Book Title: Bhinmal Jain Itihas ke Prushto par
Author(s): Ghevarchand Manekchand
Publisher: Z_Arya_Kalyan_Gautam_Smruti_Granth_012034.pdf

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Page 4
________________ [४४]mmons वि. सं. ७०५ में जयणकुमारका वंशज राजा सामंत राजगद्दी पर विराजमान हुआ । इसके पूर्व वि. सं. ६८५ में भीनमालका राजा व्याघ्रमुख (वर्मलात) बताया गया है। इसलिए सामंतका वर्मलात से कोई न कोई संबंध, पितापुत्र का अथवा भ्राता का होना चाहिए। इस सबंध में इतिहास प्राप्त नहीं है । सामंत के दो पुत्र थे जिनके नाम क्रमशः जयंत व विजयंत थे। राजा सामंतने अपने ज्येष्ठ पुत्र जयंत को भीनमाल का राज्य सौंपा एवं उसके लघुभ्राता विजयंत को पड़ोसी राज्य लोहियारण नगरका राज्य सौंपा। लोहियाण नगर अाजका जसवंतपुरा ही है। पिता की मृत्यु के बाद जयंतने लड़ाई कर अपने लघुभ्राता विजयंतका राज्य हड़प लिया । विजयंत वहां से भागकर बनासनदी के तट पर राजा रत्नादित्य के यहाँ अपने मामा वजीसिंह के पास चला गया। बजीसिंहने विजयंत को वर्षाकाल तक वहीं रहने की सलाह दी। विजयंत वर्षाकाल तक अपने मामा के राज्य में शंखेश्वर ग्राम में रहने लगा । उस समय शंखेश्वर ग्राम में जैनमुनिश्री सर्वदेवसरि चातुर्मास बिराजमान थे। एक समय वे प्राचार्यजी महाराज प्रातःकाल शौचादि से निवृत्त हो अपने उपाश्रयमें पधार रहे थे। राजा विजयंत उस समय आखेट हेतु वन में प्रस्थान कर रहा था। जैनमुनिको सामने आते देख, अपशुकन जानकर उसने गुरु महाराज को मारने के हेतु से हाथ ऊंचा उठाया। किंतु प्राचार्यजी के अतिशय के प्रभाव से उस राजा के हाथ स्तंभित रह गये, एवं राजा को बहुत पीड़ा होने लगी। इस पर राजा बहुत शर्मिंदा हुआ और उसने प्राचार्यजी महाराज से क्षमायाचना की । मुनिराज ने राजा को क्षमा कर दिया, राजा मुनिराज के पैरों पर गिर पड़ा। इस पर राजा के शरीर की व्याधि कम हई । वि. सं. ७२३ में मार्गशीर्ष मास की दशमीके दिन राजा विजयंतने जैनधर्म स्वीकार किया, श्रावक के बारह व्रत अंगीकार किये एवं जीवहिंसा तथा अभक्ष्यभोजनादि त्याग दिया। वर्षाकाल समाप्त होने के बाद विजयंत अपने मामा वजीसिंह के साथ भीनमाल नगर: पाया। वजीसिंह ने अपने 'भाणेज जयंत को समझाबुझा कर विजयंतका लोहियाणनगर का राज्य उसे वापिस दिलाया। राज्य प्राप्ति के बाद विजयंत राज्यमद से प्रामादी हो गया। उसने सम्यकत्वको त्याग दिया और मिथ्यात्व ग्रहण कर लिया। आचार्यश्री को इस बातका ज्ञान होते ही उन्होने अपनी आकर्षण विद्या से राजा को शंखेश्वर बुलाया एवं प्रतिबोध देकर पुनः सम्यक्त्व ग्रहण कराया। राजा बहुत ही क्षोभयुक्त हो गया एवं प्राचार्य जी महाराज से उसने क्षमा मांगी। उसने प्राचार्य जी से विनति कर लोहियाण नगर पधारने का आग्रह किया। महाराज ने भी राजा की विनति स्वीकार की तथा चातुर्मास भी लोहियाण नगर में ही किया। प्राचार्य जी महाराज के उपदेश से राजाने लोहियारण नगर में श्रीऋषभदेवप्रभु का जिनमंदिर बनवाया। श्री सर्वदेवसूरिने इस मंदिर की प्रतिष्ठा कराई। राजा विजयंतने नगर में पौषधशाला भी करवाई । वि. सं. ७४५ में प्राचार्य सर्वदेवसूरि स्वर्ग सिधारे । राजा विजयंत के आठ पत्नियां थीं जिनके नाम क्रमशः देभाई, सोमाई, कस्तूराई, श्रीबाई, कपराई, राजबाई, लक्ष्मी एवं पूनाई थे। वि. सं. ७४९ में श्रीबाई का पुत्र जयवंत राजसिंहासन पर बैठा। जयवंत के तीन रानियां थीं जिनके नाम संपू, रमाई व जीवाई थे। संपूका पुत्र मल्ल नागेंद्रगच्छ के प्राचार्य से प्रतिबोधित हुमा । उसने दीक्षा अंगीकार की और वे सोमप्रभाचार्य नामसे प्रसिद्ध हुए। राजा जयवंत की दूसरी रानी के वना नाम का पुत्र था जो जल में डूब कर मर गया था। इसलिये उक्त वनाका पुत्र अथवा जयवंतका पौत्र भागजी लोहियाण नगर की राजगद्दी पर आसीन हुआ । भारणजी बड़ा वीर एवं पराक्रमी राजा था। उसी के वंशके भीनमाल के राजा जयंत के संतानविहीन होने से उसकी मृत्यु के बाद भीनमालका का राज्य भारगजीने अपने अधीन कर लिया। भाण राजाने अपने राज्य का विस्तार उत्तर पूर्व में गंगा के किनारे तक विस्तृत कर કહી ન શ્રીઆ કાયાણuપ્રસૃતિગ્રંથ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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