Book Title: Bramhacharya Swarup evam Sadhna
Author(s): Amarmuni
Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf

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Page 4
________________ -- यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार प्रभो! मैं अपने जीवन के सौ वर्ष पूर्ण करूँ तो अपने कानों अमिट छाप लिए बैठा है। तीर्थंकरों की जीवनियों को देखिए। से भद्दी बातें न सुनूँ। भद्र बातें ही सुनूँ। अच्छी-अच्छी और सुन्दर जब तक वे सर्वज्ञता और वीतरागता नहीं प्राप्त कर लेते, आत्मा बातें ही सुनूँ। मेरे कानों में पवित्रता का प्रवाह सर्वदा बहता रहे। के विकास की उच्चतम श्रेणी पर नहीं पहुँच जाते, उस समय कभी अभद्र संगीत, गाली अथवा कहावत कानों से न सनँ। तक जगत् के उद्धार करने के प्रपंच से दूर ही रहते हैं। और जब हमारे दार्शनिक और हमारे आचार्य इस प्रकार की भावना वे यह स्थिति प्राप्त कर लेते हैं तो कृतकृत्य और कृतार्थ होकर हमारे समक्ष रखना चाहते हैं। जगत् का उद्धार करने में लग जाते हैं। जो बात कानों के विषय में कही गई है, वही आँखों के इसलिए आचार्य प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि हम आँखों विषय में भी कही गई है। कोई भी मनष्य अपनी आँखों पर पर्दा से सौ वर्ष तक भद्र रूपों को ही देखें, सन्तों के ही दर्शन करें। जो डाल कर नहीं चल सकता। आँखें हैं तो उनके सामने संसार अभद्र रूप हैं, वे हमारी दृष्टि से ओझल ही रहें। . आएगा, फिर भी हमें उस महान् जीवन के अनुरूप विचार करना यह प्रार्थना कर आचार्य आगे चल कर कहते हैं - जो है कि जब भी कोई अभद्र हमारे सामने आए और हम देखें कि कानों से भद्र शब्द ही सुनेगा और आँखों से भद्र रूप ही देखेगा हमारे मन में विकारों का बहाव आ रहा है तो आँखें बन्द कर लें और अभद्र शब्दों और रूपों से विमुक्त होकर रहेगा, उसका या अपनी निगाह दूसरी ओर कर लें। आँखों के द्वारा अमृत भी जीवन इतना सुन्दर बन जाएगा कि वह दीर्घ आयु प्राप्त करेगा आ सकता है और जहर भी आ सकता है, किन्तु हमें तो अमृत और शतजीवी होगा। ही लेना है। संसार में बैठे हैं तो क्या हुआ, लेंगे तो अमृत ही लेंगे। तो यही कानों और आँखों का ब्रह्मचर्य है और इसी से एक वृक्ष है। उसमें फूल भी हैं और काँटें भी हैं। माली अन्दर के ब्रह्मचर्य को पार किया जा सकता है। कोई कानों और उसमें से फूल लेता है, काँटें नहीं लेता। हमें भी माली की तरह आँखों को खुला छोड़ दे, उन पर अंकुश न रखे, फिर चाहे कि संसार के फूल ही लेने हैं, उसके काँटे नहीं। संसार की अभद्रता उसमें आध्यात्मिक शक्तियाँ उत्पन्न हो जाएँ, तो यह असंभव है। हमारे लिए काँटा स्वरूप है, वह त्याज्य है। कोई चाहे कि सारा इसी कारण हमारे यहाँ नौ बाड़ों का वर्णन आया है और वह संसार अच्छा बन जाए तो मैं भी अच्छा बन जाऊँ - यह संभव वर्णन बड़े ही सुन्दर रूप में है। नहीं है। दुनिया में दो रंग सर्वदा ही रहेंगे। अतएव हमें इस बात हमारे शरीर में जीभ भी एक महत्त्वपूर्ण अंग है। मनुष्य का का ध्यान सर्वदा ही रहना चाहिए कि संसार अच्छा बने या न शरीर कदाचित ऐसा बना होता कि उसे भोजन की आवश्यकता बने. हमें तो अपने जीवन को अच्छा बना ही लेना है। यह नहीं ही न होती और यों ही कायम रह जाता तो मैं समझता हूँ. नौ सौ कि हजारों दिवालिए दिवाला निकाल रहे हैं, तो एक साहूकार निन्यानवे संघर्ष कम हो जाते। किन्तु ऐसा नहीं है। शरीर आखिर भी क्यों न दीवाला निकाल दे? हाँ, संसार के कल्याण की शरीर ही है और उसकी कछ न कछ क्षतिपर्ति करनी ही पड़ती है। कामना करो, संसार के कल्याण के लिए अपनी शक्तियों का इस दृष्टि से जीभ का काम बडा ही महत्त्वपूर्ण है। प्रयोग भी करो, मगर संसार के सुधार तक अपने जीवन के संसार में भोजन की अच्छी-बुरी बहुत सी चीजें मौजूद हैं। सुधार को मत रोको। संसार की बातें संसार पर छोड़ो और कोई भी चीज हाथ से उठाई और मुँह में डाल ली। अब वह पहले अपनी ही बात लो। आप अपना सुधार कर लेते हैं तो वह __ अच्छी है या बुरी है, इसका निर्णय कौन करे? उसकी परीक्षा संसार के सुधार का ही एक अंग है। आत्मसुधार के बिना संसार कौन करे? यह सत्य कौन प्रकट करे? यह जीभ का काम है। को सुधारने की बात करना एक प्रकार की हिमाकत है, अपने वह वस्तु की सरसता और नीरसता का और अच्छेपन बुरेपन आपको और संसार को ठगना है। जो स्वयं को नहीं सुधार का अनुभव करती है और उसे दूसरों पर प्रकट करती है। तो सकता, वह संसार को क्या सुधारेगा। जिह्वा का काम वस्तुओं की परख करना और बोलना है। किन्तु यह एक ऐसा तथ्य है जिसमें कभी विपर्यास नहीं हो आज उसका काम पेटपूर्ति करना ही बन गया है। चीज अच्छी है सकता। जैन-इतिहास के प्रत्येक पृष्ठ पर यह सत्य अपनी या नहीं, परिणाम में सुखद है या नहीं, शरीर के लिए उपयोगी है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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