Book Title: Bhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Author(s): Vimalprajna, Siddhpragna
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 15
________________ पुरोवाक् किन्तु उस पर सुविस्तृत व्याख्याएं लिखी गईं। आवश्यकनियुक्ति, विशेषावश्यक भाष्य, चणि, हारिभद्रीया तथा मलयगिरीया वृत्ति- इन व्याख्या ग्रन्थों में विश्वकोश बन सके उतने विषय हैं। उन सब विषयों का समाहार करना संभव नहीं था। इसलिए उनमें से प्रमुख-प्रमुख विषयों का चयन किया गया, जो आधुनिक ज्ञान, विज्ञान और आचारशास्त्रीय दृष्टि से बहत महत्त्वपूर्ण लगे। विज्ञान के क्षेत्र में परामनोविज्ञान की शाखा विकसित हई, उसमें अतीन्द्रिय ज्ञान को मान्यता दी गई। अन्य लेखकों ने भी ज्ञान के विषय में लिखा किन्तु अतीन्द्रिय ज्ञान के विषय में जितना सांगोपांग निरूपण इसमें है, उतना अन्य किसी ग्रन्थ में प्राप्त नहीं है. अतः परामनोविज्ञान के अध्येता के लिए यह कोश अत्यन्त उपयोगी होगा। इस कोश में १७५ विषयों का संग्रहण है। तत्त्व-दर्शन, आचार-शास्त्र, इतिहास आदि अनेक दष्टियों का इसमें समावेश है। जैन आगमों की व्याख्या में नयों का मुक्त प्रयोग हुआ है। जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने नय की महत्ता का प्रतिपादन इस रूप में किया है जो ज्ञाता नय-निक्षेप-विधि से अर्थ की समीक्षा नहीं करता, उसके लिए अयुक्त युक्त और युक्त अयुक्त हो जाता है। इसमें हाथी के दृष्टांत से नय को समझाया गया है । सात अंधे व्यक्ति थे। उनमें से प्रत्येक ने हाथी के एकएक अवयव का स्पर्श किया। पैर का स्पर्श करने वाले ने कहा- हाथी खंभे जैसा है। दूसरों ने हाथी के अन्यान्य अवयवों के स्पर्श के आधार पर हाथी की भिन्न-भिन्न कल्पना की। इस प्रकार एक-एक अवयव के आधार पर पूरे हाथी की कल्पना जैसे ठीक नहीं है, वैसे ही वस्तु के एक अंश को सम्पूर्ण वस्तु मानना सम्यक नहीं है। यह हस्ति-दर्शन का दृष्टांत बौद्ध साहित्य में भी उपलब्ध है। ऐतिहासिक दृष्टि से भी कुछ तथ्य बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। भद्रबाहु स्वामी ने महाप्राण ध्यान की साधना सम्पन्न की। स्थूलभद्र ने प्रतिपूर्ण नौ पूर्व पढ़ लिए। दो वस्तुओं (प्रकरणों) से न्यून दसवां पूर्व भी पढ़ लिया । भद्रबाहु और स्थूलभद्र नेपाल से प्रस्थान कर पाटलिपुत्र आ गए। एक घटना के बाद भद्रबाहु ने स्थूलभद्र को अन्तिम चार पूर्व नहीं पढ़ाए। बहुत अनुरोध करने पर उनको पढ़ाना शुरू किया। साधारणतया यह माना जाता है कि भद्रबाह स्वामी ने अन्तिम चार पूर्व पढ़ाए लेकिन उनका अर्थ नहीं बताया। किन्तु आवश्यकचूणि में ऐसा उल्लेख नहीं है। वहां उल्लेख है-भद्रबाहु स्वामी ने स्थूलभद्र से कहा--अवशिष्ट चार पूर्व तुम पढ़ो किन्तु दूसरों को उनकी वाचना नहीं दोगे । स्थूलभद्र के बाद अन्तिम चार पूर्व विच्छिन्न हो गए। दसवें पूर्व की अन्तिम दो वस्तुएं भी विच्छिन्न हो गईं। दस पूर्व की परम्परा उनके बाद भी चली। महाप्राण (महापान) ध्यान की साधना सम्पन्न होने पर चतुर्दशपूर्वी प्रयोजन उपस्थित होने पर अन्तमहत में चौदह पूर्वो की अनुप्रेक्षा -पर्यालोचन कर लेता है, अनुक्रम-व्युत्क्रम से उनका परावर्तन कर लेता है। आगमों में उपयुक्त चतुर्दशपूर्वी मुनि अन्तर्मुहर्त्तमात्र के उपयोगकाल में जितने अर्थ-पर्यायों को जान लेता है, उनमें से एक-एक समय में एक-एक पर्याय को अवहृत किया जाए तो अनन्त उत्सर्पिणी और अनन्त अवसर्पिणी में भी उनका अवहार नहीं हो सकता। इस अवसपिणी कालखंड में चतुर्दशपूर्वी हुए हैं। उनके पश्चात् दशपूर्वी ही हुए, किन्तु तेरहपूर्वी, बारहपूर्वी या ग्यारहपूर्वी नहीं हुए। १. प्रस्तुत कोश, पृ. ४५-६४, २२५-२३१, ५१०-५१४ २. वही, पृ. ३७४ ३. वही, पृ. ३७५ ४. खुद्दक निकाय, उदान, पृ. १४३-१४५ ५. प्रस्तुत कोश, पृ. ८३,८४ ६. अनुचू, पृ. ८८ ७. प्रस्तुत कोश, पृ. ४२९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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