Book Title: Bhartiya Darshanik Parampara aur Syadwad Author(s): Devendra Kumar Jain Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf View full book textPage 7
________________ भारतीय दार्शनिक परम्परा और स्यावाद 289 ... +++ +++ + + + + + + + + + - - - + + ++ + + ++++++++++++++++++++ +++ +++ + + ++++++ निर्णय करने के लिए तो यह नितान्त आवश्यक है। इतना ही नहीं, अनेकान्तवाद स्व-परिणाम के रूप में नयवाद का मौलिक विधान करता है, जिसके अनुसार हम अपने को तथा संसार की अन्य वस्तुओं, उनके धर्म तथा दर्शनों को उन सब की अपनी-अपनी दृष्टि से समझने का प्रयत्न करें, तो स्वतः ही सब विरोध समाप्त हो जाते हैं। जब कोई विरोध ही नहीं रह जाएगा, तो राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय तनाव भी अपने आप दूर हो जायेंगे / इस प्रकार यह अनेकान्तवाद का सिद्धान्त व्यक्तिगत तथा सामाजिक एवं राष्ट्रीय स्तर पर व्यक्तियों में उदात्त बौद्धिक वृत्ति को जाग्रत कर व्यवहार की यथार्थ भूमिका प्रस्तुत करता है। संदर्भ स्थल : 1 जे आया से विन्नाया, जे विन्नाया से आया / जेण वियाणइ से आया, तं पडुच्च पडिसंखाए / -आचारांगसूत्र 5, 60 2 खंधा य खंधदेसा खंधपदेसा य होंति परमाणू / इदि ते चदुब्वियप्पा पुग्गलकाया मुणेयव्वा / -पंचास्तिकाय, गा०७४ 3 भावस्स णत्थि नासो, णत्थि अभावस्स उप्पादो। -पंचास्तिकाय, 1, 15 4 कालो णं जीवे ण कयावि ण आसि, णिच्चे णस्थि पुण से अन्ते / -भगवती सूत्र, 2, 2, उ०१ 5 देवदत्त शास्त्री : चिन्तन के नये चरण, पृ०६८ 6 नासदासीन्नो सदासीत् तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत् / किमावरीवः कुह कस्य शर्मन्नम्भः किमासीद्गहनं गभीरम् / / -ऋग्वेद, 10, 126 7 वही, 10, 126, 4 8 परमाणु मित्तयं पि हु रागादीणं तु विज्जये जस्स / णवि सो जाणदि अप्पाणयं तु सव्वागमधरो वि॥ -समयसार, 156 6 अस्तित्वपूर्वकं नास्ति अस्ति नास्तित्वपूर्वकम् / अतो नास्ति न गन्तव्यं अस्तित्वं न च कल्पयेत् / / 10 श्री दलसुखभाई मालवणिया के 'जैन दार्शनिक साहित्य का सिंहावलोकन' से उद्धत, पृ० 11 दलसुखभाई मालवणिया के 'जैन दार्शनिक साहित्य के विकास की रूपरेखा' से -उद्धत, पृ०५ कवीनां गमकानां च वादीनां वाग्मिनामपि / यशः सामन्तभद्रीयं मूर्ध्निचूडामणीयते / / -आदिपुराण 13 (क) सर्वथात्वनिषेधको नेकान्तताद्योतकः कथंचिदर्थे स्यात् शब्दो निपातः / -पंचास्तिकाय टीका (ख) वाक्येष्वनेकान्तद्योती गम्यं प्रति विशेषकः / स्यान्निपातार्थयोगित्वात् केवलिनामपि // -आप्तमीमांसा, 103 14 'स्यादित्यव्ययमनेकोन्ताद्योतकं ततः स्याद्वाद 'अनेकान्तवाद' इति यावत् / -स्याद्वादमंजरी 15 अनेकान्तात्मकार्थकथनं स्याद्वादः / -लघीयस्त्रय टोका, 62 16 एकस्मिन् वस्तुनि सापेक्षरीत्या विरुद्ध नानाधर्म स्वीकारो हि स्याद्वादः / स्याद्वादो नैकान्तवादः / -स्वाद्वादमंजरी, टीका, 5 17 आदीपमाव्यौम समस्वभावं, स्याद्वादमुद्रानतिभेदि वस्तु / तन्नित्यमेवैकमनित्यमन्यदिति त्वदाज्ञाद्विषतां प्रलापाः / / -अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका, 5 18 दृष्टव्य है-ऋग्देव, दशम मण्डल (10,126,1-7) 16 भरतसिंह उपाध्याय : बौद्धदर्शन तथा अन्य भारतीय दर्शन, भाग प्रथम, पृ० 245 / 20 स्यादस्ति, स्यान्नास्ति, स्यादस्तिनास्ति, स्यादवक्तव्यः, स्यादस्ति च वक्तव्यः, स्यान्नास्ति चावक्तव्यः, स्यादस्ति च नास्ति चावक्तव्यः / -ब्रह्मसूत्र शांकरभाष्य, 2,2, 33-34 22 सदेव सर्व को नेच्छेत्स्वरूपादि-चतुष्टयात् / असदैव विपर्यासान्न चेन्न व्यवतिष्ठते / / -देवागम, 1,15 23 न सच्च नासच्च न दृष्टमेकमात्मान्तरं सर्व निषेध गम्यम् / दृष्टं विमिथ तदुपाधिभेदात् स्वप्नेषि नेतत्वदृषेः परेषाम् ।।-युक्त्यनुशासन, 32 स्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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