Book Title: Chaturvinshati Prabandh
Author(s): Rajshekharsuri
Publisher: Hemchandracharya Sabha
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चतुर्विशति
प्रवन्धः
मा श्ववचनैः कुकुलानलकर्कशः पीडिताऽपि देवमुपालभते, न श्वश्रं निन्दति, चिन्तयति च
" सम्वो पुवकयाणं कम्माणं पावा फलविवागं ।
अबराहेमु गुणेसु य निमित्तमित्तं परो होड ॥१॥" अन्यदा वैरोट्या भोगीन्द्रस्वप्नभूचितं गर्भ बभार । पायसभोजनदोहद उत्पन्नः । तदाऽऽचार्यनन्दिलनामा मरिझद्याने समवासार्षीत, सार्द्धनवपूर्वधरआर्यरक्षितस्वामिवत् । वैरोट्यायाः श्वश्रुरिति वक्ति-“ अस्या वध्वाः सुता भविष्यति, न तु सुतः, ” इति कर्णक्रकचकर्कशतद्वचःपीडिता मती सा सती वधूः मृरिवन्द| नार्थ गता । मरयो वन्दिताः । ततः स्वस्य श्वश्वा सह विरोधोऽकथि। मृरिभिरक्तम-" पूर्वकर्मदोषोऽयम् , | क्रोधो न वर्द्धनीयः भवहेतुत्वात् , वत्से!
इह लोए चिय कोवो मरीरसंतावकलहवेराई । कुणइ पुणो परलोए नरगाइसुदारुणं दुकानं ॥१॥
पुत्रं च लप्स्यसे । पायसदोहदस्ने जातोऽस्ति । सोऽपि यथातथा पूरयिष्यते ।" इति सा मृरिवचसाऽऽ नन्दितचित्ता निजगृहमागच्छत् , अचिन्तयच्च"अस्माभिश्चतुरम्बुराशिरसनाविच्छेदिनी मेदिनी, भ्राम्यद्भिः स न कोऽपि निस्तुषगुणो दृष्टो विशिष्टो जनः। यस्याग्रे चिरसश्चितानि हृदये दु:ग्वानि सौख्यानि वा, व्याख्याय क्षणमेकमर्द्धमथवा निःश्वस्य विश्रम्यते ॥१॥
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