Book Title: Bruhatkalpa Sutra
Author(s): Hastimal Maharaj
Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf

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Page 8
________________ MODE बृहत्कल्पसूत्र : 415 बोलना, २. अवहेलना करना ३. खिसलाने वाले वचन ४. कठोर वचन ५. गृहस्थ जैसे अपशब्द ६. शान्त कलह को उत्तेजित करने वाले वचन । ये सब अवच्य हैं। दूसरे अधिकार में हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन, अपुरुषवचन और दास वचन रूप छ: प्रायश्चित्त के स्थान कहे गये हैं। तीसरे अधिकार में चार सूत्रों से कहा गया है कि साधु साध्वी के पैर में कांटा, कील आदि लग जाय एवं आंख में रज कण या जन्तु गिर जाय और वे निकाल नहीं सके तो आवश्यकता से साधु का साध्वी तथा साध्वी का साधु निकाल सकते हैं। किन्तु यह विशेष प्रसंग का सूत्र है। चौथे और पांचवें अधिकार में कहा है कि १२ कारणों से साधु साध्वी की रक्षा के सगय स्पर्श करते हुए आज्ञा का उल्लंघन नहीं करते। जैसे (१) दुर्गादि भूमि में साध्वी का पैर फिसलना हो (२) कीचड़ आदि में फिसलती हो (३) नौका पर चढ़ती या उतरती हो (४) भय आदि से विक्षिप्त चित्त हो (4) कामादि से दीप्त चित्त हो (६) भूतप्रेतादि बाधा से बेभान हो (७) उन्मन हो (८) उपसर्ग से व्याकुल हो (९) क्रोध या कलह से अनुपशान्त हो (१०) प्रायश्चित्त से भयभीत हो (११) भक्त प्रत्याख्यान वाली हो (१२) अर्थजात से चिन्तित हो। इन स्थितियों में साधु. साध्वी को सहारा दे सकते हैं। __ छठे अधिकार में ६ बातें संयम को निस्सार बनाने वाली कही गई हैं। अन्त में कल्प की ६ स्थितियाँ बताई गई हैं। छद्मस्थ साधक के कल्पमात्र का इसमें समावेश कर दिया गया है। शास्त्रान्तर से तुलना बृहत्कल्प की शास्त्रान्तर से दो प्रकार की तुलना हो सकती है, एक शब्द से और दूसरी अर्थ से। यहां आर्थिक तुलना समयाभाव से नहीं कर थोड़ी सी शाब्दिक तुलना ही की जायेगी। भगवती, व्यवहार और स्थानांग सूत्र में तुलना के स्थल मिलते हैं। जैसे स्थानांग के चतुर्थ स्थान के आदि में-. तओ अणुग्धाइया पं तं हन्धकम्मं करेमाणे-से तओ सुसण्णप्पा पं. तं....... ...अबुग्गहिए। पर्यन्त १३ सूत्रों का तृतीय उद्देशक में पूर्ण साम्य है। स्थानांग की विशेषता यह है कि उसके पंचम स्थान के द्वितीय उद्देशक में पांच प्रकार का अनुनातिक बताया है, जैसे कि- पंच अणुग्घाइया पं. तं. (१) हत्थ कम्म करेमाणे (२) मेहुणं पडिसेवमाणे (३) राइयभोयां भुजमाणे (४) सागारिय पिंड भुजमाणे (५) रायपिंडं भुजमाणे । द्वितीय उद्देशक के अंतिम दो सूत्रों का पंचम स्थान के तृतीय उद्देशक के "कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गीण वा पंच वत्थाई धारित्तए.....' सूत्र में पूर्ण साम्य है केवल यहां 'इमाई' पट नहीं है। चतुर्थ उद्देशक के ३२ वें सूत्र के साथ पंचम स्थान द्वितीय उद्देशक के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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