Book Title: Bhartiya Darshanik Parampara aur Syadwad Author(s): Devendra Kumar Jain Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf View full book textPage 6
________________ ० ० Jain Education International २८८ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड सोचना पड़ता है कि क्या कहें, जिससे बात छिप भी सके और ठीक भी बता दी जाय । ऐसे अवसरों के अतिरिक्त सामान्य रूप से भी जब कोई मेरे स्वास्थ्य के सम्बन्ध में पूछता है तो मेरा उत्तर होता है-हाँ, ठीक तो हूँ । किन्तु पूछने वाले को इससे असन्तोष नहीं होता । 'तो' शब्द उसे खटकता है। इसलिए बात स्पष्ट करने के लिए फिर पूछता है— क्या पहले से ठीक है ? उत्तर मिलता है- कुछ तो ठीक है । किन्तु इससे पूरी जानकारी नहीं मिल पाती । अतएव फिर प्रश्न होता है कि औषध से बराबर लाभ मिल रहा है या नहीं ? मैं कहता हूँ-लाभ तो दिखलाई नहीं पड़ता पर बिलकुल लाभ न हो, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता । कुल समझ में अर्थ यही निकलता है कि कुछ लाभ है, कुछ नहीं । बस यही 'अस्ति' और 'नास्ति' है । विद्वान् की शंका है कि 'अस्ति' से काम चल सकता है तो नास्ति मानने की क्या आवश्यकता है ? परन्तु बात ऐसी नहीं है। बिना अन्धकार के प्रकाश कैसा और बिना असत् के सत् कैसा ? अन्धकार के अभाव में प्रकाश और सत् के अभाव में असत् दिखलाई पड़ता है। दोनों अविनाभावी हैं। जिस प्रकार व्यवहार और परमार्थ (सत्य) को ध्यान में रखकर विचार किया जाता है, उसी प्रकार सत् और असत् दोनों को एक साथ ध्यान में रखा जाता है । और इसलिए सम्पूर्ण सत्य की प्राप्ति का अर्थ है असत् का सर्वथा अभाव । दर्शन में तथा व्यवहार के क्षेत्र में यह अर्थ बराबर समझा जाता रहा है और समझा जाता है । अनेकान्त के बिना किसी प्रकार का व्यवहार चल नहीं सकता हैं। सोने-चांदी का व्यापारी जब किसी हार को खरीदता है, तब पचास ग्राम के तौल वाले उस वजन के हार का सोने के उस दिन के भाव के पूरे दाम नहीं देता है । यद्यपि वह जानता है कि यह पूरा हार सोने का बना हुआ है, किन्तु वह यह भी जानता है कि इसमें चार ग्राम मिलावट है। इसलिये वह मिलावटी वस्तु के दाम कैसे दे सकता है ? जो उस अनेकान्त की दृष्टि से मूल वस्तु को या वस्तु-स्वभाव को नहीं समझे, तो आध्यात्मिक जगत् में कहाँ वह भरमा सकता है, इसका उसे भी पता नहीं चलेगा । अतएव अनेकान्त व्यवहार की कसौटी है । नय और प्रमाण की भी सम्यकव्यवस्था अनेकान्त पर आधारित है। हमें तत्-तत् वस्तुओं को उनके गुण-धर्मों के अनुसार विश्लेषित कर समझनी चाहिए । हमारे व्यावहारिक जीवन में जिन विशेषणों का, क्रियाओं का तथा साधन-धर्मियों का प्रयोग किया जाता है, वह सब अनेकान्तपरक होता है। क्योंकि अपने आप में कोई छोटा-बड़ा, भला खराब तथा सुन्दरअसुन्दर नहीं होता । हमारी समझने की और मानने की अलग-अलग दृष्टियों के कारण वह वस्तु हमें वैसी लक्षित होती है । वास्तव में वस्तु तो जैसी है, वैसी ही है । यह प्रतिदिन के व्यवहार में देखने में आता है कि भौतिक जगत् में स्थान, समय तथा भावों की विलक्षणता के कारण एक ही वस्तु, व्यक्ति तथा स्थान की प्रतीति भिन्न-भिन्न समयों में अपने अलग-अलग रूपों में होती है । सामान्यतः दूध का रूपान्तरण होने पर वह स्वयं दही में दिखलाई पड़ने लगता है। दूध से दही बनने का बहिरंग कारण बेक्टेरिया या सूक्ष्म जीवाणु हैं, किन्तु अन्तरंग कारण स्वयं दूध का परिणमन है। बाहर से प्रतीत होने वाली इन विभिन्न अवस्थाओं में भी मूल द्रव्य ज्यों का त्यों बना रहता है, यह व्यावहारिक तथा यथार्थ दृष्टि भी हमें अनेकान्त सिद्धान्त से मिलती है। इसलिए कहा गया है जेण विणा लोगस्स वि ववहारो सव्वहा ण निवडइ । तस्स भुवनेगुणो णमो अतवायरस | सम्मतिसूत्र ३.५२ , अर्थात् — जिसके बिना लोक के सभी व्यवहार निष्पन्न नहीं हो पाते, अखिल भुवन के उस एक अद्वितीय गुरु अनेकान्तवाद को नमस्कार हो । संक्षेप में, अनेकान्तवाद का सिद्धान्त व्यवहार और परमार्थ दोनों का विलक्षण आश्रयस्थान है इसका आश्रय लिए बिना व्यवहार और परमार्थ दोनों भलीभांति निष्पन्न नहीं हो पाते। क्योंकि प्रत्येक वस्तु में अनन्त धर्म रहते हैं । उन अनन्त धर्मों का कथन अनेकान्त की दृष्टि से ही स्याद्वाद की भाषा में किया जा सकता है। वास्तव में परमार्थ में वस्तु का सत्य ही ग्राह्य होता है । इसलिए 'सत्' को लेकर ही अनेकान्त का व्यवहार होता है । कोई यह कहना चाहे कि किसी अपेक्षा से गधे के सींग होते हैं और किसी अपेक्षा से नहीं होते, तो यह न तो व्यवहार में और न अनेकान्त में घट सकता है । अनेकान्त का प्रयोग वहीं किया जा सकता है जहाँ वस्तु है । जहाँ वस्तु ही नहीं है, वहां उसके धर्मों को अनेकान्त कैसे प्रकाशित कर सकता है ? यह व्यवहार भी कैसे बन सकता है कि किसी अपेक्षा से यह माता है और किसी अपेक्षा से वन्ध्या है । यद्यपि अनेकान्त विरोधी धर्मो को प्रकाशित करता है; जैसे कि—जीव अमूर्तिक है, कथंचित् मूर्तिक भी है, किन्तु यहां जीव द्रव्य का सद्भाव होने से अनेकान्त चरितार्थ हो सकता है। परन्तु जहाँ वस्तु ही वैसी न हो, वहाँ अनेकान्त नहीं बन सकता है । इसी प्रकार व्यवहार में अधिकतर व्यक्तियों की अनुभुत वस्तु में भिन्नता भी लक्षित होती है, किन्तु पूर्ण रूप से एक अखण्ड वस्तु के सत्य में भिन्नता नहीं होती । इस व्यवहार और परमार्थ से द्रव्य, गुण और उनकी पर्यायों को अनेकान्त भिन्न-भिन्न दृष्टियों से भलीभांति समझाने वाला है । अखण्ड वस्तु तत्त्व का For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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