Book Title: Bramhacharya Swarup evam Sadhna
Author(s): Amarmuni
Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य : स्वरूप एवं साधना राष्ट्रसन्त उपाध्याय अमर मुनि......) ब्रह्मचर्य की प्रशंसा कौन नहीं करता? हमारे शास्त्र ब्रह्मचर्य किसी पात्र को जंग लग गई है, किसी धातु के बरतन की चमक की महिमा का गान करते हुए कहते हैं - कम हो गई है, तो चमक लाने के लिए माँजने वाला उसे घिसता है, उसे साफ करता है। तो ऐसा करके वह कोई नई चमक उसमें देवदाणवगंधव्वा, जक्खरवखसकिन्नरा। वंभयारि नमसंति, दुक्करं जे करेन्ति तं॥ पैदा नहीं करता है। उस बरतन में जो चमक विद्यमान है और जो जो महान् पुरुष दुष्कर ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, समस्त बाह्य वातावरण से दब गई या छिप गई है, उसे प्रकट कर देना ही दैवी शक्तियाँ उनके चरणों में सिर झुका कर खड़ी हो जाती है। माँजने वाले का काम है। सोना, कीचड़ में गिर गया है और देव, दानव, गंधर्व, यक्ष, राक्षस और किन्नर ब्रह्मचारी के चरणों उसकी चमक छिप गई है। उसे साफ करने वाला सोने में कोई में लोटते हैं। नई चमक बाहर से नहीं डाल रहा है, सोने को सोना नहीं बना रहा है, सोना तो वह हर हालत में है ही। जब कीचड़ में नहीं पड़ा परन्तु हमें यह जानना है कि ब्रह्मचर्य कैसे प्राप्त किया था, तब भी सोना था और जब कीचड़ से लथपथ हो गया, तब जाता है और किस प्रकार उसकी रक्षा हो सकती है? भी सोना ही है और जब साफ कर लिया गया, तब भी सोने का इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए एक बात पहले समझ सोना ही है। उसमें चमक पहले भी थी और बाद में भी है। बीच लेनी चाहिए। वह यह है कि ब्रह्मचर्य का भाव बाहर से नहीं में, जब वह कीचड़ में लथपथ हो गया, तो उसकी चमक दब लाया जाता है। वह तो अन्तर में ही है, किन्तु विकारों ने उसे दबा गई थी। माँजने वाले ने बाहर से लगी हुई कीचड़ को साफ कर रक्खा है। दिया, आए हुए विकार को हटा दिया तो सोना अपने असली जैन-धर्म ने यही कहा है कि बाह्य में ऐसी कोई भी नई रूप में आ गया। चीज नहीं है, जो इस पिण्ड में न हो। केवल ज्ञान और केवल आत्मा के जो अनन्त गुण हैं, उनके विषय में भी जैन-धर्म दर्शन की जो महान् ज्योति मिलती है, उसके विषय में कहने को की यही धारणा है। जैन-धर्म कहता है कि गुण बाहर से नहीं तो कहते हैं कि वह अमुक दिन और अमुक समय मिल गई, आते हैं, वे अन्दर ही रहते हैं। परन्तु आत्मिक विकार उनकी कोई नवीन चीज नहीं मिलती है। हम केवल चमक को दबा देते हैं। साधक का यही काम है कि वह उन ज्ञान, केवल दर्शन और दूसरी आध्यात्मिक शक्तियों के लिए विकारों को हटा दे। विकार हट जाएँगे तो आत्मा के गुण अपनी आविर्भाव शब्द का प्रयोग करते हैं। वस्तुत: केवल ज्ञान आदि असली आभा को लेकर चमकने लगेंगे। शक्तियाँ उत्पन्न नहीं होती हैं, आविर्भूत होती हैं। उत्पन्न होने का हिंसामय विकार को साफ करेंगे तो अहिंसा चमकने लगेगी। अर्थ नई चीज का बनना है, और आविर्भाव का अर्थ है - असत्य का सफाया करेंगे तो सत्य चमकने लगेगा। इसी प्रकार विद्यमान वस्तु का, आवरण हटने पर सामने आ जाना। स्तेय-विकार को हटाने पर अस्तेय और विषय-वासना को दूर जैनधर्म प्रत्येक शक्ति के लिए आविर्भाव शब्द का प्रयोग करने पर संयम की ज्योति हमें नजर आने लगती है। जब क्रोध करता है, क्योंकि किसी वस्तु में कोई भी अभूतपूर्व शक्ति को दूर किया जाता है तो क्षमा प्रकट हो जाती है और लोभ को उत्पन्न नहीं होती है। हटाया जाता है तो सन्तोष गुण प्रकट हो जाता है। अभिमान को तो आत्मा की जो शक्तियाँ हैं, वे अन्तर में विद्यमान हैं दूर करना हमारा काम है, किन्तु नम्रता पैदा करने का कोई काम किन्तु वासनाओं के कारण दबी रहती हैं। हमारा काम उन नहीं। वह तो आत्मा में मौजूद ही है। इसी प्रकार माया को हटाने वासनाओं को दूर करना है। इसी को साधना कहते हैं। जैसे के लिए हमें साधना करनी है, सरलता को उत्पन्न करने के लिए Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार किसी प्रयास की आवश्यकता नहीं है। सरलता तो आत्मा का ऐसी कुभावना से क्या लाभ। स्वभाव ही है। माया के हटते ही वह उसी प्रकार प्रकट हो प्रत्येक वासना हिंसा है. ज्वाला है और वह आत्मा को जाएगी, जैसे कीचड़ धुलते ही सोने में चमक आ जाती है। जलाती है। अपने विकारों द्वारा हम तो नष्ट हो ही जाते हैं; फिर जैन-धर्म में आध्यात्मिक दृष्टि से गुणस्थान का बड़ा ही दूसरों को हानि पहुँचे या न पहुँचे। वातावरण अनुकूल मिल सुन्दर और सूक्ष्म विवेचन किया गया है। एक-एक गुणस्थान, गया तो दूसरों को हानि पहुँचा दी और न मिला तो हानि न पहँचा उस महान् प्रकाश की ओर जाने का सोपान है । किन्तु उन सके। किन्तु अपनी हानि तो हो ही गई। दूसरों की परिस्थितियाँ गुणस्थानों को पैदा करने की कोई बात नहीं बतलाई है। यही और दूसरों का भाग्य हमारे हाथ में नहीं है। अगर वह अच्छा है बताया है कि अमुक विकार को दूर किया तो अमुक गुणस्थान तो उन्हें हानि कैसे पहुँच सकती है? उन्हें कैसे जलाया जा सकता आ गया। मिथ्यात्व को दूर किया तो सम्यक्त्व की भूमिका पर है? परन्तु दूसरे को जलाने का विचार करने वाला स्वयं को आ गए और अविरति को हटाया तो पाँचवे-छठे गुणस्थान को जरूर जला लेता है। प्राप्त कर लिया। इसी प्रकार ज्यों-ज्यों विकार दूर होते जाते हैं, इस कारण हमारा ध्येय अपने विकारों को दूर करना है। गुणस्थान की उच्चतर श्रेणी प्राप्त होती जाती है। प्रत्येक विकार हिंसा रूप है और यह नहीं भूलना चाहिए कि सम्यग्दर्शन, ज्ञान, विरक्ति आदि आत्मा के मूलभाव हैं। बाहर चाहे हिंसा हो या न हो, पर विकार आने पर अन्तर में हिंसा ये मूल भाव जब आते हैं तो कोई बाहर से खींच कर नहीं लाए हो ही जाती है। अतएव साधक का दृष्टिकोण यही होना चाहिए जाते। उन्हें तो सिर्फ प्रकट किया जाता है। हमारे घर में जो कि वह अपने विकारों से निरन्तर लड़ता रहे और उन्हें परास्त खजाना गढ़ा हुआ है, उसे खोद लेना मात्र हमारा काम है; उस पर करता चला जाए। लदी हुई मिट्टी को हटाने की ही आवश्यकता है। मिट्टी हटाई विकारों को परास्त किया कि ब्रह्मचर्य हमारे सामने आ और खजाना हाथ लग गया। विकार को दूर किया और आत्मा गया। इस विवेचना से एक बात और समझ में आ जानी चाहिए का मूल भाव हाथ आ गया। कि ब्रह्मचर्य की साधना के लिए आवश्यक है कि हम दूसरी इस प्रकार जैन-धर्म की महान् साधना का एकमात्र उद्देश्य इन्द्रियों पर भी संयम रखें, अपने मन को भी काबू में रखें। विकारों से लड़ना और उन्हें दूर करना ही है। आप ब्रह्मचर्य की साधना तो ग्रहण कर लें, किन्तु आँखों विकार किस प्रकार दूर किए जा सकते हैं, इस सम्बन्ध में पर अंकुश न रखें और बुरे से बुरे दृश्य देखा करें तो क्या लाभ? भी जैन-धर्म ने निरूपण किया है। आचार्यों ने कहा है कि यदि आँखों में जहर भरता रहे और संसार में रंगीन दृश्यों का मजा अहिंसा के भाव समझ में आ जाते हैं तो दूसरे भाव भी समझ में बाहर से तो लिया जाता रहे और ब्रह्मचर्य को सुरक्षित रखने का आ जायेंगे। इसके लिए कहा गया है कि बाहर चाहे हिंसा हो मंसूबा भी किया जाय यह असंभव है। अथवा न हो, हिंसा का भाव आने पर अन्तर में हिंसा हो ही इस कारण भगवान महावीर का मार्ग कहता है कि ब्रह्मचर्य जाती है। इसी प्रकार जो असत्य बोलता है, वह आत्महिसा की साधना के लिए समस्त इन्द्रियों पर अंकुश रखना चाहिए। करता है और जब चोरी करता है तो अपनी चोरी तो कर ही लेता हम अपने कानों को इतना पवित्र बनाए रखने का प्रयत्न करें कि है। इस रूप में मनुष्य जब वासना का शिकार होता है तो अन्तर जहाँ गाली-गलौज़ का वातावरण हो और बरे शब्द सनने को में भी और बाहर भी हिंसा हो जाती है। कोई विकार, चाहे बाहर मिल रहे हों, वहाँ हमें सावधान रहना चाहिए अथवा उस वातावरण हिसा न करे, किन्तु अन्तर मे हिसा अवश्य करता है। दियासलाई से अलग रहना चाहिए। यदि शक्ति है तो उस वातावरण को जब रगडी जाती है, तो वह पहले तो अपने आपको ही जला बदल दें और यदि शक्ति नहीं है तो उससे अलग रहना ही देती है, और जब वह दूसरों को जलाने जाती है तो सम्भव है कि श्रेयस्कर है। हमें कानों के द्वारा कोई भी विकारोत्तेजक शब्द मन बीच में ही बुझ जाए और दूसरों को न जलाने पाए। मगर दूसरा में प्रवेश नहीं होने देने चाहिए। को जलाने के लिए पहले स्वयं को तो जलाना पड़ता ही है। तो Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -चतीन्द्र सूरि मारकग्रन्थ -- जैन-साधना एवं आचार जब गन्दे शब्द मन में प्रवेश पा जाते हैं तो वहाँ वे जड़ भी की है? उनकी साधनाओं ने अगर कोई आध्यात्मिक चेतना जमा सकते हैं। वे मन के किसी भी कोने में जम सकते हैं और उत्पन्न की, तो वह कहाँ गायब हो जाती है? इससे तो यही धीरे-धीरे पनप भी सकते हैं, क्योंकि मन जल्दी भूलता नहीं है निष्कर्ष निकलता है कि उनकी वर्षों की साधनाएँ ऊपर-ऊपर और जो शब्द उसके भीतर गूंजते रहते हैं, अवसर पाकर अनजाने की हैं, वे आईं और तैर गईं, उन्होंने जीवन को कोई संस्कार नहीं में ही वे जीवन को आक्रान्त कर देते हैं। अतएव ब्रह्मचर्य के दिया। यह निष्कर्ष भले ही कटु है, पर मिथ्या नहीं है, साथ ही साधक को अपने कान पवित्र रखने चाहिए। वह जब भी सुने, हमारी आँखें खोल देने वाला भी है। पवित्र बात ही सुने और जब कभी प्रसंग आए तो पवित्र बात ही यह समझना गलत है कि वे भद्दे गीत क्षणिक और मन सनने को तैयार रहे । गन्दी बातों का डटकर विरोध करना चाहिए- की तरंग मात्र है। जलाशय में जल की तरंग उठती है. पर तभी मन के भीतर भी और समाज के प्रांगण में भी। घरों में गाये जाने उठती है. जब उसमें जल जमा होता है। जहाँ जल ही न होगा. वाले गन्दे गीत तुरन्त ही बंद कर देने की आवश्यकता है। वहाँ जलतरंग नहीं उठेगी। इसी प्रकार जिस मन में अपवित्रता मुझे मालूम हुआ है कि विवाह-शादियों के अवसर पर और गंदगी के कुसंस्कार न होंगे, उस मन में अपवित्र गीत गाने बहत सी बहिनें गन्दे गीत गाती हैं। जहाँ विवाह का पवित्र वातावरण की तरंग भी नहीं उठनी चाहिए। अतएव यही अनुमान किया जा है, आदर्श है, और जब दो साथी अपने गृहस्थ-जीवन का सकता है कि मन में विकार जमे बैठे थे, प्रसंग आया तो बाहर मंगलाचरण करते हैं, उस अवसर पर गन्दे गीत उस पवित्र वातावरण निकल आए। को कलुषित करते हैं और मन में दुर्भाव उत्पन्न करते हैं। बहुत से लोग बात-बात में गालियाँ बकते हैं। उनकी जिस समाज में इस प्रकार का गन्दा वातावरण है. बरे गालियाँ उनकी असंस्कारिता और फूहड़पन को सचित करती विचार हैं और कलुषित भावनाएँ सहसा पैदा हो जाती हैं, उस हैं, परन्तु यहीं उनके दुष्परिणाम का अन्त नहीं हो जाता है। समाज की उदीयमान प्रजा किस प्रकार सुसंस्कारों और उज्ज्वल उनकी गालियाँ समाज में कलुषित वायुमंडल का निर्माण करती चरित्र वाली बन सकेगी? जो समाज अपने बालकों और हैं। उनकी देखादेखी छोटे-छोटे बच्चे भी गालियाँ बोलना सीख बालिकाओं के हृदय में, कानों द्वारा जहर उँड़ेलता रहता है, उस जाते हैं। जिन फूलों को खिलोने पर सुगन्ध देनी चाहिए, उनसे समाज में पवित्र चारित्र और सत्त्वगणी व्यक्तियों का परिपक्व जब हम अभद्र शब्दों और गालियों की बदबू निकलती देखते हैं, तो दिल मसोस कर रह जाना पड़ता है। मगर बालकों की उन होना कितना कठिन है। गालियों के पीछे वे बड़े हैं, जो विचारहीनता के कारण अपशब्दों ___आश्चर्य होता है जिन्होंने प्रतिदिन, वर्षों तक, सामयिक का प्रयोग करते रहते हैं। की, आगामों का प्रवचन सुना, वीतराग प्रभु और महान् आचार्यों जिस समाज में इस प्रकार की विचारधारा बह रही हो, उस की वाणी सुनी और सन्तों की संगति और उपासना की, उनके समाज की अगली पीढ़ियाँ देवता का रूप लेकर नहीं आने मुख से किस प्रकार अश्लील और गन्दे गाने निकलते हैं? शिष्ट वाली हैं। अगर आपके जीवन में से राक्षसी वृत्तियाँ नहीं निकली और कुलीन परिवार किस हद तक इन गीतों को बर्दाश्त करते हैं तो आपकी सन्तान में दैवी वृत्तियों का विकास किस प्रकार हो हैं? और कोई भी शीलवान् व्यक्ति कैसे ऐसे गीतों को सुनता है? सकता है? देवता की सन्तान देवता बनेगी, राक्षसों की सन्तान अश्लील गीत समाज के होनहार कुमारों और कुमारिओं देवता नहीं बन सकती। के हृदय में वासना की आग भड़काने वाले हैं, कुलीनता और . ये बातें छोटी मालूम होती हैं परन्तु छोटी-छोटी बातें भी शिष्टता के लिए चुनौती हैं और समग्र वायुमंडल को विषमय समय पर बड़ा भारी असर पैदा करती हैं। एक प्राचीन दार्शनिक बनाने वाले हैं। आचार्य ने परमात्मा से बड़ी सुन्दर याचना करते हुए कहा है - मैं नहीं समझ पाता कि जो पुरुष और नारियाँ ऐसे अवसर भद्रं कर्णाभ्याम, शृणुयाम: शरदः शतम् । पर इतनी नीचाई पर पहुँच जाते हैं, उन्होंने वर्षों की साधना क्यों भद्रमक्षिण्यपि पश्यामः शरदः शतम् ॥ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार प्रभो! मैं अपने जीवन के सौ वर्ष पूर्ण करूँ तो अपने कानों अमिट छाप लिए बैठा है। तीर्थंकरों की जीवनियों को देखिए। से भद्दी बातें न सुनूँ। भद्र बातें ही सुनूँ। अच्छी-अच्छी और सुन्दर जब तक वे सर्वज्ञता और वीतरागता नहीं प्राप्त कर लेते, आत्मा बातें ही सुनूँ। मेरे कानों में पवित्रता का प्रवाह सर्वदा बहता रहे। के विकास की उच्चतम श्रेणी पर नहीं पहुँच जाते, उस समय कभी अभद्र संगीत, गाली अथवा कहावत कानों से न सनँ। तक जगत् के उद्धार करने के प्रपंच से दूर ही रहते हैं। और जब हमारे दार्शनिक और हमारे आचार्य इस प्रकार की भावना वे यह स्थिति प्राप्त कर लेते हैं तो कृतकृत्य और कृतार्थ होकर हमारे समक्ष रखना चाहते हैं। जगत् का उद्धार करने में लग जाते हैं। जो बात कानों के विषय में कही गई है, वही आँखों के इसलिए आचार्य प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि हम आँखों विषय में भी कही गई है। कोई भी मनष्य अपनी आँखों पर पर्दा से सौ वर्ष तक भद्र रूपों को ही देखें, सन्तों के ही दर्शन करें। जो डाल कर नहीं चल सकता। आँखें हैं तो उनके सामने संसार अभद्र रूप हैं, वे हमारी दृष्टि से ओझल ही रहें। . आएगा, फिर भी हमें उस महान् जीवन के अनुरूप विचार करना यह प्रार्थना कर आचार्य आगे चल कर कहते हैं - जो है कि जब भी कोई अभद्र हमारे सामने आए और हम देखें कि कानों से भद्र शब्द ही सुनेगा और आँखों से भद्र रूप ही देखेगा हमारे मन में विकारों का बहाव आ रहा है तो आँखें बन्द कर लें और अभद्र शब्दों और रूपों से विमुक्त होकर रहेगा, उसका या अपनी निगाह दूसरी ओर कर लें। आँखों के द्वारा अमृत भी जीवन इतना सुन्दर बन जाएगा कि वह दीर्घ आयु प्राप्त करेगा आ सकता है और जहर भी आ सकता है, किन्तु हमें तो अमृत और शतजीवी होगा। ही लेना है। संसार में बैठे हैं तो क्या हुआ, लेंगे तो अमृत ही लेंगे। तो यही कानों और आँखों का ब्रह्मचर्य है और इसी से एक वृक्ष है। उसमें फूल भी हैं और काँटें भी हैं। माली अन्दर के ब्रह्मचर्य को पार किया जा सकता है। कोई कानों और उसमें से फूल लेता है, काँटें नहीं लेता। हमें भी माली की तरह आँखों को खुला छोड़ दे, उन पर अंकुश न रखे, फिर चाहे कि संसार के फूल ही लेने हैं, उसके काँटे नहीं। संसार की अभद्रता उसमें आध्यात्मिक शक्तियाँ उत्पन्न हो जाएँ, तो यह असंभव है। हमारे लिए काँटा स्वरूप है, वह त्याज्य है। कोई चाहे कि सारा इसी कारण हमारे यहाँ नौ बाड़ों का वर्णन आया है और वह संसार अच्छा बन जाए तो मैं भी अच्छा बन जाऊँ - यह संभव वर्णन बड़े ही सुन्दर रूप में है। नहीं है। दुनिया में दो रंग सर्वदा ही रहेंगे। अतएव हमें इस बात हमारे शरीर में जीभ भी एक महत्त्वपूर्ण अंग है। मनुष्य का का ध्यान सर्वदा ही रहना चाहिए कि संसार अच्छा बने या न शरीर कदाचित ऐसा बना होता कि उसे भोजन की आवश्यकता बने. हमें तो अपने जीवन को अच्छा बना ही लेना है। यह नहीं ही न होती और यों ही कायम रह जाता तो मैं समझता हूँ. नौ सौ कि हजारों दिवालिए दिवाला निकाल रहे हैं, तो एक साहूकार निन्यानवे संघर्ष कम हो जाते। किन्तु ऐसा नहीं है। शरीर आखिर भी क्यों न दीवाला निकाल दे? हाँ, संसार के कल्याण की शरीर ही है और उसकी कछ न कछ क्षतिपर्ति करनी ही पड़ती है। कामना करो, संसार के कल्याण के लिए अपनी शक्तियों का इस दृष्टि से जीभ का काम बडा ही महत्त्वपूर्ण है। प्रयोग भी करो, मगर संसार के सुधार तक अपने जीवन के संसार में भोजन की अच्छी-बुरी बहुत सी चीजें मौजूद हैं। सुधार को मत रोको। संसार की बातें संसार पर छोड़ो और कोई भी चीज हाथ से उठाई और मुँह में डाल ली। अब वह पहले अपनी ही बात लो। आप अपना सुधार कर लेते हैं तो वह __ अच्छी है या बुरी है, इसका निर्णय कौन करे? उसकी परीक्षा संसार के सुधार का ही एक अंग है। आत्मसुधार के बिना संसार कौन करे? यह सत्य कौन प्रकट करे? यह जीभ का काम है। को सुधारने की बात करना एक प्रकार की हिमाकत है, अपने वह वस्तु की सरसता और नीरसता का और अच्छेपन बुरेपन आपको और संसार को ठगना है। जो स्वयं को नहीं सुधार का अनुभव करती है और उसे दूसरों पर प्रकट करती है। तो सकता, वह संसार को क्या सुधारेगा। जिह्वा का काम वस्तुओं की परख करना और बोलना है। किन्तु यह एक ऐसा तथ्य है जिसमें कभी विपर्यास नहीं हो आज उसका काम पेटपूर्ति करना ही बन गया है। चीज अच्छी है सकता। जैन-इतिहास के प्रत्येक पृष्ठ पर यह सत्य अपनी या नहीं, परिणाम में सुखद है या नहीं, शरीर के लिए उपयोगी है Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार - या अनुपयोगी, जीवन को बनाने वाली है या बिगाड़ने वाली, लड़ाइयाँ मची रहती हैं, संघर्ष होते हुए देखे जाते हैं। इसका कोई विचार नहीं। बस, जीभ को अच्छी लगनी चाहिए। यह स्थिति देखकर विचार होता है कि साठ-सत्तर वर्ष की जीभ को जो अच्छा लगा, सो गटक लिया। इस प्रकार खाने की । | जिन्दगी में मनुष्य ने क्या सीखा है? कभी-कभी पुराने सन्तों को न कोई सीमा रही है, न मर्यादा रही है। भी हम जिह्वाशवर्ती देखते हैं? आहार आया और उनके सामने खाने के लिए जीना, धर्म का लक्षण नहीं है। खाने का रख दिया। वे कहते हैं - क्या लाए? कुछ भी तो नहीं लाए। अर्थ है - शरीर की क्षति और दुर्बलता की पूर्ति करना और बुढ़ापे में भी जिसकी यह वृत्ति हो, उसने जीवन के बहुमूल्य जीवन-निर्माण के लिए आवश्यक शारीरिक शक्ति प्राप्त करना। सत्तर वर्ष व्यतीत करने के बाद भी क्या पाया है? रोटी आई है, जहाँ यह दृष्टि है, वहाँ ब्रह्मचर्य की शुद्धि रहती है। जहाँ यह दृष्टि दाल-शाक आया है, फिर भी कहते हैं -कुछ नहीं आया। इसका नहीं रहती, वहाँ जीभ निरंकुश होकर रहती है, मिर्च-मसालों की अर्थ यह है कि पेट के लिए तो सब कुछ आया है, पर जीभ के ओर लपकती है। इसीलिए कभी-कभी सीमा से अधिक खा लिए कुछ नहीं आया। लिया जाता है। ऐसा करने से शरीर का रक्त खौलने लगता है तो इस चार अंगल की जीभ पर नियंत्रण न कर सकने के और शरीर में गर्मी आ जाती है। शरीर में गर्मी आ जाने पर मन में मनम कारण ही कभी-कभी मुसीबत का सामना करना पड़ता है। भी गर्मी आ जाती है। मन में गर्मी आ जाती है तो साधक भान जीभमान में विचार करते है तो बात यांटा भूल जाता है और जब भान भूल जाता है तो दुनिया भर की जाती है। चीजें खाने को तैयार हो जाता है। समर्थ गुरु रामदास वैष्णव सन्त थे। उन्होंने एक जगह आज का चौका देखो तो मालूम होता है कि घर के लोग चौमासा किया। आप जानते हैं कि जहाँ नामी गरु आते हैं, वहाँ खाने के सिवाय और कुछ भी नहीं जानते हैं। दुनिया भर का भक्त भी पहँच ही जाते हैं। एक यवक व्यापारी था और अच्छे अगड़म-बगड़म वहाँ मौजूद रहता है। ऐसे मौके भी देखने में घर का लड़का था। वह और उसकी पत्नी रामदासजी के भक्त आए हैं कि यदि सन्त वहाँ पहुँच गए और आग्रह स्वीकार कर हो गए और उनकी आध्यात्मिक बातें सनने लगे। इधर आध्यात्मिक लिया तो उन चीजों को लेने-देने में आधा घण्टा लग गया। बातें सनते थे और उधर यह हाल था कि खाने के लिए रोज अभिप्राय यह है कि मनुष्य ने स्वाद के लिए अनेक- लड़ाई होती थी। किसी दिन रोटी सख्त हो गई तो कहा - 'रोटी अनेक आविष्कार कर लिए हैं। भोजन के भाँति-भाँति के रूप क्या है, पत्थर है।' और जरा नरम रह गई तो बोले - 'आज तो तैयार कर लिए हैं। यह पेट के लिए नहीं, जीभ के लिए, स्वाद कच्चा आटा ही घोल कर रख दिया है।' के लिए तैयार किए हैं। यह चार अंगुल का मांस का जो टुकड़ा इस प्रकार पति-पत्नी में प्रतिदिन संघर्ष मचा रहता। तो (जीभ) है. उसका फैसला ही नहीं हो पाता। नाना प्रयत्न करने एक दिन उस यवक ने कहा - इससे तो साध बन जाना ही के पश्चात् भी जीभ तृप्त नहीं हो पाती। जीभ की आराधना के अच्छा । लिए मनुष्य जितना पचता है और प्रयत्न करता है, उसका आधा युवक ने जब ऐसी बात कही तो उसकी पत्नी डर गई। प्रयत्न भी अगर वह परमात्मा की आराधना के लिए करे तो उसे ख्याल आया, कहीं सचमुच ही यह साधु न बन जाए। उसका कल्याण हो जाए। मगर इतना प्रयत्न करने पर भी वह कहाँ सन्तुष्ट होता है। वह तो जब देखो तब लार टपकाती रहती किन्तु भोजन के प्रश्न पर उन दोनों में एक दिन कहा-सुनी है, अतृप्त ही बनी रहती है। मनुष्य मांस के इस टुकड़े के पीछे ही गई। युवक ने क्रोध में आकर थाली को ऐसी ठोकर अपनी सारी जिन्दगी को बर्बाद कर देता है। लगाई कि रोटी कहीं और दाल कहीं जाकर गिरी । फिर वह बचपन के दिन निकल जाते हैं, जवानी भी आकर चली। है बोला - बस, भोग चुके गृहस्थी का सुख। हाथ जोड़े इस घर को। अब तो साधु ही बन जाना है। जाती है और बुढ़ापे के दिन आ जाते हैं, तब भी बचपन की । वृत्तियों से छुटकारा नहीं मिलता है। बुढ़ापे में भी खाने के लिए इस प्रकार कहकर वह घर से निकला और सीधा बाजार rokarowarobridroiwomeoromitrowonoranooniramiroinin८Fairadariwariwarowbordarordindiadridwardwordar Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतीन्द्र सूरिस्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार -- का रास्ता नाप कर हलवाई की दुकान पर पहुँचा। वहाँ उसने है। आज आहार नहीं लाना है, व्रत रखेंगे। पेट भर खाना खा लिया। मगर स्त्री के लिए यह समस्या कितनी गुरु का उत्तर सुन कर युवक विचार में पड़ गया। फिर कठिन थी? युवक ने तो अपना पेट भर लिया, मगर स्त्री बेचारी उसने कहा - गृहस्थ धर्म से मैं ऊब गया, महाराज। अब मैं क्या करती? वह उसके बिना खाना कैसे खाती? उसे भूखा साधु-धर्म का पालना करना चाहता हूँ। आज्ञा दो महाराज। रहकर ही दिन गुजारना पड़ा। गुरु बोले - मिल जाएगी आज्ञा। । दूसरी बार फिर इसी प्रकार की घटना घटी। संयोगवश समर्थ गुरु रामदास भी वहाँ पहुँच गए। उन्हें देख कर स्त्री ने मगर युवक के लिए तो एक-एक पल, पहर की तरह कट सोचा - कहीं इन्हीं के पास न मड जाएँ और वह जोर-जोर से रहा था। उसने कहा - गुरुदेव, भूख के मारे मेरी तो आतं रोने लगी। कुलबुला रही हैं। गरु विचार में पड़ गए। स्त्री फफक-फफक कर रो रही गुरु - अच्छा, नीम के पत्ते संत लाओ और उन्हें पीसकर थी और जब उन्होंने रोने का कारण पूछा तो वह और ज्यादा रोने गाल बना ली। लेगी। गुरु ने कहा - आखिर बात क्या है? घर में तुम दो प्राणी उसने ऐसा ही किया। नीम के पत्ते पीस कर गोले बना हो और वर्षों से साथ-साथ रह रहे हो। फिर भी दृष्टिकोण में मेल लिये। नहीं बैठा सके। फिर वह सोचने लगा- यह खाने की चीज नहीं है, किन्तु तब स्त्री ने कहा - इनको मेरे हाथ का बना खाना अच्छा गुरु जादूगर हैं तो उनके प्रभाव से यह गोले मीठे बन जाएँगे। नहीं लगता है और कहते हैं कि साधु बन जायेंगे। गोले तैयार हो गए देख गुरु ने कहा - अब तुम्हें जितना गुरु ने यह बात सुनी तो कहा - तुम्हें यह डर है तो उसे खाना हो सो खा लो। निकाल दो, क्योंकि मियाँ की दौड़ मस्जिद तक ही है। साध युवक ने ज्योंही एक गोला मुँह में डाला तो वह जहर था। बनने के लिए आएगा तो मेरे पास ही। मैं देख लूँगा कि वह कैसा उसे वमन हो गया। जब वमन हो गया तो गुरु ने कहा - दूसरा साधु बनने वाला है। तुझे धमकी दे तो तू कह देना कि साधु उठाकर खाओ। और फिर वमन किया तो इस डंडे को देख बनना है तो बन क्यों नहीं जाते। इतना कहकर गुरु लौट गए। रखो। यहाँ तो रोज यही खाने को मिलेगा। ___ एक दिन जब फिर वैसा ही प्रसंग आया, तो युवक ने युवक ने कहा - महाराज, इसे आदामी तो नहीं खा सकता। कहा - अच्छा तो मैं साधु बन जाऊँगा। स्त्री ने कह दिया - रोज-रोज साधु बनने का डर दिखलाने तब समर्थ रामदास ने एक लड्डू उठाया और झटपट खा से क्या लाभ है? आपको साधु बनने में ही सुख मिलता हो तो आप साधु बन जाइए। मुझे जीवन चलाना है तो किसी तरह युवक - आप तो खा गये, पर मुझसे तो नहीं खाया जा। चला लूँगी। गुरु -तेरी वाणी पर साधुपन आया है, अन्दर नहीं आया। - युवक ने भी भड़क कर कहा- अच्छा, यह बात है। तो अरे मूर्ख, उस लड़की को क्यों तंग किया करता है? साधु बनने अब जरूर साधु बन जाऊंगा। का ढोंग क्यों करता है? साधु बनकर भी क्या करेगा? साधु बन गया और बाद में गड़बड की तो ठीक नहीं होगा। यह कह कर वह घर से निकल पड़ा। मन में सोचा - साधु ही बनना है। और वह समर्थ रामदास के पास जाकर बैठ अब युवक की अक्ल ठिकाने आई। वह घर लौट आया। गया। बहुत देर तक बैठा रहा। बातचीत करने के बाद उसने गुरु फिर उसने यह देखना बन्द कर दिया कि रोटी सख्त है, या नरम से कहा - आज आहार लेने नहीं पधारे? है. कच्ची है या पक्की है, चुपचाप शान्त भाव से वह लगा। गुरु ने कहा - आज चेला आया है, इस कारण हमें प्रसन्नता जिनके घर में खाने-पीने के लिए ही महाभारत का अध्याय androidroraniwandraridrorditor-ordinatorrord-6-९ idroridororanirbrowdnironiriranditaniudwidwidhwar लिया। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्य - जैन-साधना एवं आचार बँचा करता है, वे ऊँचे जीवन की साधना को कैसे प्राप्त कर साधना के पथ पर अग्रसर हो सकेगा। इस रूप में जो जीवन को सकते हैं? अतएव जो साधना करना चाहते हैं, उन्हें खान-पान सीधा-साधा बनाएगा, उसमें पवित्रता की लहर पैदा हो जाएगी और की लोलुपता को त्याग देना चाहिए और वास्तविक आवश्यकता वह अपने जीवन को कल्याणमय बना सकेगा। तब सारी जड़ और से अधिक नहीं खाना चाहिए। जीव प्रकृति पर उसका निष्कटंक शासन स्थापित हो जाएगा। हे मनुष्य! तू खाने के लिए नहीं बना है, किन्तु खाना तेरे -ब्रह्मचर्यदर्शन से साभार लिए बना है। तुझे भोजन के लिए नहीं जीना है, जीने के लिए ब्र भोजन करना है। भोजन तेरे जीवन - विकास का साधन होना अबम्भ चरियं घोरं, पमायं दुरहिट्ठियं। चाहिए। कहीं वह जीवन-विनाश का साधन न बन जाए। नायरन्ति मुणी लोए, भेयाय यण वज्जिणो / 1 / / इस प्रकार कान और आँख के साथ-साथ जो जीभ पर / जो मुनि संयम-घातक दोषों से दूर रहते हैं, वे लोक में भी पूरी तरह अंकुश रखते हैं, वही ब्रह्मचर्य की साधना कर रहते हुए भी दुःसेव्य, प्रमादस्वरूप और भयंकर अब्रह्मचर्य का सकते हैं। जो अपनी जीभ पर अंकुश नहीं रखेगा और स्वाद- कभी सेवन नहीं करते। लोलुप होकर चटपटे मसाले आदि उत्तेजक वस्तुओं का सेवन विभूसं परिवज्जेज्जा, सरीर - परिमंडणं। करेगा, जो राजस और तामस भोजन करेगा, उसका ब्रह्मचर्य बंभचेर रओ भिक्खू, सिंगारत्थं न धारए // 2 // निश्चय ही खतरे में पड़ जाएगा। ब्रह्मचर्य-रत भिक्षु को शृंगार के लिए शरीर की शोभा और ब्रह्मचर्य की साधना जितनी उच्च और पवित्र है, उतनी ही . सजावट का कोई भी शृंगारी काम नहीं करना चाहिए। उस साधना में सावधानी की आवश्यकता है। ब्रह्मचर्य की साधना के लिए इन्द्रियनिग्रह की आवश्यकता है और मनोनिग्रह की भी जहाँ दवग्गी पउरिन्धणे वणे, समारुओ नोवसमं उवेइ। एविन्दियग्गी वि पगाम भोइणो, न बंभयारिस्स हियाय कस्सई // 3 // आवश्यकता है। ब्रह्मचर्य के साधक को फूंक-फूंक कर पैर रखना पड़ता है। यही कारण है कि हमारे यहाँ, शास्त्रकारों ने, ब्रह्मचारी के जैसे बहुत ज्यादा ईंधन वाले जंगल में पवन से उत्तेजित दावाग्नि लिए अनेक मर्यादाएँ बतलाई हैं। शास्त्र में कहा गया है - शान्त नहीं होती, उसी तरह मर्यादा से अधिक भोजन करने वाले आलओ थीजणाइण्णो, थी - कहा य मणोरमा / ब्रह्मचारी की इन्द्रियाग्नि भी शान्त नहीं होती। अधिक भोजन किसी के सथवो चेव नारीणं, तेंसिमिन्दिय - दंसणं / / लिए भी हितकर नहीं होता। वूइयं रुइयं गीअं, हास भुत्तासिआणि य / कामाणुगिद्धिप्प भवं खुदुक्खं, सव्वस्स लोगस्स सदेवगस्स। पणीअं भत्तयाण च, अइमायं पाण भोयणं / / जंकाइयं माणसियं च किंचि, तस्सन्तगं गच्छई वीयरागो।।4।। स्त्रीजनों से युक्त मकान में रहना और बहुत आवागमन देवलोक सहित समस्त संसार के शारीरिक तथा मानसिक रखना, स्त्रियों के सम्बन्ध को लेकर मनोमोहक बातें करना, स्त्री सभी प्रकार के दुःख का मूल एक मात्र काम-भोगों की वासना के साथ एक आसन पर बैठना, बहत घनिष्ठता रखना, उनके ही है। जो साधक इस सम्बन्ध में वीतराग हो जाता है. वह अंगोंपांगों की ओर देखना, उनके कूजन, रुदन और गायन को शारीरिक तथा मानसिक सभी प्रकार के दुःखों से छूट जाता है। मन लगा कर सुनना, पूर्व-भुक्त भोगोपभोगों का स्मरण किया देव दाणव गन्धव्वा, जक्ख रक्खस किन्नरा। करना। उत्तेजक आहार-पानी का सेवन करना और परिमाण से बंभयारि नमंसन्ति, दुक्करं जे करेन्ति तं / / 5 / / अधिक भोजन करना, ये सब बातें ब्रह्मचारी के लिए विष के जो मनुष्य इस प्रकार दुष्कर ब्रह्मचर्य का पालन करता है, समान हैं। और यही बात ब्रह्मचारिणी को भी समझना चाहिए। उसे देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और किन्नर आदि सभी अभिप्राय यह है कि कान, आँख जीभ तथा मन जो जितना नमस्कार करते हैं। काबू पा सकेगा, वह उतनी ही दृढ़ता के साथ ब्रह्मचर्य की - महावीरवाणी anitariamirmiranoramoandaridroidnidrordinirande 1 . Haridwaridrodustaridrinidaddiraniraniraniraram