Book Title: Bruhad gaccha ka Sankshipta Itihas
Author(s): Shivprasad
Publisher: Z_Aspect_of_Jainology_Part_3_Pundit_Dalsukh_Malvaniya_012017.pdf

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Page 7
________________ बृहद्गच्छ का संक्षिप्त इतिहास वि० सं० ११४३/ई० सन् १०८६ में इनका जन्म हुआ था।' इनके पिता का नाम वारिनाग और माता का नाम जिनदेवी था । आचार्य मुनिचन्द्रसूरि के उपदेश से माता-पिता ने बालक को उन्हें सौंप दिया और उन्होंने वि० सं० ११५२/ई० सन् १०९६ में इन्हें दीक्षित कर मुनि रामचन्द्र नाम रखा । वि० सं० ११७४/ई० सन् १११७ में इन्होंने आचार्य पद प्राप्त किया और देवसूरि नाम से विख्यात हुए। वि० सं० ११८१-८२/ई० सन् ११२४ में अणहिलपत्तन स्थित चौलुक्य नरेश जयसिंह सिद्धराज की राजसभा में इन्होंने कर्णाटक से आये दिगम्बर आचार्य कुमुदचन्द्र को शास्त्रार्थ में पराजित किया और वादिदेवसूरि के नाम से प्रसिद्ध हुए। वादविषयक ऐतिहासिक उल्लेख कवि यशश्चन्द्र कृत "मुद्रितकुमुदचन्द्र" नामक नाटक में प्राप्त होता है। ये गुजरात में प्रमाणशास्त्र के श्रेष्ठ विद्वानों में से थे। इन्होंने प्रमाणशास्त्र पर "प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार" नामक ग्रन्थ आठ परिच्छेदों में रचा और उसके ऊपर "स्याद्वादरत्नाकर" नामक मोटी टीका की भी रचना की। इस ग्रन्थ की रचना में आपको अपने शिष्यों भद्रेश्वरसूरि और रत्नप्रभसरि से सहायता प्राप्त हुई। इसके अलावा इनके द्वारा रचित ग्रन्थ इस प्रकार हैं मुनिचन्द्रसूरिगुरुस्तुति, मुनिचन्द्रगुरुविरहस्तुति, यतिदिनचर्या, उपधानस्वरूप, प्रभातस्मरण, उपदेशकुलक, संसारोदिग्नमनोरथकुलक, कलिकुंडपार्श्वस्तवनम् आदि । हरिभद्रसूरि-बहद्गच्छीय आचार्य मानदेव के प्रशिष्य एवं आचार्य जिनदेव के शिष्य हरिभद्रसूरि चौलुक्य नरेश जयसिंह सिद्धराज के समकालीन थे। इनके द्वारा रचित ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि द्रव्यानुयोग, उपदेश, कथाचरितानुयोग आदि विषयों में संस्कृत-प्राकृत भाषा में इनकी खास विद्वत्ता और व्याख्या शक्ति विद्यमान थी। वि० सं० ११७२/ई० सन् १११६ में इन्होंने तीन ग्रन्थों की रचना को जो इस प्रकार है "बंध स्वामित्व" षटशीति कर्म ग्रन्थ के ऊपर वृत्ति; जिनवल्लभसूरि द्वारा रचित 'आगमिक वस्तुविचारसारप्रकरण" पर वृत्ति और श्रेयांसनाथचरित"। वि० सं० ११८५/ई० सन् ११२९ के पाटण में यशोनाग श्रेष्ठी के उपाश्रय में रहते हुए इन्होंने प्रशमरतिप्रकरण पर वृत्ति की रचना की। रत्नप्रभसूरि -आचार्य वादिदेवसूरि के शिष्य रत्नप्रभसूरि विशिष्ट प्रतिभाशाली, ताकिक, कवि और विद्वान् थे। इन्होंने प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार पर ५००० श्लोक प्रमाण रत्नांकरावतारिका नाम की टीका की रचना की है। इसके अलावा इन्होंने उपदेशमाला पर दोघट्टी वृत्ति [रचनाकाल १. त्रिपुटी महाराज-जैनपरम्परा नो इतिहास, भाग २, पृ० ५६० । २. परीख और शास्त्री-पूर्वोक्त भाग ४, पृ० २९४ । ३. वही। ४. वही । ५. मुनि चतुर विजय-संपा० जैन स्तोत्र सन्दोह , भाग १, पृ० ११८ । ६. परीख और शास्त्री-वही; देसाई, पूर्वोक्त पृ० २५० । ७. परीख और शास्त्री,-पूर्वोक्त पृ० ३०३-४; Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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