुधुवे वारांभाराद् गवा गलकम्बलः । ऋषिरिव परक्षेत्र सेवे कृषीबलं पुंगवश्चपलसबलं भीत्या जज्ञे बलं च पलाशजम् ।।७।२९ कुमारोंके जन्मके अवसरपर प्रकृति आदर्श रूपमें प्रकट हुई है। यहाँ वह स्वभावतः निसर्ग विरुद्ध आचरण करती है । कुमारोंके धरापर अवतीर्ण होते ही दिशाएँ शान्त हो गयी, आकाश में दुन्दुभिनाद होने लगा तथा जल और आकाश तुरन्त निर्मल हो गये। शान्तासु सर्वासु दिशासु रेणुर्न रेणु बाधां तु मनाग व्यधासीत् । दध्वान देवाध्वनि दुन्दुभीनां नादः प्रसादो नभसोऽम्भसोऽभात् ॥ २।११ वसन्तके मादक वातावरणमें मद्यपानका परित्याग करनेका उपदेश देते समय जैन यतिकी पवित्रतावादी प्रवृत्ति प्रबल हो उठी है । किन्तु उसका यह उपदेश भी श्लेषका परिधान पहनकर प्रकट होता है । सीतापहारविधिरेष तवोपहारव्याहारनिर्भयविहारविनाशनाय । तेनाधुनापि मधुनाशनतां जहीहीत्याहेव रावणमिह स्वधियालिजन्यम् ।। ७८ _ इस प्रकार अन्य अधिकांश ह्रासकालीन काव्योंकी भांति सप्तसन्धानमें प्रकृति वर्णनके नामपर कविके रचनाकौशल (अलंकार प्रयोग कौशल) का प्रदर्शन हुआ है। प्रकृतिके प्रति यहाँ वाल्मीकि अथवा कालिदास के-से सहज अनुरागको कल्पना करना व्यर्थ है। सौन्दर्य-चित्रण-प्राकृतिक सौन्दर्यकी भाँति मानव-सौन्दर्यके चित्रणमें कविकी वृत्ति अधिक नहीं रमी है । चरितनायकोंकी माताओंके शारीरिक लावण्यकी ओर सूक्ष्म संकेत करके ही मेघविजयने संतोष कर लिया है। प्रस्तुत पंक्तियोंमें माताओंके मुखके अतिशय सौन्दर्य, स्तनोंकी पुष्टता तथा कटिकी क्षीणताका उत्प्रेक्षाके द्वारा वर्णन किया गया है। सौरभ्यवित्तं जलजं प्रदाय चन्द्रः कलाकौशलमुज्ज्वलत्वम् । जाने तदास्यानुगमाद् विभूति प्राप्ती कजेन्दू समयं प्रपद्य ॥ ११६३ उच्चैर्दशा स्यान्नु परोपकाराद् युक्ता तदुच्चस्तनता स्तनांगे । सतां न चात्मम्भरिता कदाचित् तनु स्वमध्यं तत एव तस्याः ॥ १७१ रस-योजना-सप्तसन्धानमें मनोरागोंका महाकाव्योचित रसात्मक चित्रण नहीं हआ है। चित्रकाव्यमें इसके लिए अधिक स्थान भी नहीं है । जब कवि अपनी रचनाचातुरी प्रदर्शित करने में ही व्यस्त हो, तो मानव-मनकी सूक्ष्म-गहन क्रियाओं-विक्रियाओंका अध्ययन एवं उनका विश्लेषण करनेका अवकाश उसे कैसे मिल सकता है ? अतः काव्यमें किसी भी रसका अंगीरसके रूप में परिपाक नहीं हुआ है। काव्यकी प्रकतिको देखते हुए इसमें शान्तरसकी प्रधानता मानी जा सकती है, यद्यपि जिनेन्द्रों के धर्मोपदेशोंमें भी यह अधिक नहीं उभर सका है । तीथंकरकी प्रस्तुत देशनामें शान्तरसकी हल्की-सी छटा दिखाई देती है । त्यजत मनुजा राग द्वषं धृतिं दृढ़सज्जने भजत सततं धर्मं यस्मादजिह्मगतारुचिः ।। प्रकुरुत गुणारोपं पापं पराकुरुताचिराद् मतिरतितरां न व्याधेया परव्यसनादिषु ॥ ५।४९ ३०४ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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