Book Title: Ched Suttani Aayar Dasa
Author(s): Kanahaiyalalji Maharaj
Publisher: Aagam Anyoug Prakashan

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Page 15
________________ उस व्यक्ति का स्वयं का अधूरापना होगा। मेरा अपना विचार तो यह है, कि जैन-परम्परा के आगमों में छेद-सूत्रों का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। जैन-संस्कृति का सार श्रमण-धर्म है । श्रमण-धर्म की सिद्धि के लिए आचार की साधना अनिवार्य है। आचार-धर्म के निगूढ़ रहस्य और सूक्ष्म क्रिया-कलाप को समझने के लिए छेद-सूत्रों का अध्ययन अनिवार्य हो जाता है। जीवन, जीवन है। साधक के जीवन में अनेक अनुकूल तथा प्रतिकूल प्रसंग उपस्थित होते रहते हैं। ऐसे विषम समयों में किस प्रकार निर्णय लिया जाए इस बात का सम्यक्-निर्णय एकमात्र छेद-सूत्र ही कर सकते हैं। संक्षेप में छेद-सूत्रसाहित्य; जैन-आचार की कुञ्जी है, जैन-विचार की अद्वितीय निधि है, जैनसंस्कृति की गरिमा है और जैन-साहित्य की महिमा है । दशा त-स्कन्ध अथवा आचार-दशा दशाश्रुतस्कंध-सूत्र का दूसरा नाम आचार-दशा भी है। स्थानांग सूत्र के दशवें स्थान में इसका आचार-दशा के नाम से उल्लेख उपलब्ध होता है । आचार-दशा में दश अध्ययन हैं, जो इस प्रकार हैं-असमाधि-स्थान, सबल दोष, आशातना, गणि-सम्पदा, चित्त-समाधि स्थान, उपासक-प्रतिमा, मिक्षप्रतिमा, पर्युषणा-कल्प, मोहनीय-स्थान और आयति-स्थान । इन दश अध्ययनों में असमाधि स्थान, चित्त-समाधिस्थान, मोहनीय-स्थान और आयति-स्थानों में, जिन तत्त्वों का संकलन किया गया है, वे वस्तुतः योग-विद्या से संबद्ध हैं। योग-शास्त्र के साथ इनकी तुलना की जाए, तो ज्ञात होगा कि चित्त को एकाग्र तथा समाहित करने के लिए आचार-दशा के दश-अध्ययनों में से चार अध्ययन अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण है। उपासक-प्रतिमा और भिक्षु-प्रतिमा श्रावक एवं श्रमण की कठोरतम साधना के उच्चतम नियमों का परिज्ञान कराते हैं। पर्युषणा-कल्प में, पर्युषण कैसे मनाना चाहिए, कब मनाना चाहिए, इस विषय पर विस्तार पूर्वक विचार किया गया है । कल्पसूत्र वस्तुतः इस आठवीं दशा का ही परिशिष्ट माना जाता है, अथवा इस आठवीं दशा का ही पल्लवित रूप कर दिया गया। सबल दोष और आशातना इन दो दशाओं में साधु-जीवन के दैनिक नियमों का विवेचन किया गया है, और बलपूर्वक कहा गया है कि इन नियमों का परिपालन होना ही चाहिए। इनमें जो त्याज्य है उनका दृढ़ता से त्याग करना चाहिए और जो उपादेय हैं उनका पालन करना चाहिए। आचार-दशा की चतुर्थदशा में गणि-सम्पदा में आचार्य पद पर विराजित व्यक्ति के व्यक्तित्व, प्रभाव तथा उसके शारीरिक प्रभाव का अत्यन्त उपयोगी वर्णन किया गया है। आचार्य पद की लिप्सा में संलग्न व्यक्तियों को आचार्य पद ग्रहण करने के पूर्व इनका अध्ययन करना आवश्यक है। इस

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