Book Title: Chitrakavya ka Utkarsh Saptasandhan Mahakavya
Author(s): Satyavrat
Publisher: Z_Agarchand_Nahta_Abhinandan_Granth_Part_2_012043.pdf

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Page 6
________________ -जूझता वह हताश हो जाता है । तथाकथित ऋतुवर्णनको भी कविने चरितनायकोंपर घटानेकी चेष्टा की है । निम्नोक्त पद्य मुख्यतः पाण्डवचरितसे सम्बन्धित हैं, किन्तु टीकाकारने इससे सातों काव्यनायकोंके पक्षके अर्थ भी निकाले हैं । टीकाकी सहायताके बिना कोई विरला ही इसके अभीष्ट अर्थ कर सकता है। भीष्मोऽग्रतो यमविधिः स्वगुरोरनिष्टः कृष्णालकग्रहणकर्म सभासमक्षम् । वैराग्यहेतुरभवद् भविनो न कस्य दैवस्य वश्यमखिलं यदवश्यभाविः ।। ४/२६ श्लोकार्धयमकसे आच्छन्न निम्नोक्त प्रकारके पद्योंके भी पाठकसे जब नाना अर्थ करनेकी आकांक्षा की जाती है, तो वह सिर धुननेके अतिरिक्त क्या कर सकता है ? नागाहत-विवाहेन तत्क्षणे सदृशः श्रियः । नागाहत-विवाहेन तत्क्षणे सदृशः श्रियः ।। ६/५४ भाषा-सप्तसन्धान भाषायी खिलवाड़ है । काव्योंका नाना अर्थोका बोधक बनानेकी आतुरताके कारण कविने जिस पदावलीका गुम्फन किया है, वह पाण्डित्य तथा रचनाकौशलकी पराकाष्ठा है। सायास प्रयुक्त भाषामें जिस कृत्रिमता एवं कष्टसाध्यताका आ जाना स्वाभाविक है, सप्तसन्धानमें वह भरपूर मात्रामें विद्यमान है । सप्तसन्धान सही अर्थमें क्लिष्ट तथा दुरूह है। सचमुच उस व्यक्तिके पाण्डित्य एवं चातुर्यपर आश्चर्य होता है जिसने इतनी गभित भाषाका प्रयोग किया है जो एक साथ सात-सात अर्थोंको विवृत कर सके । भाषाकी यह दुस्साध्यता काव्यका गुण भी है, दुर्गण भी। जहांतक यह कविके पाण्डित्य की परिचायक है, इसे, इस सीमित अर्थ में, गुण माना जा सकता है। किन्तु जब यह भाषात्मक क्लिष्टता अर्थबोधमें दुलंध्य बाधा बनती है तब कविकी विद्वत्ता पाठकके लिए अभिशाप बन जाती है। विविध अर्थों की प्राप्तिके लिए पद्योंका भिन्न-भिन्न प्रकारसे अन्वय करने तथा सुपरिचित शब्दोंके अकल्पनीय अर्थ खोजने में बापुरे पाठकको असह्य बौद्धिक यातना सहनी पड़ती है। एक-दो उदाहरणोंसे यह बात स्पष्ट हो जाएगी। सवितृतनये रामासक्त हरेस्तनुजे भुजे प्रसरति परे दौत्येऽदित्याः सुता भयभंगुराः । श्रुतिगतमहानादा-देवं जगुनिजमग्रज रणविरमणं लीभक्षोभाद्विभीषणकायतः ॥ ५/३७ इस पद्यमें जिनेन्द्रोंकी कामविजयका वर्णन है। यह अर्थ निकालनेके लिए शब्दोंको कैसा तोड़ामरोड़ा है, इसका आभास टीकाके निम्नोक्त अंशसे भली-भाँति हो जायेगा। हरेजिनेन्द्रस्य भुजे भोग्यकर्मणि तनुजे अल्पीभूते सविततनये प्रकाशविस्तारके जिनेन्द्र रामे आत्मध्याने आसक्ते परे अत्युत्कृष्टे मोक्षे इत्यर्थः दौत्य दूतकर्मणि प्रसरति ध्यानमेव मोक्षाय दूतकर्मकृदिति भावः दित्याः सुताः कामादयः भयभंगुराः भयभीता जाताः विभीषणकायतः भयोत्पादककायोत्सर्गविधायकशरीरात् जिनेन्द्रात् लोभक्षोभात् लोभस्य तद्विषयकजयाशारूपस्य क्षोभात् आघातात् जयाशात्यागात् प्रत्युत निजपराजयभीतेः श्रु तिगतः महानादा भयादेव महाशब्दकारका दीर्घविराविणः रणविरमणम् जिनेन्द्रतो विग्रहनिवर्त्तनं निजमग्रजमग्रेसरं देवं द्योतनात्मकं मोहराज जगुः निवेदयामासुः । प्रस्तुत पद्यमें केवलज्ञानप्राप्तिके पश्चात् जिनेश्वरका वर्णन है । यह अर्थ कैसे सम्भव है, इसका ज्ञान टीकाके बिना नहीं हो सकता । सुमित्रांगजसंगत्या सदशाननभासुरः । अलिमुक्तेर्दानकार्यसारोऽभाल्लक्ष्मणाधिपः ॥ ६/५७ सुमित्रं सुष्ठु मेद्यति स्निह्यतीति केवलज्ञानं तदेवांगजं तस्य संगत्या केवलज्ञानयोगेन दशाननभासुरः दशसु दिक्षु आननं मुखमुपदेशकाले यस्य स दशाननस्तेन भासुरः लक्ष्मणाधिपः ३०२ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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