Book Title: Bruhad gaccha ka Sankshipta Itihas
Author(s): Shivprasad
Publisher: Z_Aspect_of_Jainology_Part_3_Pundit_Dalsukh_Malvaniya_012017.pdf

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Page 2
________________ १०६ शिव प्रसाद द्वारा रचित गुर्वावली' ( रचनाकाल वि० सं० १४६६ ई० सन् १४०९), हरिविजयसूरि के शिष्य गरसूरि द्वारा रचित तपागच्छपडावलो२ [ रचनाकाल वि० सं० १६४८/ई० सन् १५९१ ] और मुनिमाल द्वारा रचित बृहद्गच्छगुर्वावलो३ [ रचनाकाल वि० सं० १७५१/ई० सन् १६९४ ]; के अनुसार “वि० सं० ९९४ में अर्बुदगिरि के तलहटी में टेली नामक ग्राम में स्थित वटवृक्ष के नीचे सर्वदेवसूरि सहित आठ मुनियों को आचार्य पद प्रदान किया गया। इस प्रकार निर्ग्रन्थ श्वेताम्बर संघ में एक नये गच्छ का उदय हआ जो वटवक्ष के नाम को लेकर वटगच्छ के नाम से प्रसिद्ध हआ।" चूंकि वटवृक्ष के शाखाओं-प्रशाखाओं के समान इस गच्छ की भी अनेक शाखायें-प्रशाखायें हुईं, अतः इसका एक नाम बृहद्गच्छ भी पड़ा। गच्छ निर्देश सम्बन्धी धर्माण सन्निवेश के सम्बन्ध में दो दलीलें पेश की जा सकती हैं प्रथम यह कि उक्त मत एक स्वगच्छीय आचार्य द्वारा उल्लिखित है और दूसरे १५वीं शताब्दी के तपगच्छीय साक्ष्यों से लगभग दो शताब्दी प्राचीन भी है अतः उक्त मत को विशेष प्रामाणिक माना जा सकता है। जहाँ तक धर्माण सन्निवेश का प्रश्न है आबू के निकट उक्त नाम का तो नहीं बल्कि घरमाण नामक स्थान है, जो उस समय भी जैन तीर्थ के रूप में मान्य रहा। अतः यह कहा जा सकता है कि लिपि-दोष से वरमाण की जगह धर्माण हो जाना असंभव नहीं। सबसे पहले हम वडगच्छीय आचार्यों की गुर्वावली को, जो ग्रन्थ प्रशस्तियों, पट्टावलियों एवं अभिलेखों से प्राप्त होती है, एकत्र कर विद्यावंशवृक्ष बनाने का प्रयास करेंगे। इस सम्बन्ध में सर्वप्रथम हम वडगच्छ के सुप्रसिद्ध आचार्य नेमिचन्द्रसूरि द्वारा रचित आख्यानकमणिकोष (रचनाकाल ई० सन् ११वीं शती का प्रारम्भिक चरण) की उत्थानिका में उल्लिखित बृहद्गच्छोय आचार्यों की विद्यावंशावली का उल्लेख करेंगे, जो इस प्रकार है । अब हम उत्तराध्ययनसूत्र की सुखबोघा टीका' (रचनाकाल वि० सं० ११२९/ई० सन् १०७२) में उल्लिखित नेमिचन्द्रसूरि के इस वक्तव्य पर विचार करेंगे कि ग्रन्थकार ने अपने गुरुभ्राता मुनिचन्द्रसूरि के अनुरोध पर उक्त ग्रन्थ की रचना की। १. मुनि दर्शन विजय-संपा० पट्टावलीसमुच्चय, भाग १, पृ. ३४; २. वही, पृ. ५२-५३; ३. वही, भाग २, पृ. १८८; ४. प्राकृत टेक्स्ट सोसाइटी, वाराणसी द्वारा ई० सन् १९६२ में प्रकाशित. ५. देखिये-तालिका नं. १; ६. देवेन्द्रगणिश्चेमामुद्धृतवान् वृत्तिकां तद्विनेयः । गुरुसोदर्यश्रीमन्मुनिचन्द्राचार्यवचनेन ॥११॥ शोधयतु बृहदनुग्रहबुद्धि मयि संविधाय विज्ञजनः । तत्र च मिथ्यादुष्कृतमस्तु कृतमसंगतं यदिहि ॥ १२ ॥ -गांधी, लालचन्द भगवान दास-पूर्वोक्त भाग १, पृ० ११४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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