Book Title: Bharatiya Yoga Parampara me Jain Acharyo ke Yogadan ka Mulyankan Author(s): Bramhamitra Avasthi Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf View full book textPage 4
________________ पूर्णावस्था का आचार्य हरिभद्रसूरि ने अयोग नाम दिया है ।" अयोग का अर्थ है सर्वतोभावेन निर्लिप्तता की स्थिति, जिसे श्रीमद्भगवद् गीता में स्थित प्रज्ञता की स्थिति कहा गया है दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः । वीतरागभय क्रोधः स्थितधीः मुनिरुच्यते || यः सर्वत्रानभिस्नेहः तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् । नाभिनन्दति न द्व ेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता । 7 आचार्य हरिभद्रसूरि ने योग की उपर्युक्त अवस्थाओं का वर्णन साधना की स्थिति का मूल्यां कन करने के लिए आत्मपरीक्षा के उद्देश्य से किया है जिससे साधना के मार्ग में साधक अपनी स्थिति की पूर्ण जानकारी रखते हुए देश और काल को ध्यान में रखकर अपनी साधना को और सुदृढ़ कर सके, गति दे सके । साथ ही उसके मार्ग दर्शक गुरु भी उसकी अवस्था का मूल्यांकन करते हुए उसे अपेक्षित संरक्षण और मार्ग दर्शन प्रदान कर सकें । इस दृष्टि से इन अवस्थाओं का वर्णन अत्यन्त महत्वपूर्ण तो है ही, पतञ्जलि के सूत्रों में अथवा उनके भाष्य अथवा वृत्तियों में अथवा सिद्ध सम्प्रदाय के आचार्य गोरक्षनाथ आदि के योग बीज, योग शिखा, अमनस्क योग, योग कुण्डली आदि ग्रंथों में भी इनकी चर्चा न होने से अत्यन्त मौलिक भी है । साधना के क्रम में साधक की मानसिक अवस्थाएं भी साधना के मूल्यांकन के लिए, साधक की दृष्टि से साधना मार्ग की अनुकूलता प्रतिकूलता का मूल्यांकन करने की दृष्टि अपना विशेष महत्व रखती हैं । स्मरणीय है कि साधना के क्रम में साधक की मनःस्थिति का सर्वाधिक महत्व है । | मनःस्थिति ही साधक को साधना में प्रवृत्ति देती है और प्रवृत्त रखती है । पूर्ण चित्त वृत्तिनिरोध रूप समाधि की स्थिति भी मन की ही अवस्था विशेष | है | मनःस्थिति के कारण ही लोक की कोई घटना किसी व्यक्ति को सुख प्रदान करती है तो किसी तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन Jain Education International को वही घटना दुःख और पीड़ा प्रदान करती है । पतंजलि के भाष्यकर व्यास द्वारा निर्दिष्ट क्षिप्त, मूढ़ विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध अवस्थाएँ चित्त की ही अवस्थाएँ हैं जिनका सूक्ष्म विवेचन व्यास ने योग सूत्र भाष्य में किया है । " ज्ञान अथवा तत्वबोध की अवस्था भी मन की अवस्था विशेष है । जिसे बौद्ध, जैन, वैशेषिक, न्याय और वेदान्त दर्शनों में मोक्ष का एकमात्र उपाय माना गया है । पतञ्जलि द्वारा निर्दिष्ट साधना मार्ग में भी निर्विचारा सम्प्रज्ञात समाधि की स्थिति में पहुँचने पर अध्यात्मप्रसाद और ऋतम्भरा प्रज्ञा के उदय की चर्चा की गई है । और स्वीकार किया गया है कि विवेक ख्याति अपर पर्याया ऋतम्भरा प्रज्ञा के संस्कार अन्य समस्त संस्कारों का प्रतिबन्धन करते हैं जिसके अनन्तर ही साधक निर्बीज समाधि पर पहुँचता है ।" इस प्रकार मन की अवस्थाओं का विवरण योगसाधना के क्रम में स्वयं अपनी और अपने शिष्य अथवा सब्रह्मचारी साधक की साधना पथ पर स्थिति और साधना पथ के प्रभावी या अप्रभावी होने मूल्यांकन के लिए न केवल अत्यन्त उपयोगी है बल्कि अनिवार्यतः अपेक्षित भी है । आचार्य हरिभद्रसूरि ने मन की नव अवस्थाओं का वर्णन किया है । इन अवस्थाओं में ओघदृष्टि, जिसे मिथ्यादृष्टि भी कहते हैं, साधना से रहित अज्ञानी पुरुष की मानसिक अवस्था है। शेष मित्रा तारा बला दीप्रा स्थिरा कान्ता प्रभा और परा आठ साधक की मानसिक अवस्थाएं हुआ करती हैं । इनमें प्रथम से अन्तिम तक क्रमशः उच्च उच्चतर और उच्चतम स्थिति में पहुँचे हुए साधकों की मन की अवस्थाएँ हैं । 10 इसीलिए इन्हें योगदृष्टियाँ कहा जाता है । साधकों के मन की ये विशिष्ट स्थितियाँ हरिभद्रसूरि के अनुसार यम नियम आदि का अभ्यास करने के फलस्वरूप वेद आदि उद्वेगों की निवृत्ति होने के अनन्तर प्राप्त होती हैं। जब तक चित्त में राग और द्वेष के वेग विद्यमान रहते हैं और जब तक मंत्री, २३५ साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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