Book Title: Chatushasthi evam Dwatrinshad Dalkamalbandh Parshwanath Stava
Author(s): Vinaysagar
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 5
________________ सप्टेम्बर 2010 अनुसन्धान 52 दर..... ....... तुझ पास // 5 // यतिवर तसु खंधइ कीधउ पद-विन्नास, स्तवना करि वलि-वलि गावइ जिनगुण रास / श्रीजिनभदसूचि रचित द्वादशाङ्गी पदप्रमाण-कुलकम् म. विनयसागर वीत. तिणि पापी सुरनउ थयउ निष्फल आयास // 6 // श्री जिनवर पाए लागि करइ वेखास ................ साहिब तूं माहर............... / ............ मियइ तुझ पाए तूं सुतरु संकास मुझ नइ पिण तारउ जिम स.............. वास // 7 // निरमलतइं साहिब ........... ............... / मी गुण उज्जल जि हवउ फटिक आरास / दउलति तुझ दरसण सहु को धइ साबास / रंगइ अवधार................................. ||8|| "अत्थं भासइ अरहा, सुत्तं गंथन्ति गणहरा" केवलज्ञान प्राप्त करने और त्रिपदी कथन के पश्चात् तीर्थनायकों ने जो प्रवचन/उपदेश दिया, उसमें अर्थरूप में जिनेश्वरदेवों ने कहा और सूत्ररूप में गणधरों ने गुम्फित किया। उसी को द्वादशाङ्गी श्रुत के नाम से जाना जाता है / द्वादशाङ्गी श्रुत का पदप्रमाण कितना है इसके सम्बन्ध में निम्न कुलक हैं। इसके कर्ता जिनभद्रसूरि हैं / जिनभद्रसूरि दो हुए हैं - प्रथम तो जिनदत्तसूरि के शिष्य और दूसरे जैसलमेर ज्ञान भण्डार संस्थापक श्री इम आदि प्रभुवर पास (कलस) जिनवरं कमलदल बत्रीस ए / श्री नगर जेसलमेरु, णसु थुण्यउ जग ...............[वा]चक रत्नहर्ष सुहामणा, श्रीसार तासु विनेय प्रणमइ पाय परमेसर तणा // 9 // // इति बत्रीस दलकमलं पार्श्वनाथस्य / / ही जिनभद्रसूरि की यह रचना हो / श्रुतसंरक्षण और श्रुतसंवर्द्धन यह उनके जीवन का ध्येय था इसीलिए उन्हीं की कृति मानना उपयुक्त है / आचार्य श्रीजिनभद्रसूरि आचार्य श्री जिनराजसूरिजी के पद पर श्रीसागरचन्द्राचार्य ने जिनवर्द्धनसूरि को स्थापित किया था, किन्तु उन पर देव-प्रकोप हो गया, अतः चौदह वर्ष पर्यन्त गच्छनायक रहने के अनन्तर गच्छोन्नति के हेतु सं० 1475 में श्री जिनराजसूरि जी के पद पर उन्हीं के शिष्य श्री जिनभद्रसूरि को स्थापित किया गया / जिनभद्रसूरि पट्टाभिषेकरास के अनुसार आपका परिचय इस प्रकार है मेवाड़ देश में देउलपुर नामक नगर है / जहाँ लखपति राजा के राज्य में समृद्धिशाली छाजहड़ गोत्रीय श्रेष्ठि धीणिग नामक व्यवहारी निवास करता था / उनकी स्त्री का नाम खेतलदेवी था / इनकी रत्नगर्भा कुक्षि से रामणकुमार ने जन्म लिया / एक बार जिनराजसूरि जी महाराज उस नगर में पधारे / रामणकुमार के हृदय में आचार्यश्री के उपदेशों से वैराग्य परिपूर्ण रूप से जागृत हो गया। कुमार ने अपने मातुश्री से दीक्षा के लिए आज्ञा मांगी / शुभमुहूर्त में

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