Book Title: Chitrakavya ka Utkarsh Saptasandhan Mahakavya
Author(s): Satyavrat
Publisher: Z_Agarchand_Nahta_Abhinandan_Granth_Part_2_012043.pdf

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Page 1
________________ अपनी विद्वत्ता तथा रचना कौशलके प्रदर्शनके लिए संस्कृत कवियोंने जिन काव्य- शैलियोंका आश्रय लिया है, उनमें नानार्थक काव्योंकी परम्परा बहुत प्राचीन है। भोजकृत शृंगार प्रकाशमें दण्डीके द्विसन्धान Son उलेख हुआ है । दण्डीका द्विसन्धान तो उपलब्ध नहीं, किन्तु उनकी चित्र काव्य- शैलीने परवर्ती कवियोंको इतना प्रभावित किया कि साहित्य में, शास्त्रकाव्योंकी भाँति नानार्थक काव्योंकी एक अभिनव विद्याका सूत्रपात हुआ तथा इस कोटिकी रचनाओंका प्रचुर संख्यामें निर्माण होने लगा। जैन कवियोंने सप्तसंधान, चतुर्विंशति संधान तथा शतार्थक काव्य लिखकर इस भाषायी जादूगरीको चरम सीमा तक पहुँचा दिया । अनेक संधान काव्यमें श्लेषविधि अथवा विलोमरीतिसे एक-साथ एकाधिक कथाओंके गुम्फनके द्वारा काव्य रचयिताको भाषाधिकार तथा रचना - नैपुण्य प्रदर्शित करनेका अवाध अवकाश मिल जाता । अतः, आत्मज्ञापन के शौकीन पण्डित कवियोंका इधर प्रवृत्त होना बहुत स्वाभाविक था । जैन कवि मेघविजयगणि (सतरहवीं शताब्दी) का सप्तसन्धान महाकाव्य चित्रकाव्य शैलीका उत्कर्ष है। साहित्यका आदिम सप्तसन्धान काव्य कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्रकी उर्वर लेखनी से प्रसूत हुआ था । उसकी अप्राप्तिसे उत्पन्न खिन्नताको दूर करने के लिये मेघविजयने प्रस्तुत काव्य रचना की। नौ सर्गोंके इस महाकाव्य में जैन धर्मके पाँच तीर्थंकरों - ऋषभदेव, शान्तिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ, महावीर तथा पुरुषोत्तम राम और कृष्ण वासुदेवका चरित श्लेषविधिसे गुम्फित है । काव्यमें यद्यपि इन महापुरुषोंके जीवनके कतिपय महत्वपूर्ण प्रकरणों का ही निबन्धन हुआ है, किन्तु उन्हें एक साथ चित्रित करनेके दुस्साध्य कार्यकी पूर्ति लिए कविको विकट चित्र शैली तथा उच्छृंखल शाब्दी क्रीडाका आश्रय लेना पड़ा है, जिससे काव्य वज्रवत् दुर्भेध बन गया है। टीकाके जल-पाथेयके बिना काव्यके मरुस्थलको पार करना सर्वथा असम्भव है । विजयामृत सूरिने अपनी विद्वत्तापूर्ण 'सरणी से काव्यका मर्म विवृत करनेका प्रशंसनीय प्रयास किया है, यद्यपि कहींकहीं 'सरणी' भी काव्यकी भाँति दुरूह बन गयी है । चित्रकाव्य का उत्कर्ष — सप्तसन्धान महाकाव्य श्री सत्यव्रत 'तृषित' श्रीगंगानगर सप्तसन्धान का महाकाव्यत्व सप्तसन्धानके कर्त्ताका मुख्य उद्देश्य चित्रकाव्य रचनामें अपनी वैदग्धीका प्रकाशन करना है, और इस लक्ष्य सम्मुख, उसके लिये काव्यके अन्य धर्म गौण हैं; तथापि इसमें प्रायः वे सभी तत्व किसी न किसी रूप में विद्यमान हैं, जिन्हें प्राचीन लक्षणकारों ने महाकाव्यके लिये आवश्यक माना है । संस्कृत महाकाव्यकी रूढ़ परम्परा अनुसार प्रस्तुत काव्यका आरम्भ चार मंगलाचरणात्मक पधोंसे हुआ है, जिनमें जिनेश्वरों तथा वाग्देवीकी वन्दना की गयी है । काव्यके आरम्भ में सज्जनप्रशंसा, दुर्जननिन्दा, सन्नगरी वर्णन आदि बद्धमूल १. जैन साहित्य वर्धक सभा, सूरतसे 'सखी' सहित प्रकाशित, विक्रम संवत् २००० । २. श्री हेमचन्द्रसूरीशैः सप्तसन्धानमादिमम् । रचितं तदलाभे तु स्तादिदं तुष्टये सताम् ।। प्रशस्ति, २ । ३८ Jain Education International For Private & Personal Use Only विविध: २९७ www.jainelibrary.org

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