Book Title: Chinnou Jinvara Rou Stavan Author(s): Mehulprabhsagar Publisher: Mehulprabhsagar View full book textPage 2
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailass agarsuri Gyanmandir 22 SHRUTSAGAR March-2017 लोगों को दीक्षा दी थी इसीलिए यह परम्परा क्षेमकीर्ति' या 'क्षेमधाड़' शाखा के नाम से जानी जाती है। __ प्रस्तुत कृति के रचनाकार उपाध्याय लक्ष्मीवल्लभजी महाराज ने कल्पसूत्र की कल्पद्रुमकलिका टीका की प्रशस्ति में लिखा है श्रीमज्जिनादिकुशल: कुशलस्य कर्ता गच्छे हत्खरतरे गुरुराड् बभूव। शिष्यश्च तस्य सकलागमतत्त्वदर्शी श्रीपाठकः कविवरो विनयप्रभोऽभूत् ॥१॥ विजयतिलकनामा पाठकस्तस्य शिष्यो भुवनविदितकीर्ति वाचक क्षेमकीर्ति। प्रचरविहितशिष्य: प्रसता तस्य शाखा सकलजगति जाता क्षे मधारी ततोऽसौ ।। अपने उदय से लेकर बीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक तक यह परम्परा अविच्छिन्न रूप से पहले साधुओं के रूप में और बाद में वही यतियों के रूप में चलती रही। इस शाखा में गीतार्थ विद्वानों की लम्बी और विशाल परम्परा रही है। इसमें अनेक दिग्गज विद्वान् एवं साहित्यकार हुए हैं, जिनमें से कुछ के नामोल्लेख इस प्रकार हैं- उपाध्याय तपोरत्न, महोपाध्याय जयसोम, महोपाध्याय गुणविनय, मतिकीर्ति, उपाध्याय श्रीसार, उपाध्याय लक्ष्मीवल्लभ, वाचक सहजकीर्ति, विनयमेरु, महाकवि जिनहर्ष, लाभवर्धन, उपाध्याय रामविजय, भुवनकीर्ति, अमरसिंधु इत्यादि। जिनके द्वारा रचित सहस्रों कृतियों से न केवल जैन साहित्य अपितु समग्र भारतीय वाङ्मय समृद्ध है। प्रस्तुत कृति के रचनाकार उपाध्याय लक्ष्मीवल्लभजी महाराज हैं। ये खरतरगच्छीय क्षेमकीर्ति शाखा के उपाध्याय लक्ष्मीकीर्ति के शिष्य थे। इनका मूल नाम हेमराज' और उपनाम 'राजकवि' था। इनकी जन्म-दीक्षा आदि तिथि और स्थलों की जानकारी गवेषणीय है। संस्कृत, राजस्थानी और हिन्दी तीनों भाषाओं में इन्होंने अनेक रचनायें की हैं। कल्पसूत्र की कल्पद्रुमकलिका टीका आपकी प्रसिद्ध कृति है। साथ ही संस्कृत भाषा में कुमारसंभव महाकाव्य की टीका, उत्तराध्ययन टीका, धर्मोपदेश काव्य स्वोपज्ञ टीका, पंचकुमार कथा, जिनकुशलसूरि अष्टक सहित For Private and Personal Use OnlyPage Navigation
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