Book Title: Bhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Author(s): Rajendra Jain
Publisher: Digambar Jain Trishala Mahila Mandal

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Page 13
________________ श्री गोतम स्वामि-रचित मुनिप्रतिक्रमणा पाठ-गंत-वीर-भक्ति में महावीर की स्तुति करते हुए कहा है- . ध्यानस्थिताः संयम-योग-युक्ताः एकाग्रतां गताः संयमेन द्वादश प्रकारेण यावज्जीवं व्रतलक्षणेन वा उपलक्षितो योगो मनोवाक्काय व्यापारश्चित वृत्ति-निरोधो वा तेन युक्ताः सन्तः / मूल प्रतिक्रमण ग्रन्थत्रयी पृ. 76 जेंहिं झाणग्गि-वाणेहि अइदड्ढयं। 2 / धम्मवर-सुक्केक्कं-झाणं गया / / / / / पंचपरमेष्ठी प्रा. भक्ती आ. कुन्दकुन्द श्रेष्ठ धर्मध्यान वा प्रधान शुक्ल ध्यान में लीन साधु होते हैं यहां दो ध्यानों का कथन आया है जिसमें सभी योग समाया है। जिन सिद्धों ने ध्यान रूपी अग्निवाण के द्वारा अतिदृढ़ कठोर जन्म जरा मृत्यु रूपी तीनों नगरों को जला दिया जिन्होंने शास्वत शिव स्थान को प्राप्त किया ऐसे सिद्ध हमारे लिए श्रेष्ठज्ञान देवें। यहां ध्यान को अग्नि वाण की उपमा दी है जो अग्नि को उत्पन्न करने वाला दिव्यास्त्र होता / रयणसार में ये ही आचार्य ध्यान की महिमा का बखान करते हुए कहते हैं - झाणेण सव्वकम्म णिज्जरणं-ध्यान से सभी कर्मों की निर्जरा होती है। ध्यान को योग समाधि भी कहते हैं। इसके साधन भी जैनाचार्यों ने पूर्व में ही . . कहे है- झाणं हवेइ अग्गी,..... || 232 // समयसार अर्थात् ध्यान रूपी अग्नि से कर्म जलकर मोक्ष होता है यथा - जम-णियम-संजम-सील........ / इन्द्रभूति गोतम स्वामी रचित वीर भक्ति की अंचलिका अर्थात् यम, नियम संयम व शील आदि का दोष दूर हो। जो सारो सव्व-सारेसु, सो सारो एस गोयम। सारं झाणंति णामेण, सव्वं बुद्धेहि देसिदं / / 8 / / धिदिमंतो खमाजुत्तो, झाणजोग-परिट्ठिदो। परीसहाणउरं देंतो उत्तमंवद-मस्सिदो / / 7 / / उत्तमव्रत वाला, योग, धृति व क्षमा से सहित परिसहों को हृदय से सहता हुआ ध्यान.व योग में स्थित होता है। महावीर कहते हैं कि हे गोतम सभी सारों में जो सार है वह सार ध्यान सार नाम से सभी कैवल्य बुद्धि वाले तीर्थंकर बुद्धों ने कहा है। दस-विह-धम्मज्झाणेसु (मुनि प्रति. पाठ) दश प्रकार के धर्म ध्यानों के दोष दूर होवे जिनका विशद विवेचन श्री जिनसेन देव ने हरिवंश पुराण में किया है। _द्रव्यानुयोग वेद में संवर-निर्जरा तत्व के कारण भूत ध्यान का वर्णन आता है प्रथम सूत्रग्रन्थ तत्त्वार्थ/मोक्षशास्त्र के नवमें अध्याय में इसका साङ्गोपांगवर्णन है अंतरंग तपों में अंतिम तप ध्यान है जिससे साक्षात् मोक्ष होता है चार आराधनागत तप आराधना में ध्यान का वर्णन जानना। णमो उग्गतवाणं, णमो तत्त तवाणं / णमो घोरतवाणं, णमो दित्त-तवाणं दि. आ. पुष्पदंत भूतबलि षट्खंडागम के इन सूत्रों से भी ध्यान तप की महिमा प्रकट होती है। ये प्रसिद्ध सर्व प्राचीन लिखित उल्लेख हैं। (vi)

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