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पतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार - या अनुपयोगी, जीवन को बनाने वाली है या बिगाड़ने वाली, लड़ाइयाँ मची रहती हैं, संघर्ष होते हुए देखे जाते हैं। इसका कोई विचार नहीं। बस, जीभ को अच्छी लगनी चाहिए।
यह स्थिति देखकर विचार होता है कि साठ-सत्तर वर्ष की जीभ को जो अच्छा लगा, सो गटक लिया। इस प्रकार खाने की ।
| जिन्दगी में मनुष्य ने क्या सीखा है? कभी-कभी पुराने सन्तों को न कोई सीमा रही है, न मर्यादा रही है।
भी हम जिह्वाशवर्ती देखते हैं? आहार आया और उनके सामने खाने के लिए जीना, धर्म का लक्षण नहीं है। खाने का रख दिया। वे कहते हैं - क्या लाए? कुछ भी तो नहीं लाए। अर्थ है - शरीर की क्षति और दुर्बलता की पूर्ति करना और बुढ़ापे में भी जिसकी यह वृत्ति हो, उसने जीवन के बहुमूल्य जीवन-निर्माण के लिए आवश्यक शारीरिक शक्ति प्राप्त करना। सत्तर वर्ष व्यतीत करने के बाद भी क्या पाया है? रोटी आई है, जहाँ यह दृष्टि है, वहाँ ब्रह्मचर्य की शुद्धि रहती है। जहाँ यह दृष्टि दाल-शाक आया है, फिर भी कहते हैं -कुछ नहीं आया। इसका नहीं रहती, वहाँ जीभ निरंकुश होकर रहती है, मिर्च-मसालों की अर्थ यह है कि पेट के लिए तो सब कुछ आया है, पर जीभ के
ओर लपकती है। इसीलिए कभी-कभी सीमा से अधिक खा लिए कुछ नहीं आया। लिया जाता है। ऐसा करने से शरीर का रक्त खौलने लगता है तो इस चार अंगल की जीभ पर नियंत्रण न कर सकने के और शरीर में गर्मी आ जाती है। शरीर में गर्मी आ जाने पर मन में
मनम कारण ही कभी-कभी मुसीबत का सामना करना पड़ता है। भी गर्मी आ जाती है। मन में गर्मी आ जाती है तो साधक भान जीभमान में विचार करते है तो बात यांटा भूल जाता है और जब भान भूल जाता है तो दुनिया भर की जाती है। चीजें खाने को तैयार हो जाता है।
समर्थ गुरु रामदास वैष्णव सन्त थे। उन्होंने एक जगह आज का चौका देखो तो मालूम होता है कि घर के लोग चौमासा किया। आप जानते हैं कि जहाँ नामी गरु आते हैं, वहाँ खाने के सिवाय और कुछ भी नहीं जानते हैं। दुनिया भर का भक्त भी पहँच ही जाते हैं। एक यवक व्यापारी था और अच्छे अगड़म-बगड़म वहाँ मौजूद रहता है। ऐसे मौके भी देखने में घर का लड़का था। वह और उसकी पत्नी रामदासजी के भक्त आए हैं कि यदि सन्त वहाँ पहुँच गए और आग्रह स्वीकार कर हो गए और उनकी आध्यात्मिक बातें सनने लगे। इधर आध्यात्मिक लिया तो उन चीजों को लेने-देने में आधा घण्टा लग गया। बातें सनते थे और उधर यह हाल था कि खाने के लिए रोज
अभिप्राय यह है कि मनुष्य ने स्वाद के लिए अनेक- लड़ाई होती थी। किसी दिन रोटी सख्त हो गई तो कहा - 'रोटी अनेक आविष्कार कर लिए हैं। भोजन के भाँति-भाँति के रूप क्या है, पत्थर है।' और जरा नरम रह गई तो बोले - 'आज तो तैयार कर लिए हैं। यह पेट के लिए नहीं, जीभ के लिए, स्वाद कच्चा आटा ही घोल कर रख दिया है।' के लिए तैयार किए हैं। यह चार अंगुल का मांस का जो टुकड़ा इस प्रकार पति-पत्नी में प्रतिदिन संघर्ष मचा रहता। तो (जीभ) है. उसका फैसला ही नहीं हो पाता। नाना प्रयत्न करने एक दिन उस यवक ने कहा - इससे तो साध बन जाना ही के पश्चात् भी जीभ तृप्त नहीं हो पाती। जीभ की आराधना के अच्छा । लिए मनुष्य जितना पचता है और प्रयत्न करता है, उसका आधा
युवक ने जब ऐसी बात कही तो उसकी पत्नी डर गई। प्रयत्न भी अगर वह परमात्मा की आराधना के लिए करे तो
उसे ख्याल आया, कहीं सचमुच ही यह साधु न बन जाए। उसका कल्याण हो जाए। मगर इतना प्रयत्न करने पर भी वह कहाँ सन्तुष्ट होता है। वह तो जब देखो तब लार टपकाती रहती
किन्तु भोजन के प्रश्न पर उन दोनों में एक दिन कहा-सुनी है, अतृप्त ही बनी रहती है। मनुष्य मांस के इस टुकड़े के पीछे ही गई। युवक ने क्रोध में आकर थाली को ऐसी ठोकर अपनी सारी जिन्दगी को बर्बाद कर देता है।
लगाई कि रोटी कहीं और दाल कहीं जाकर गिरी । फिर वह बचपन के दिन निकल जाते हैं, जवानी भी आकर चली।
है बोला - बस, भोग चुके गृहस्थी का सुख। हाथ जोड़े इस घर
को। अब तो साधु ही बन जाना है। जाती है और बुढ़ापे के दिन आ जाते हैं, तब भी बचपन की । वृत्तियों से छुटकारा नहीं मिलता है। बुढ़ापे में भी खाने के लिए इस प्रकार कहकर वह घर से निकला और सीधा बाजार
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