Book Title: Chatushasthi evam Dwatrinshad Dalkamalbandh Parshwanath Stava
Author(s): Vinaysagar
Publisher: ZZ_Anusandhan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्टेम्बर २०१० ४७ श्री श्रीसारोपाध्याय ग्रथित चतुःषष्टि एवं द्वात्रिशददलकमलबन्धपार्श्वनाथ स्तव म. विनयसागर यद्यपि साहित्यशास्त्रियों ने चित्रकाव्य को अधम काव्य माना है किन्तु प्रतिभा का उत्कर्ष न हो तो चित्रकाव्य की रचना ही सम्भव नहीं है। विद्वानों की विद्वद्गोष्ठी हेतु चित्रकाव्यों का प्रचलन रहा है और वह मनोरंजनकारी भी रहा है। प्रस्तुत कृतिद्वय के प्रणेता श्रीसारोपाध्याय हैं । खरतरगच्छ का बृहद इतिहास पृ. ३३२ के अनुसार क्षेमकीर्ति की तीसरी परम्परा में श्रीसार हुए हैं। श्रीसार की दीक्षा सम्भवतः श्री जिनसिंहसूरि या श्री जिनराजसूरि द्वितीय के कर-कमलों से हुई होगी ! श्रीसारोपाध्याय सर्वशास्त्रों के पारगामी विद्वान् थे । शास्त्रार्थ में अनेक वादियों को पराजित किया था । सम्भवतः श्रीसारोपाध्याय श्री जिनरंगसूरि शाखा के समर्थक थे और इन्हीं के समय से व इन्हीं के कारण श्री जिनरंगसूरि शाखा का प्रादुर्भाव हुआ हो । श्रीसारोपाध्याय से श्रीसारीय उपशाखा का अलग निर्माण हुआ था जो सम्भवतः आगे नहीं चली । इनका समय १७वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध और १८वीं सदी का प्रथम चरण रहा हो। इनके द्वारा निर्मित साहित्य निम्नलिखित है : ___ (१) कृष्ण रुक्मिणी वेलि बाला०, (२) जयतिहुअण बाला० (पत्र २२ जय० भं०), (३) गुणस्थानक्रमारोह बाला० (सं० १६७८), (४) आनन्द सन्धि (सं० १६८४ पुष्कराणी), (५) गुणस्थानक्रमारोह (१६९८ महिमावती), (६) सारस्वत व्याकरण बालावबोध, (७) पार्श्वनाथ रास (सं० १६८३, जैसलमेर पत्र १० हमारे संग्रह में), (८) जिनराजसूरि रास (सं० १६८१, आषाढ़ वदि १३ सेत्रावा), (९) जयविजय चौ० (श्रीपूज्यजी के संग्रह में, राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, बीकानेर शाखा कार्यालय), (१०) मृगापुत्र चौपई (१६७७ बीकानेर), (११) जन्मपत्री विचार, (१२) आगम छत्तीसी, (१३) गुरु Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ५२ छत्तीसी, (१४) धर्म छत्तीसी, (१५) पूजा बत्तीसी (१६) उत्पत्ति बहुत्तरी, (१७) सार बावनी (१६८९ पाली), (१८) सीमन्धर बावनी, (१९) मोती कपासिया छन्द (१७८९ फलौदी), (२०) उपदेश सत्तरी, (१७वीं) (२१) आदिजिन पारणक स्तवन (१६९९), (२२) आदिजिन स्तवन (१७वीं), (२३) गौतमपृच्छा स्तवन (१६९९), (२४) जिनप्रतिमास्थापना स्तवन (१७वीं), (२५) जिनराजसूरि गीत (१७वीं), (२६) दशबोल सज्झाय (१७वीं), (२७) दश श्रावक गीत (१७वीं), (२८) धर्म विचार सज्झाय (१७वीं), (२९) नेमिनाथ बारहमासा (१७वीं), (३०) प्रवचन परीक्षा सजझाय (१७वीं), (३१) फलौदी पार्श्वनाथ स्तवन (१७वीं), (३२) बत्तीस दलकमलबंध पार्श्व स्तवन, (३३) मेघकुमार सज्झाय, (३४) रोहिणी स्तवन, (३५) लोकनालगभित चन्द्रप्रभ स्तवन (१६८७), (३६) वासुपूज्य रोहिणी स्तवन (१७२०), (३७) शत्रुञ्जय स्तवन, (३८) सतरह भेदी पूजा गर्भित शान्तिजिन स्तवन, (३९) स्याद्वाद सज्झाय आदि । (छोटी-छोटी कृतियों के लिए देखें खरतरगच्छ साहित्य कोश ।) प्रस्तुत कृति की रचना संस्कृत भाषा में चतुःषष्टिदलकमलबन्ध जैसलमेर पार्श्वनाथ स्तवः और द्वितीय कृति द्वात्रिंशद्लकमलबन्ध पार्श्वस्तव है। यह राजस्थान भाषा में रचित है और जेसलमेर मण्डन पार्श्वनाथ का स्तवन है । ये दोनों चित्रकाव्य खण्डित हैं और स्फुट पत्र जैसलमेर ज्ञान भण्डार में प्राप्त है । ये दोनों कृतिया प्रस्तुत की जा रही हैं : चतुःषष्टिदलकमलबन्ध पार्श्वनाथ स्तव परम मंगल राजित संचरं, रसिकलोकनतक्रमसुंदरं । मतिवितर्जित वि.......... ............................ ॥१॥ ................ विनिज्जितभास्करं । परमितेतरसौख्यगुणाकरं, रहितमावरणैः - संवरं ॥२॥ महदयं सदयं प्रतिवासरं, मेयसारं, मज्जत्सुरासुरनरव्रजदत्तपारं । नीतिप्रतीतिगुणरंजित-यत्यग्निमंसमितिगुप्तिदयात्म । Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्टेम्बर २०१० तयोगिवारं, गर्जद्गिरं प्राप्तदशावतारं । प्रतापसंतर्जितनव्यसूरं, धाराधराभं दितपापचौरं ॥४॥ लीलाधरं । नम्रानेकवि.. श्रीशं सगुणराजिनिर्जित विधात्रीशानविश्वंभरं । जिह्वाकोट्यनुदीर्घमाणमहसं लोकाग्रतामं.. मिरं देवेशदत्तादरं ॥५॥ रागविषापहगरुडोद्गारं, जंगमनिर्जराण्यनुकारं । सूक्तसमर्पितजनताधारं, ॥६॥ सूतोपमं दृषर-स्यकृतोपकारं, रिष्टापवर्जितमुखकृतपुण्यपूरं । चंद्राननं गुरुमनंतमपास्त वि....., कव्यादि.... सुहितंविदारं ॥७॥ वर्णितसूक्ष्मनिगोदविचारं, तिग्ममहत्तपसंविदुदारं । भिक्षुपतिं प्रथम व्र....रं नु, ताव्यवहारं ॥८॥ तत्त्वरुचिं निर्वृतिभर्त्तारं, भक्तपंचजन सुखकर्त्तारं, नयमणि पारावारं । सा....ज्ञात........भाण्डा...जित कमठ विकारं, स्थिरमद्यपंकासारं ॥९॥ सत्पुण्यपण्यविपणिसकलंकितारं, जीर्णस्फुट... लसद्विहारं । नोद् घंकृताखिलजगत्कलुषापहारं धात्रीधवप्रणतपक्वजयुग्मतारं ॥११॥ रत्नत्रयाढ्यं शिववृक्षकी, श्वः शंखकुंदरजनीपतिहारहीर- देवावदातयशसंभुवनैकवीरं ॥१३॥ वंदारुस्त्रिदशेशमौलिविहितोयो.. णमवाप्ततीरं । मतं सदनेकमंगलगृहं प्रोद्भूतपुण्यांकुरं । सारांगं धरणेन्द्रपूजितपदं नीरागता तु ....रं, रथ्यांदायकभात्प्ररूपमजितं यो ४९ ॥१४॥ प्रणमाम्यपवर्गकजभ्रमरं, नतनागरलोकततिं विदुरं । मद् इ.... - पर्वतशात.... दुरं, तिलकं त्रिजगच्छिरसि प्रवरं ॥ १५ ॥ दिने जगच्चिदिरसेन्दु वर्षे । श्रीपेशले जेसलमेरु कोट्टे, तिरस्कृतस्वग्गिपुरीमरट्टे ॥१६॥ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ५२ ............... श्री....... एवं देवेन्द्रसंख्यैः कमल दल सुकाव्यैः । श्रीमच्छ्रीपार्श्वनाथः प्रकटतरयशा संस्तुतो वीतरागः । भूयाच्छ्रीरत्नसारक्रमणविहितदृग्रत्नहर्षप्रसत्त्या । .................. विकसुरमणिबोधिबीजस्य दाता ॥१७॥ ॥ इति चतुःषष्टिदलकमलबन्धस्तवं ॥ द्वात्रिंशद्दलकमलबन्धपार्श्वनाथ स्तव श्री पार्श्व जिनेश्वर प्रणमउ धरि उल्हास, अद्भुत दहदिसि जसु जसवास । माता जिम पूरइ पुत्र तणी सवि आस, सुप्रसन हुउ साहिब द्यउ मुझ लीलविलास ॥१॥ त......... .......... इं धन दिन धन ए मास, समतारस-पूरित मूरति पुण्यप्रकास । तरुणी-तरुणीगण देखि न पाम्यउ त्रास, तसु पाय नमं.. ............क नास ॥२॥ विषमा अरि जुडिया नही तिलभर अवकास, हिलि हिलि स्वर पूरयउ धरणीनइ आकास । ....षण ज.... ................. ण चित्ति विमास, जे वांका वयरी ते पिण थायइ दास ॥३॥ समरंतां नासइ रोग भगंदर खास, लहि[यउ]घरि ल .................. दर आवास । मेटइ दुःख दोहग दुरगति दुष्ट प्रवास, रूसइ नवि तूसइ जउ को करइ विणास ॥४॥ दस.................... रतर................... अभ्यास, यतिवर कमठासुर देखी थयउ उदास । सम घनन वरसाव्यउ आव्यउ जल आनास, Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्टेम्बर 2010 अनुसन्धान 52 दर..... ....... तुझ पास // 5 // यतिवर तसु खंधइ कीधउ पद-विन्नास, स्तवना करि वलि-वलि गावइ जिनगुण रास / श्रीजिनभदसूचि रचित द्वादशाङ्गी पदप्रमाण-कुलकम् म. विनयसागर वीत. तिणि पापी सुरनउ थयउ निष्फल आयास // 6 // श्री जिनवर पाए लागि करइ वेखास ................ साहिब तूं माहर............... / ............ मियइ तुझ पाए तूं सुतरु संकास मुझ नइ पिण तारउ जिम स.............. वास // 7 // निरमलतइं साहिब ........... ............... / मी गुण उज्जल जि हवउ फटिक आरास / दउलति तुझ दरसण सहु को धइ साबास / रंगइ अवधार................................. ||8|| "अत्थं भासइ अरहा, सुत्तं गंथन्ति गणहरा" केवलज्ञान प्राप्त करने और त्रिपदी कथन के पश्चात् तीर्थनायकों ने जो प्रवचन/उपदेश दिया, उसमें अर्थरूप में जिनेश्वरदेवों ने कहा और सूत्ररूप में गणधरों ने गुम्फित किया। उसी को द्वादशाङ्गी श्रुत के नाम से जाना जाता है / द्वादशाङ्गी श्रुत का पदप्रमाण कितना है इसके सम्बन्ध में निम्न कुलक हैं। इसके कर्ता जिनभद्रसूरि हैं / जिनभद्रसूरि दो हुए हैं - प्रथम तो जिनदत्तसूरि के शिष्य और दूसरे जैसलमेर ज्ञान भण्डार संस्थापक श्री इम आदि प्रभुवर पास (कलस) जिनवरं कमलदल बत्रीस ए / श्री नगर जेसलमेरु, णसु थुण्यउ जग ...............[वा]चक रत्नहर्ष सुहामणा, श्रीसार तासु विनेय प्रणमइ पाय परमेसर तणा // 9 // // इति बत्रीस दलकमलं पार्श्वनाथस्य / / ही जिनभद्रसूरि की यह रचना हो / श्रुतसंरक्षण और श्रुतसंवर्द्धन यह उनके जीवन का ध्येय था इसीलिए उन्हीं की कृति मानना उपयुक्त है / आचार्य श्रीजिनभद्रसूरि आचार्य श्री जिनराजसूरिजी के पद पर श्रीसागरचन्द्राचार्य ने जिनवर्द्धनसूरि को स्थापित किया था, किन्तु उन पर देव-प्रकोप हो गया, अतः चौदह वर्ष पर्यन्त गच्छनायक रहने के अनन्तर गच्छोन्नति के हेतु सं० 1475 में श्री जिनराजसूरि जी के पद पर उन्हीं के शिष्य श्री जिनभद्रसूरि को स्थापित किया गया / जिनभद्रसूरि पट्टाभिषेकरास के अनुसार आपका परिचय इस प्रकार है मेवाड़ देश में देउलपुर नामक नगर है / जहाँ लखपति राजा के राज्य में समृद्धिशाली छाजहड़ गोत्रीय श्रेष्ठि धीणिग नामक व्यवहारी निवास करता था / उनकी स्त्री का नाम खेतलदेवी था / इनकी रत्नगर्भा कुक्षि से रामणकुमार ने जन्म लिया / एक बार जिनराजसूरि जी महाराज उस नगर में पधारे / रामणकुमार के हृदय में आचार्यश्री के उपदेशों से वैराग्य परिपूर्ण रूप से जागृत हो गया। कुमार ने अपने मातुश्री से दीक्षा के लिए आज्ञा मांगी / शुभमुहूर्त में