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- यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार किसी प्रयास की आवश्यकता नहीं है। सरलता तो आत्मा का ऐसी कुभावना से क्या लाभ। स्वभाव ही है। माया के हटते ही वह उसी प्रकार प्रकट हो प्रत्येक वासना हिंसा है. ज्वाला है और वह आत्मा को जाएगी, जैसे कीचड़ धुलते ही सोने में चमक आ जाती है। जलाती है। अपने विकारों द्वारा हम तो नष्ट हो ही जाते हैं; फिर
जैन-धर्म में आध्यात्मिक दृष्टि से गुणस्थान का बड़ा ही दूसरों को हानि पहुँचे या न पहुँचे। वातावरण अनुकूल मिल सुन्दर और सूक्ष्म विवेचन किया गया है। एक-एक गुणस्थान, गया तो दूसरों को हानि पहुँचा दी और न मिला तो हानि न पहँचा उस महान् प्रकाश की ओर जाने का सोपान है । किन्तु उन सके। किन्तु अपनी हानि तो हो ही गई। दूसरों की परिस्थितियाँ गुणस्थानों को पैदा करने की कोई बात नहीं बतलाई है। यही और दूसरों का भाग्य हमारे हाथ में नहीं है। अगर वह अच्छा है बताया है कि अमुक विकार को दूर किया तो अमुक गुणस्थान तो उन्हें हानि कैसे पहुँच सकती है? उन्हें कैसे जलाया जा सकता आ गया। मिथ्यात्व को दूर किया तो सम्यक्त्व की भूमिका पर है? परन्तु दूसरे को जलाने का विचार करने वाला स्वयं को आ गए और अविरति को हटाया तो पाँचवे-छठे गुणस्थान को जरूर जला लेता है। प्राप्त कर लिया। इसी प्रकार ज्यों-ज्यों विकार दूर होते जाते हैं,
इस कारण हमारा ध्येय अपने विकारों को दूर करना है। गुणस्थान की उच्चतर श्रेणी प्राप्त होती जाती है।
प्रत्येक विकार हिंसा रूप है और यह नहीं भूलना चाहिए कि सम्यग्दर्शन, ज्ञान, विरक्ति आदि आत्मा के मूलभाव हैं। बाहर चाहे हिंसा हो या न हो, पर विकार आने पर अन्तर में हिंसा ये मूल भाव जब आते हैं तो कोई बाहर से खींच कर नहीं लाए हो ही जाती है। अतएव साधक का दृष्टिकोण यही होना चाहिए जाते। उन्हें तो सिर्फ प्रकट किया जाता है। हमारे घर में जो कि वह अपने विकारों से निरन्तर लड़ता रहे और उन्हें परास्त खजाना गढ़ा हुआ है, उसे खोद लेना मात्र हमारा काम है; उस पर करता चला जाए। लदी हुई मिट्टी को हटाने की ही आवश्यकता है। मिट्टी हटाई
विकारों को परास्त किया कि ब्रह्मचर्य हमारे सामने आ और खजाना हाथ लग गया। विकार को दूर किया और आत्मा गया। इस विवेचना से एक बात और समझ में आ जानी चाहिए का मूल भाव हाथ आ गया।
कि ब्रह्मचर्य की साधना के लिए आवश्यक है कि हम दूसरी इस प्रकार जैन-धर्म की महान् साधना का एकमात्र उद्देश्य इन्द्रियों पर भी संयम रखें, अपने मन को भी काबू में रखें। विकारों से लड़ना और उन्हें दूर करना ही है।
आप ब्रह्मचर्य की साधना तो ग्रहण कर लें, किन्तु आँखों विकार किस प्रकार दूर किए जा सकते हैं, इस सम्बन्ध में पर अंकुश न रखें और बुरे से बुरे दृश्य देखा करें तो क्या लाभ? भी जैन-धर्म ने निरूपण किया है। आचार्यों ने कहा है कि यदि आँखों में जहर भरता रहे और संसार में रंगीन दृश्यों का मजा अहिंसा के भाव समझ में आ जाते हैं तो दूसरे भाव भी समझ में बाहर से तो लिया जाता रहे और ब्रह्मचर्य को सुरक्षित रखने का आ जायेंगे। इसके लिए कहा गया है कि बाहर चाहे हिंसा हो मंसूबा भी किया जाय यह असंभव है। अथवा न हो, हिंसा का भाव आने पर अन्तर में हिंसा हो ही
इस कारण भगवान महावीर का मार्ग कहता है कि ब्रह्मचर्य जाती है। इसी प्रकार जो असत्य बोलता है, वह आत्महिसा की साधना के लिए समस्त इन्द्रियों पर अंकुश रखना चाहिए। करता है और जब चोरी करता है तो अपनी चोरी तो कर ही लेता
हम अपने कानों को इतना पवित्र बनाए रखने का प्रयत्न करें कि है। इस रूप में मनुष्य जब वासना का शिकार होता है तो अन्तर जहाँ गाली-गलौज़ का वातावरण हो और बरे शब्द सनने को में भी और बाहर भी हिंसा हो जाती है। कोई विकार, चाहे बाहर
मिल रहे हों, वहाँ हमें सावधान रहना चाहिए अथवा उस वातावरण हिसा न करे, किन्तु अन्तर मे हिसा अवश्य करता है। दियासलाई से अलग रहना चाहिए। यदि शक्ति है तो उस वातावरण को जब रगडी जाती है, तो वह पहले तो अपने आपको ही जला
बदल दें और यदि शक्ति नहीं है तो उससे अलग रहना ही देती है, और जब वह दूसरों को जलाने जाती है तो सम्भव है कि
श्रेयस्कर है। हमें कानों के द्वारा कोई भी विकारोत्तेजक शब्द मन बीच में ही बुझ जाए और दूसरों को न जलाने पाए। मगर दूसरा में प्रवेश नहीं होने देने चाहिए। को जलाने के लिए पहले स्वयं को तो जलाना पड़ता ही है। तो
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