Book Title: Bruhad gaccha ka Sankshipta Itihas
Author(s): Shivprasad
Publisher: Z_Aspect_of_Jainology_Part_3_Pundit_Dalsukh_Malvaniya_012017.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 3
________________ बृहद्गच्छ का संक्षिप्त इतिहास १०७ मुनिचन्द्रसूरि ने स्वरचित ग्रन्थों में जो गरु परम्परा दी है, उससे ज्ञात होता है कि उनके गुरु का नाम यशोदेव और दादागुरु का नाम सर्वदेव' था। प्रथम तालिका में उद्योतनसूरि द्वितीय के समकालीन जिन ५ आचार्यों का उल्लेख है, उनमें से चौथे आचार्य का नाम देवसूरि है। ये देवसूरि मुनिचन्द्रसूरि के प्रगुरु सर्वदेवसूरि स अभिन्न हैं ऐसा प्रतीत होता है। इस प्रकार नेमिचन्द्रसूरि और मुनिचन्द्रसूरि परस्पर सतीर्थ्य सिद्ध होते हैं। मुनिचन्द्रसूरि का शिष्य परिवार बड़ा विशाल था। इनके ख्यातिनाम शिष्यों में देवसूरि', मानदेवसूरि और अजितदेवसूरि के नाम मिलते हैं। इसी प्रकार देवसूरि (वादिदेव सूरि) के परिवार में भद्रेश्वरसूरि, रत्नप्रभसूरि, विजयसिंहसूरि आदि शिष्यों एवं प्रशिष्यों का उल्लेख मिलता है। इसी प्रकार वादिदेवसूरि के गुरुभ्राता मानदेवसूरि के शिष्य जिनदेवसूरि और उनके शिष्य हरिभद्रसूरि का नाम मिलता है। वादिदेवसूरि के तीसरे गुरुभ्राता अजितदेवसूरि के शिष्यों में विजयसेनसूरि और उनके शिष्य सुप्रसिद्ध सोमप्रभाचार्य भी हैं । मुनिचन्द्रसूरि के शिष्य परिवार का जो वंशवृक्ष बनता है, वह इस प्रकार है नेमिचन्द्रसूरि द्वारा रचित महावीरचरियं [रचनाकाल वि० सं० ११४१/ई० सन् १०८४] की प्रशस्ति में वडगच्छ को चन्द्रकुल से उत्पन्न माना गया है, अतः समसामयिक चन्द्रकुल [जो पीछे चन्द्रगच्छ के नाम से प्रसिद्ध हुआ] की आचार्य परम्परा पर भी एक दृष्टि डालना आवश्यक है। चन्द्रगच्छ में प्रख्यात वर्धमानसूरि, जिनेश्वरसूरि, बुद्धिसागरसूरि, नवाङ्गवृत्तिकार अभयदेवसूरि आदि अनेक आचार्य हुए । आचार्य जिनेश्वर जिन्होंने चौलक्य नरेश दुर्लभराज की सभा में चैत्यवासियों को शास्त्रार्थ में परास्त कर गुर्जरधरा में विधिमार्ग का बलतर समर्थन किया था, वर्धमानसूरि के शिष्य थे।'' आबू स्थित विमलवसही के प्रतिमा प्रतिष्ठापकों में वर्धमानसूरि का भी नाम लिया जाता है।' इनका समय विक्रम संवत् की ११वीं शती सुनिश्चित है। वर्धमानसूरि कौन थे? इस प्रश्न का भी उत्तर ढूँढना आवश्यक है। __ खरतरगच्छीय आचार्य जिनदत्तसूरि द्वारा रचित गणधरसार्धशतक [रचनाकाल वि० सं० बारहवीं शताब्दी का उत्तरार्ध] और जिनपालोध्याय द्वारा रचित खरतरगच्छवृहद्गुर्वावलो १. देसाई 'मोहनलाल दलीचन्द-जैनसाहित्य नो संक्षिप्त इतिहास, पृ० २४१-४२ । २. वही, पृ० २४८-४९ । ३. वही, पृ० २८३ । ४. वही, पृ० ३२१ । ५. गाँधी, पूर्वोक्त, भाग २, पृ० २८८ । ६. गाँधा, पूर्वोक्त भाग २, पृ० २३९-४० । ७. देसाई, पूर्वोक्त पृ० २८३-४ । ८. देखिये-तालिका न० २।। ९. गाँधी, पूर्वोक्त भाग २, पृ० ३३९ । १०. कथाकोशप्रकरण-प्रस्तावना विभाग, संपादक-मुनि जिनविजय, पृ० २ । ११. नाहटा, अगरचन्द-"विमलवसही के प्रतिष्ठापकों में वर्धमानसूरि भी थे।" -जैन सत्य प्रकाश, वर्ष ५, अंक ५-६ पृ० २१२-२१४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13