Book Title: Chandraprabhacharitam
Author(s): Amrutlal Shastri
Publisher: Z_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf

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Page 5
________________ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ वश में कर लेता है, और उसपर सवार होकर वनक्रीडा के लिए चल देता है। इसी निमित्त से उस हाथी का नाम 'वनकेलि' नाम पड़ जाता है। क्रीड़ा के पश्चात् पद्मनाभ उसे अपनी गजशाला में बंधवा देता है'। राजा पृथ्वीपाल इस हाथी को अपना बतलाकर हथियाना चाहता है। पद्मनाभ के इनकार करने पर दोनों में युद्ध छिड़ जाता है। युद्ध में पृथिवीपाल मारा जाता है। इसके कटे सिर को देखकर पद्मनाभ को वैराग्य हो जाता है, फलतः वह श्रीधरमुनि से जिनदीक्षा लेकर सिंहनिष्क्रीडित आदि व्रतों व तेरह प्रकार के चारित्र का परिपालन करता हुआ घोर तप करता है। कुछ ही समय में वह द्वादशाङ्ग श्रुत का ज्ञान प्राप्त करता है, और सोलहकारण भावनाओं के प्रभाव से तीर्थङ्कर प्रकृति का बन्ध कर लेता है। ६. वैजयन्तेश्वर--आयु के अन्त में संन्यासपूर्वक भौतिक शरीर को छोड़कर पद्मनाम वैजयन्त नामक अनुत्तर विमान में अहमिन्द्र होते हैं, और तेतीस सागरोपम आयु की अन्तिम अवधि तक वहाँ दिव्य सुख का अनुभव करते हैं। ७. तीर्थङ्कर चन्द्रप्रभ-आयु की समाप्ति होने पर वैजयन्तेश्वर पूर्व देश' की चन्द्रपुरी में अष्टम तीर्थङ्कर होते हैं। माता-पिता-इनकी माता का नाम लक्ष्मणा और पिता का महासेन था। इक्ष्वाकुवंशी महासेन अनेकानेक विशिष्ट गुणों की दृष्टि से अनुपम रहे । दिग्विजय के समय इन्होंने अङ्ग, आन्ध्र, उढ़, कर्णाटक, कलिङ्ग, कश्मीर, कीर, चेदी, टक्क, द्रमिल, पाञ्चाल, पारसीक, मलय, लाट और सिन्धु आदि अनेक देशों के नरेशों को अपने अधीन किया था । रत्नवृष्टि-दिग्विजय के पश्चात् चन्द्रपुरी में राजा महासेन के राजमहल में चन्द्रप्रभ के गर्भावतरण के छः मास पहले से उनके जन्म दिन तक प्रति दिन साढ़े तीन करोड़ रत्नों की वृष्टि होती रही। गर्भशोधन आदि-रत्नवृष्टि को देख कर महासेन को आश्चर्य होता है, पर कुछ ही समय के पश्चात् इन्द्र की आज्ञा से आठ दिक्कुमारियाँ उनके यहाँ महारानी लक्ष्मणा की सेवा के लिए उपस्थित होती हैं। उनके साथ हुए वार्तालाप से उनका आश्चर्य दूर हो जाता है। महासेन से अनुमति लेकर वे उनके अन्तःपुर में प्रवेश करती हैं, और लक्ष्मणा के गर्भशोधन आदि कार्यों में संलग्न हो जाती हैं। १. उ. पु. और पुराण सा. में इस घटना का तथा इसके बाद होनेवाले युद्ध का उल्लेख नहीं है । २. वाराणसी से आसाम तक का पूर्वी भारत 'पूर्व देश' के नाम से प्रख्यात रहा। उ. पु., पुराण सा. त्रिषष्टि शलाका पुरुष और त्रिषष्टि स्मृति में इस देश का उल्लेख नहीं है। ३. त्रिषष्टि शलाका पुरुष (२९६. १३) में इस नगरी का नाम 'चन्द्रानना', उ. पु. (५४. १६३) में 'चन्द्रपुर', पुराण सा. (८२. ३९) में चन्द्रपुर, तिलोयपण्णत्ती (४.५३३) में 'चन्द्रपुर' और हरिवंश (६०. १८९) में 'चन्द्रपुरी' लिखा है। सम्प्रति इसका नाम 'चन्द्रवटी' 'चन्द्रौटी' या 'चंदरौटी' है। यह वाराणसी से १८ मील दूर गङ्गा के बायें तटपर है। यहाँ दि. व श्वे. सम्प्रदाय के दो अलग अलग जैन मन्दिर हैं। ४. तिलोयपण्णत्ती (४.५३३) में माता का नाम 'लक्ष्मीमती' लिखा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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