Book Title: Bramhacharya Swarup evam Sadhna
Author(s): Amarmuni
Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf

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Page 7
________________ - यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्य - जैन-साधना एवं आचार बँचा करता है, वे ऊँचे जीवन की साधना को कैसे प्राप्त कर साधना के पथ पर अग्रसर हो सकेगा। इस रूप में जो जीवन को सकते हैं? अतएव जो साधना करना चाहते हैं, उन्हें खान-पान सीधा-साधा बनाएगा, उसमें पवित्रता की लहर पैदा हो जाएगी और की लोलुपता को त्याग देना चाहिए और वास्तविक आवश्यकता वह अपने जीवन को कल्याणमय बना सकेगा। तब सारी जड़ और से अधिक नहीं खाना चाहिए। जीव प्रकृति पर उसका निष्कटंक शासन स्थापित हो जाएगा। हे मनुष्य! तू खाने के लिए नहीं बना है, किन्तु खाना तेरे -ब्रह्मचर्यदर्शन से साभार लिए बना है। तुझे भोजन के लिए नहीं जीना है, जीने के लिए ब्र भोजन करना है। भोजन तेरे जीवन - विकास का साधन होना अबम्भ चरियं घोरं, पमायं दुरहिट्ठियं। चाहिए। कहीं वह जीवन-विनाश का साधन न बन जाए। नायरन्ति मुणी लोए, भेयाय यण वज्जिणो / 1 / / इस प्रकार कान और आँख के साथ-साथ जो जीभ पर / जो मुनि संयम-घातक दोषों से दूर रहते हैं, वे लोक में भी पूरी तरह अंकुश रखते हैं, वही ब्रह्मचर्य की साधना कर रहते हुए भी दुःसेव्य, प्रमादस्वरूप और भयंकर अब्रह्मचर्य का सकते हैं। जो अपनी जीभ पर अंकुश नहीं रखेगा और स्वाद- कभी सेवन नहीं करते। लोलुप होकर चटपटे मसाले आदि उत्तेजक वस्तुओं का सेवन विभूसं परिवज्जेज्जा, सरीर - परिमंडणं। करेगा, जो राजस और तामस भोजन करेगा, उसका ब्रह्मचर्य बंभचेर रओ भिक्खू, सिंगारत्थं न धारए // 2 // निश्चय ही खतरे में पड़ जाएगा। ब्रह्मचर्य-रत भिक्षु को शृंगार के लिए शरीर की शोभा और ब्रह्मचर्य की साधना जितनी उच्च और पवित्र है, उतनी ही . सजावट का कोई भी शृंगारी काम नहीं करना चाहिए। उस साधना में सावधानी की आवश्यकता है। ब्रह्मचर्य की साधना के लिए इन्द्रियनिग्रह की आवश्यकता है और मनोनिग्रह की भी जहाँ दवग्गी पउरिन्धणे वणे, समारुओ नोवसमं उवेइ। एविन्दियग्गी वि पगाम भोइणो, न बंभयारिस्स हियाय कस्सई // 3 // आवश्यकता है। ब्रह्मचर्य के साधक को फूंक-फूंक कर पैर रखना पड़ता है। यही कारण है कि हमारे यहाँ, शास्त्रकारों ने, ब्रह्मचारी के जैसे बहुत ज्यादा ईंधन वाले जंगल में पवन से उत्तेजित दावाग्नि लिए अनेक मर्यादाएँ बतलाई हैं। शास्त्र में कहा गया है - शान्त नहीं होती, उसी तरह मर्यादा से अधिक भोजन करने वाले आलओ थीजणाइण्णो, थी - कहा य मणोरमा / ब्रह्मचारी की इन्द्रियाग्नि भी शान्त नहीं होती। अधिक भोजन किसी के सथवो चेव नारीणं, तेंसिमिन्दिय - दंसणं / / लिए भी हितकर नहीं होता। वूइयं रुइयं गीअं, हास भुत्तासिआणि य / कामाणुगिद्धिप्प भवं खुदुक्खं, सव्वस्स लोगस्स सदेवगस्स। पणीअं भत्तयाण च, अइमायं पाण भोयणं / / जंकाइयं माणसियं च किंचि, तस्सन्तगं गच्छई वीयरागो।।4।। स्त्रीजनों से युक्त मकान में रहना और बहुत आवागमन देवलोक सहित समस्त संसार के शारीरिक तथा मानसिक रखना, स्त्रियों के सम्बन्ध को लेकर मनोमोहक बातें करना, स्त्री सभी प्रकार के दुःख का मूल एक मात्र काम-भोगों की वासना के साथ एक आसन पर बैठना, बहत घनिष्ठता रखना, उनके ही है। जो साधक इस सम्बन्ध में वीतराग हो जाता है. वह अंगोंपांगों की ओर देखना, उनके कूजन, रुदन और गायन को शारीरिक तथा मानसिक सभी प्रकार के दुःखों से छूट जाता है। मन लगा कर सुनना, पूर्व-भुक्त भोगोपभोगों का स्मरण किया देव दाणव गन्धव्वा, जक्ख रक्खस किन्नरा। करना। उत्तेजक आहार-पानी का सेवन करना और परिमाण से बंभयारि नमंसन्ति, दुक्करं जे करेन्ति तं / / 5 / / अधिक भोजन करना, ये सब बातें ब्रह्मचारी के लिए विष के जो मनुष्य इस प्रकार दुष्कर ब्रह्मचर्य का पालन करता है, समान हैं। और यही बात ब्रह्मचारिणी को भी समझना चाहिए। उसे देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और किन्नर आदि सभी अभिप्राय यह है कि कान, आँख जीभ तथा मन जो जितना नमस्कार करते हैं। काबू पा सकेगा, वह उतनी ही दृढ़ता के साथ ब्रह्मचर्य की - महावीरवाणी anitariamirmiranoramoandaridroidnidrordinirande 1 . Haridwaridrodustaridrinidaddiraniraniraniraram Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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