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भारतीय योग परम्परा
में जैन आचार्यों के
योगदान का मूल्यांकन ( योग का प्रास्थानिक मूल्य)
- डॉ. ब्रह्ममित्र अवस्थी
निदेशक
- स्वामी केशवानन्द योग संस्थान ८/३ रूपनगर, दिल्ली ११०००७
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योगविद्या एक व्यावहारिक विद्या है, साधना की विद्या है, जिसके द्वारा अपने में अन्तनिहित अन्नमय, मनोमय, प्राणमय और आनन्दमय कोशों में अनादि काल से अन्तर्निहित शक्तियों को जागृत करके जीवन की अल्पताओं को और उसके कारण प्राप्त पीड़ाओं को दूर करने का प्रयत्न किया जाता है और उसके फलस्वरूप आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक इन त्रिविध दुःखों की आत्यन्तिक निवृत्ति रूप मोक्ष को, कैवल्यभाव को प्राप्त किया जाता है । इस साधना में त्रिविध ताप की आत्यन्तिक निवृत्ति रूप मोक्ष की प्राप्ति जहाँ साधना रूपी यात्रा का चरम लक्ष्य है, अन्तिम पड़ाव है, वहीं शारीरिक और मानसिक निर्बलताओं की निवृत्ति, व्याधि एवं जरा की निवृत्ति आदि प्रारम्भिक और मध्यवतीं पड़ाव है ।
जिस प्रकार किसी मन्दिर अथवा भवन के मध्य में बैठे हुए दसपन्द्रह-बीस या सौ-दो सौ - चार सौ अथवा हजार व्यक्ति क्रमशः अपने स्थान से उठकर द्वार की लघु यात्रा के लिए अथवा किसी अन्य मन्दिर भवन अथवा तीर्थ नदी पर्वत आदि की दीर्घ यात्रा के लिए प्रस्तुत हों, तो प्रत्येक व्यक्ति के चरण चिन्ह पृथक्-पृथक् ही होंगे, भले ही प्रत्येक व्यक्ति ने अपनी यात्रा किसी एक नियत स्थल पर खड़े होकर ही क्यों न प्रारम्भ की हो । चरण चिन्हों की यह भिन्नता आकस्मिक नहीं, बल्कि अनिवार्य है । इसके लिए भिन्नता को दूर करने के लिए चाहे जितना प्रयत्न किया जाए भिन्नता अवश्य ही रहेगी । हां इस भिन्नता को दूर करने हेतु प्रयत्न करने पर स्खलन हो सकता है, गति तो मन्द होगी और चरण चिन्ह की भिन्नता की निवृत्ति के ही लक्ष्य बन जाने से मूल लक्ष्य के भी तिरोहित होने की सम्भावना हो सकती है । ठीक इसी प्रकार विविध तापों से सन्तप्त साधक की साधना यात्रा में भी लक्ष्य एक रहने पर भी साधना की विधि में, प्रक्रिया में कुछ न कुछ अन्तर का होना अत्यन्त स्वाभाविक ही है । साधक की शारीरिक और मानसिक स्थिति, उसकी तैयारी, बौद्धिक स्तर, पूर्वतन संस्कार, वातावरण आदि ऐसे अनेक हेतु हैं, जिनके कारण साधना की विधि में अन्तर हो सकता है कई बार उद्देश्य भेद अर्थात् चरम लक्ष्य में अन्तर भी साधना के मार्ग में कुछ या बहुत अन्तर ला सकता है । कहने का तात्पर्य यह है कि जीवन की पूर्णता के उद्देश्य से की जाने वाली साधना पद्धतियाँ अनेक हो सकती हैं, व्यक्ति आदि के भेद से अनन्त हो सकती हैं यदि यह कहा जाए तो अनुचित न होगा । और पदक्रम में अन्तर रहने पर भी सभी एक अभीष्ट पर निस्सन्देह पहुँचते हैं ।
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। स्वयं स्वीकृत
इसी प्रकार साधना क्रम में अन्तर होते हुए भी क्रम में लक्ष्य और साधक की योग्यता के आधार यदि उसके लक्ष्य के रूप में चित्त की एकाग्रता केन्द्र पर कुछ परिवर्तन भी हुए हैं। हठयोग और नाथ में विद्यमान है, आध्यात्मिक लक्ष्य विद्यमान है, दुःख सिद्धों की साधना पद्धति की प्रतिष्ठा अथवा प्रचलन की आत्यन्तिक निवृत्ति का प्रयोजन विद्यमान है, तो इस सहज परिवर्तन के प्रमाण हैं। उसे योग साधना कहा जाना चाहिए और योग साधना इन परिवर्तनों के प्रसंग में यह ध्यान रखने कहा भी जाता है । इसके अतिरिक्त वर्तमान में उस वाला तथ्य है कि देश विशेष की सीमाएँ अथवा 4G साधना को, उस क्रिया विधि को भी 'योग' अथवा धर्म विशेष का इस पर कोई प्रभाव नहीं रहा है। 'योगा' कहा जा रहा है जिसका कुछ सम्बन्ध पतं- इसीलिए भारतीय साधना पद्धति, नेपाली साधना IV
जलि के अष्टांग योग से है। आजकल दिल्ली, नियाति प्रादों को अथवा जैत योग. बौद्ध योग ६५ बम्बई, न्यूयार्क, लन्दन जैसे बड़े शहरों में शरीर को ब्राह्मण या वैदिक योग आदि भेदबोधक शब्दों के यू
सुन्दर छरहरा बनाए रखने के लिए कुछ केन्द्र प्रयोग को बहुत गम्भीरता से नहीं लेना चाहिए । (व्यावसायिक केन्द्र) खुले मिलेंगे और उनके नाम इस प्रकार के शब्दों के प्रयोगों का केवल इतना ही आदि देखने को सहज ही मिल जाएंगे। इन अर्थ है कि किसी क्षेत्र विशेष में अधिक प्रचलित केन्द्रों के साथ योग अथवा योगा शब्द जुड़ा हुआ है, साधना विधि, अथवा जैन और बौद्ध सम्प्रदाय के
और सामान्य जनता वहाँ की साधना विधि (क्रिया मध्य प्रतिष्ठित आचार्यों के द्वारा स्वयं स्वीकृत विधि) को योग (योगा) कहती भी है, किन्तु उन्हें अथवा उनके द्वारा लिखित साहित्य में मुख्यतया हम योग की सीमा में रखना नहीं चाहेंगे। क्योंकि वणित साधना विधि के कुछ विशिष्ट तत्व। वे ऊपर दी गयी योग की मूल परिभाषा के अन्दर साधना के प्रसंग में इस तथ्य का उल्लेख मैं नहीं आते।
निःसंकोच करना चाहूँगा कि साधना से सम्बन्धित ___ योग साधना की अनेक विधियाँ योगसत्रकार दार्शनिक चिन्तन के सन्दर्भ में जैन आचार्यों द्वारा पतञ्जलि के समय में भी प्रचलित थीं इसका संकेत
लिखित ग्रन्थों में भले ही पतञ्जलि और व्यास के
समान दार्शनिक गम्भीरता न हो, सिद्ध परम्परा के हमें पतञ्जलि के योग सूत्र में ही मिलता है। उसके
__आचार्यों की तुलना में दृढ़ता और स्पष्टता कुछ || अनुसार वैराग्यपूर्वक चित्तवृत्तिनिरोध हेतु अभ्यास, अर्थ भावना पूर्वक प्रणव मन्त्र जपरूप
कम हो किन्तु कष्टसहिष्णतारूप तपश्चर्या के
सम्बन्ध में जितनी दृढ़ता, नियमों में स्पष्टता जैन ईश्वर प्रणिधान, प्राणों की प्रच्छर्दन एवं विधारण रूप विशिष्ट क्रिया प्राणायाम, इन्द्रियों के किसी
सन्तों के साधना क्रम में अथवा जैन आचार्यों द्वारा विषय को आधार बनाकर वहाँ चित्त की पूर्ण
निर्धारित आचार नियमों में मिलती है, अन्यत्र स्थिरता का प्रयास, पूर्ण वैराग्य, अस्मिता मात्र में मिलता है चित्त की स्थिरता का प्रयास, स्वप्न निद्रा अथवा जैन आचार्यों में मुख्यतः हेमचन्द्र एवं हरिभद्र ज्ञान को आश्रय बनाकर चित्त की स्थिरता का सूरि इन दो आचार्यों ने योगशास्त्र के सम्बन्ध में प्रयास अथवा किसी भी अपने अभिमत देव आदि अपनी लेखनी चलाई है । इनकी रचनाओं में हेमका ध्यान भिन्न-भिन्न परम्पराओं में चित्तवृत्ति- चन्द्रकृत योगशास्त्र एवं हरिभद्रसूरिकृत योगदृष्टिनिरोध के उपाय के रूप में स्वीकृत रहे हैं। उत्तर समुच्चय, योगबिन्दु, योगशतक और योगविशिका काल में भी साधना की पद्धतियों में यथावश्यक ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं । इनमें से अन्तिम दो अर्थात् हरिप्रयोग होते रहे हैं और उसके फलस्वरूप साधना भद्रसूरिकृत योगशतक और योगविंशिका अर्ध
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मागधी प्राकृत में हैं शेष तीन ग्रन्थ अर्थात् हेम- साधना के प्रसंग में साधक की द्वितीय अवस्था । चन्द्रकृत योगशास्त्र एवं हरिभद्रसूरिकृत योगदृष्टि- वह होती है, कि वह साधना में श्रद्धापूर्वक प्रवृत्त समुच्चय एवं योगबिन्दु संस्कृत भाषा में निबद्ध हैं। ही नहीं होता बल्कि रखलन से, विचलन से, सुर
इन दोनों ही आचार्यों ने साधना पथ के रूप क्षित रहता है, उसका समस्त व्यवहार, उसका में महर्षि पतन्जलि द्वारा प्रवर्तित अष्टांग को ही समस्त आचार, उसकी समस्त साधना शास्त्रों के प्राय : स्वीकार करते हुए उसका विवरण दिया है अनुकूल, गुरुजनों द्वारा प्रदर्शित मार्ग के अनुकूल अथवा उसके प्रभाव की फल की चर्चा करके उस चलती रहती है। साधक की इस अवस्था का नाम अष्टांग योग साधना की ओर जन सामान्य को शास्त्रयोग है। इस अवस्था में प्रमाद का पूर्ण प्रवृत्त करने का प्रयत्न किया है । आचार्य हेमचन्द्र अभाव रहता है। साधना की तृतीय अवस्था में के योगशास्त्र में अष्टांग योग को ही अविकल साधक सभी प्रकार की विघ्न बाधाओं से ही पूर्णतः स्वीकार किया गया है, जबकि हरिभद्रसूरि के अर्ध- सुरक्षित नहीं होता, बल्कि वह सिद्धावस्था के निकट मागधी प्राकृत में निबद्ध योगशतक और योग- पहुँच जाता है । उसे धर्म का, आत्मतत्व का साक्षाविशिका में साधना एवं तपश्चर्या के प्रसंग में कार हो चुका होता है। शास्त्र प्रतिपादित रहस्य सामान्य श्रावकों गृहस्थों अथवा नवदीक्षित मुनियों उसे आत्मसात् हो चुके होते हैं, प्रातिभ ज्ञान, जिसे के लिए अत्यन्त संक्षेप में साधना सम्बन्धी नियमों पतञ्जलि के योग सूत्र में वियेकख्याति कहा गया का अथवा साधना विधि का निबन्धन हुआ है। है, उसे प्रकट हो चुका होता है, यह प्रातिभज्ञान योगबिन्दु में भी जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, तत्वज्ञान कहा जा सकता है, जो निश्चय ही श्रुत संस्कृत भाषा में जैन साधकों के लिए अपेक्षित तप- ज्ञान अर्थात विविध शास्त्रों में वर्णित विषयों के | श्चर्या और साधना के पथ का संक्षिप्त परिचय ज्ञान से और अनमान आदि प्रमाणों से प्राप्त ज्ञान प्रस्तुत हुआ है। हरिभद्र सूरि का योगविषयक से कहीं उत्कृष्ट होता है । इस प्रकार वह सर्ववश्यी प्रधान ग्रन्थ योगदृष्टिसमुच्चय है। यहाँ भी जैसा होता है, साथ ही उसमें अनन्त सामर्थ्य भी होता कि ग्रन्थ के नाम से ही संकेत मिल जाता है, योग है, जिसके फलस्वरूप उसमें किसी प्रकार के प्रमाद साधना के पथ का नहीं बल्कि उसकी पृष्ठभूमि में की सम्भावना नहीं रहती। हरिभद्र सूरि ने इस | आधार के रूप में विद्यमान योग दृष्टियों का वर्णन ततीय अवस्था का वर्णन करके इसे सामर्थ्य योग हआ है। साथ ही योग साधना की चार स्थितियों संज्ञा प्रदान की है। का भी अत्यन्त प्रशस्त विवरण किया गया है। योग-साधना की सर्वोच्च अवस्था वह है अब
साधना की प्रथम अवस्था वह होती है जब न केवल योगी का ग्रन्थि भेदन हो चुका रहता है साधक शास्त्रों अथवा उससे सम्बद्ध कुछ ग्रन्थों को बल्कि उससे अहंता ममता आदि समस्त भावों का पढ़कर अथवा विद्वान गुरुजनों अथवा आचार्यों, उपशम हो गया है । उसमें न राग है न द्वेष, न मुनियों के मुख से योग साधना की महिमा को कर्तृत्व की भावना हैं न फल की कामना, उसकी जानकर उसके लिए (योग साधना के लिए) संकल्प समस्त आसक्तियाँ पूर्णतया विलीन हो चुकी हैं। लेता है, उसके अनुसार (आचरण के लिए) व्यवहार समस्त संकल्पों का विलय हो चका है। और उसने के लिए प्रयत्नपूर्वक प्रवृत्त भी होता है किन्तु मध्य- सर्व संन्यासमयता की स्थिति प्राप्त कर लो है, मध्य में प्रमाद असंलग्नता नहीं रह पाती, कभी-कभी इस प्रकार वह जीवन्मुक्त हो चुका है । यही साधना में विघ्न हो जाता है, साधना बाधित हो अवस्था साधना की पूर्णावस्था है, मोक्ष की अवस्था जाती है । हरिभद्र सूरि ने साधक की इस अवस्था है अतः इसे साधना की अवस्था कहने के स्थान पर को इच्छा योग के नाम दिया है ।।
सिद्धावस्था कहना अधिक उचित है। योग की इस २३४
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पूर्णावस्था का आचार्य हरिभद्रसूरि ने अयोग नाम दिया है ।" अयोग का अर्थ है सर्वतोभावेन निर्लिप्तता की स्थिति, जिसे श्रीमद्भगवद् गीता में स्थित प्रज्ञता की स्थिति कहा गया है
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः । वीतरागभय क्रोधः स्थितधीः मुनिरुच्यते || यः सर्वत्रानभिस्नेहः तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् । नाभिनन्दति न द्व ेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता । 7
आचार्य हरिभद्रसूरि ने योग की उपर्युक्त अवस्थाओं का वर्णन साधना की स्थिति का मूल्यां कन करने के लिए आत्मपरीक्षा के उद्देश्य से किया है जिससे साधना के मार्ग में साधक अपनी स्थिति की पूर्ण जानकारी रखते हुए देश और काल को ध्यान में रखकर अपनी साधना को और सुदृढ़ कर सके, गति दे सके । साथ ही उसके मार्ग दर्शक गुरु भी उसकी अवस्था का मूल्यांकन करते हुए उसे अपेक्षित संरक्षण और मार्ग दर्शन प्रदान कर सकें । इस दृष्टि से इन अवस्थाओं का वर्णन अत्यन्त महत्वपूर्ण तो है ही, पतञ्जलि के सूत्रों में अथवा उनके भाष्य अथवा वृत्तियों में अथवा सिद्ध सम्प्रदाय के आचार्य गोरक्षनाथ आदि के योग बीज, योग शिखा, अमनस्क योग, योग कुण्डली आदि ग्रंथों में भी इनकी चर्चा न होने से अत्यन्त मौलिक भी है ।
साधना के क्रम में साधक की मानसिक अवस्थाएं भी साधना के मूल्यांकन के लिए, साधक की दृष्टि से साधना मार्ग की अनुकूलता प्रतिकूलता का मूल्यांकन करने की दृष्टि अपना विशेष महत्व रखती हैं । स्मरणीय है कि साधना के क्रम में साधक की मनःस्थिति का सर्वाधिक महत्व है । | मनःस्थिति ही साधक को साधना में प्रवृत्ति देती है और प्रवृत्त रखती है । पूर्ण चित्त वृत्तिनिरोध रूप समाधि की स्थिति भी मन की ही अवस्था विशेष | है | मनःस्थिति के कारण ही लोक की कोई घटना किसी व्यक्ति को सुख प्रदान करती है तो किसी
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को वही घटना दुःख और पीड़ा प्रदान करती है । पतंजलि के भाष्यकर व्यास द्वारा निर्दिष्ट क्षिप्त, मूढ़ विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध अवस्थाएँ चित्त की ही अवस्थाएँ हैं जिनका सूक्ष्म विवेचन व्यास ने योग सूत्र भाष्य में किया है । "
ज्ञान अथवा तत्वबोध की अवस्था भी मन की अवस्था विशेष है । जिसे बौद्ध, जैन, वैशेषिक, न्याय और वेदान्त दर्शनों में मोक्ष का एकमात्र उपाय माना गया है । पतञ्जलि द्वारा निर्दिष्ट साधना मार्ग में भी निर्विचारा सम्प्रज्ञात समाधि की स्थिति में पहुँचने पर अध्यात्मप्रसाद और ऋतम्भरा प्रज्ञा के उदय की चर्चा की गई है । और स्वीकार किया गया है कि विवेक ख्याति अपर पर्याया ऋतम्भरा प्रज्ञा के संस्कार अन्य समस्त संस्कारों का प्रतिबन्धन करते हैं जिसके अनन्तर ही साधक निर्बीज समाधि पर पहुँचता है ।" इस प्रकार मन की अवस्थाओं का विवरण योगसाधना के क्रम में स्वयं अपनी और अपने शिष्य अथवा सब्रह्मचारी साधक की साधना पथ पर स्थिति और साधना पथ के प्रभावी या अप्रभावी होने मूल्यांकन के लिए न केवल अत्यन्त उपयोगी है बल्कि अनिवार्यतः अपेक्षित भी है ।
आचार्य हरिभद्रसूरि ने मन की नव अवस्थाओं का वर्णन किया है । इन अवस्थाओं में ओघदृष्टि, जिसे मिथ्यादृष्टि भी कहते हैं, साधना से रहित अज्ञानी पुरुष की मानसिक अवस्था है। शेष मित्रा तारा बला दीप्रा स्थिरा कान्ता प्रभा और परा आठ साधक की मानसिक अवस्थाएं हुआ करती हैं । इनमें प्रथम से अन्तिम तक क्रमशः उच्च उच्चतर और उच्चतम स्थिति में पहुँचे हुए साधकों की मन की अवस्थाएँ हैं । 10 इसीलिए इन्हें योगदृष्टियाँ कहा जाता है । साधकों के मन की ये विशिष्ट स्थितियाँ हरिभद्रसूरि के अनुसार यम नियम आदि का अभ्यास करने के फलस्वरूप वेद आदि उद्वेगों की निवृत्ति होने के अनन्तर प्राप्त होती हैं। जब तक चित्त में राग और द्वेष के वेग विद्यमान रहते हैं और जब तक मंत्री,
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१ करुणा और मुदिता आदि वृत्तियों का उदय नहीं उन्नयन होने पर हितकार्यों के सम्पादन में उद्वेग का
होता और चित्त का प्रसादन नहीं होता, तब तक अभाव, तात्विक जिज्ञासा एवं परम तत्त्व विषयक साधक मन की इन स्थितियों को प्राप्त नहीं कर कथा में अविच्छिन्न प्रीति, योगिजनों के प्रति श्रद्धापाता।
तिरेक एवं उनकी कृपा, उनके प्रति पूर्ण विश्वास की हरिभद्र सूरि के अनुसार योग साधना में संलग्न भावना, अकर्मों से निवृत्ति, द्वेषभाव का अभाव, भव साधक जब अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और भय से भी निवृत्ति मोक्ष की प्राप्ति । समस्त दुःखों व अपरिग्रह इन यमों का निष्ठापूर्वक पालन करने की निवृत्ति की अवश्यम्भाविता का विश्वास आदि लगता है, तब उसके मन में मैत्री भाव प्रतिष्ठित मनोभाव चित्त में स्थिर होने लगते हैं। मन की होता है, उसे मित्रा दृष्टि प्राप्त होती है। सामान्य इस स्थिति को तारादृष्टि कहते हैं। पतञ्जलि के
रूप से मैत्रीभाव अथवा मित्रा दृष्टि शब्द से ऐसा अनुसार नियमों की साधना के फलस्वरूप स्वयं ॐ प्रतीत होता है, मानो यह मनोभाव प्रेम से समन्वित अपने शरीर सहित दूसरों के शारीरिक संसर्ग के OF मन की स्थिति है, जो दृष्टि वैरभाव का त्याग करने के प्रति घृणा पूर्ण अरुचि, बुद्धि और मन की पवि
से प्राप्त होती है। पतञ्जलि के अनुसार वैरभाव त्रता, इन्द्रियजय, अतिशय तृप्ति, शरीर और इन्द्रियों की निवृत्ति रूप फल की प्राप्ति अहिंसा नामक यम में अतिशय सामथ्यं, इष्टदेवों की कृपा, चित्त की पूर्णा
न से भी हआ करती है। किन्त एकाग्रता. एवं आत्मदर्शन की योग्यता आदि परियहां वस्तुतः मित्रा दृष्टि में देवों के प्रति श्रद्धा देव णाम साधक को परिलक्षित होते हैं। पतञ्जलि कार्यों के सम्पादन में रुचि, उनके हेतु कार्य सम्पादन निर्दिष्ट इन फलों में शरीर एवं इन्द्रियों में अतिशय के प्रसंग में खेद का अभाव अर्थात् देव कार्यों के सामर्थ्य, इष्ट देवों की कृपा तथा आत्मदर्शन की
सम्पादनार्थ अभूतपूर्व बल एवं साधना से सम्पन्न योग्यता मन की स्थितियां नहीं है। अतः स्वाभाAll होना उन कार्यों में पूर्ण सफल होने का विश्वास विक है कि दृष्टियों अर्थात् मनःस्थितियों की चर्चा
अर्थात् क्रियाफलाश्रयत्व और साथ ही सफलता की करते हए हरिभद्रसूरि इनकी चर्चा नहीं करते । स्थिति में उसके प्रति अन्य जनों के हृदय में साथ ही अन्यथा पतञ्जलि-निर्दिष्ट नियम साधना के प्रायः अन्य जनों के प्रति हृदय में निर्वैर भाव की प्रतिष्ठा सभी फलों की चर्चा यहाँ समान रूप से हुई है।
के साथ सम्मिलित हैं। मन की इस साथ ही योगीजनों के साथ हृदय संवाद और उन 10 स्थिति में तत्त्वज्ञान अत्यन्त प्रारम्भिक अवस्था में ही पर पूर्ण विश्वास की चर्चा हरिभद्र सूरि के अनुभव GL रहता है । इसके अतिरिक्त मित्रा दृष्टि का उदय हो वर्णन में नवीन है। जो उनकी सूक्ष्म दृष्टि और
जाने पर साधक के चित्त में केवल कुशलकर्म करने की अनुभव की ओर इंगित करती है। भावना रहती है, अकुशल कर्मों की स्वतः निवृत्ति होने यहाँ एक बात अवश्य विचारणीय है कि हरिलगती है, उसमें कर्मफल के प्रति आसक्ति सामा- भद्र सूरि के अनुसार मित्रा और तारा दृष्टियाँ र न्यतः नहीं रहती, सांसारिक प्रपंच के प्रति वैराग्य, साधना के मार्ग में चलने वाले योगो के मन की दान कर्म में प्रवृत्ति, शास्त्र सम्मत चिन्तन एवं प्राथमिक दो स्थितियाँ हैं जिनकी प्राप्ति उनके लेखन तथा स्वाध्याय आदि में सहज प्रवृत्ति आदि अनुसार क्रमशः यम और नियमों के पालन करने का भावनाएँ एवं क्रियाएँ उनके जीवन की अंग बनने से होती है। इससे यह भी लगता है कि हरिभद्र लगती हैं।14
सूरि यम और नियमों को साधना के क्रम में क्रमशः साधना के क्रम में, हरिभद्र सूरि के अनुसार अपनाये जाने वाले दो प्राथमिक सोपान के रूप में यमों और साथ-साथ नियमों का भी पूर्ण निष्ठा के स्वीकार करते हैं। जबकि पतञ्जलि इन दोनों का साथ पालन करने से मानसिक स्थिति का कुछ और प्रथम निर्देश करते हुए भी इन्हें प्रथम द्वितीय
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सोपान के रूप में स्वीकार नहीं करते। उनके मानसिक अभ्युन्नति का तृतीय स्तर बलादृष्टि है। अनुसार यमों की साधना न तो नियमों के पालन बलादृष्टि का तात्पर्य है मन में दृढ़ता। हरिभद्र - के लिए साधक में योग्यता उत्पन्न करती है, और सूरि के अनुसार इसकी प्राप्ति आसन साधना से न वे ऐसा ही संकेत करते हैं कि नियमों के पालन होती है। तत्त्वदर्शन में दृढ़ता, तत्त्वश्रवण की उत्कट के पूर्व यमों के पालन में सिद्धि अनिवार्य है। और अभिलाषा मानसिक, दृढता के फलस्वरूप विक्षेपों इनमें सिद्धि के बाद ही आसन साधना की जा का अभाव. लौकिक जीवन के साथ ही पारलौकिक सकेगी। वस्तुतः वे इन्हें (यमों और नियमों को) जीवन में भी प्रणिधान, समस्त कर्मफलों का नाश योग साधना में अन्त तक आवश्यक मानते हैं। और निर्बाध प्रगति होने से अभ्युदय की प्राप्ति में इसी कारण वे हिंसा आदि के मूल में लोभ, मोह पूर्ण विश्वास बलादृष्टि की स्थिति में मन में विद्य
और क्रोध का संकेत करके अहिंसा आदि के पालन मान रहते हैं ।18 योगसूत्रकार पतञ्जलि यद्यपि में इन लोभ आदि की निवृत्ति अनिवार्य मानते हैं, आसन साधना के फलस्वरूप क्षुधा-पिपासा, शीतऔर इनकी पूर्णतया निवृत्ति प्रत्याहार सिद्धि के ताप आदि द्वन्द्वों से अनभिघात और उसके फलबाद ही हो सकती है उससे पूर्व नहीं। साथ ही वे स्वरूप प्राणायाम करने की योग्यता की उपलब्धि नियमों में अन्यतम ईश्वर प्रणिधान को समाधि, को ही आसन साधना का फल स्वीकार करते हैं, अर्थात् चित्त की पूर्ण एकाग्रता के प्रति योग साधना किन्तु आसन के अंग के रूप में अनन्त समापत्ति की के अन्तिम अंग के प्रति कारण मानते हैं । यह भी साधना से प्राप्त द्वन्द्वों से मुक्ति के फलस्वरूप मन स्मरणीय है कि पतञ्जलि आसनों को प्राणायाम में जिस दृढता का उदय होता है। और उसके के लिए योग्यता प्राप्त करने में, प्राणायाम को फलस्वरूप जो प्रणिधान सिद्ध होता है उसके कारण धारणा की योग्यता प्राप्त करने में कारण मानते
शभ आध्यात्मिक फलों का सहज भाव से मन में हैं और इस तथ्य का स्पष्ट निर्देश भी “तस्मिन्सति दर्शन मन की एक विशेष स्थिति है जिसका विवरण श्वास प्रश्वासयोः गति विच्छेदः प्राणायामः ।" ततः आचार्य हरिभद्र सूरि के अतिरिक्त किसी आचार्य ने क्षीयते प्रकाशावरणम्, धारणासु च योग्यतामनसः। नहीं किया है। सूत्रों द्वारा करते हैं। इनके अतिरिक्त वे यह भी मन की चतुर्थ अभ्युन्नत स्थिति साधना पथ स्वीकार करते हैं कि आसन, प्राणायाम और प्रत्या- का पूर्वार्ध पार करने पर होती है। दूसरे शब्दों में हार ये प्रथम तीन धारणा आदि तीन की दृष्टि से हम कह सकते हैं कि इस अवस्था में साधक सामान्य बहिरंग है ।16 एक प्रकार से साधना है। तथा मानव न रहकर असामान्य हो जाता है, अलौकिक धारणा आदि तीन चित्त की एकाग्रता की तीन भाव को प्राप्त कर लेता है। अतएव वह मानव स्थितियाँ भी निर्वीज समाधि के प्रति बहिरंग है। सामान्य में रहने वाले बोध की अवस्था बुद्धि और अर्थात् उनमें भी साध्य साधन भाव है। किन्तु यम ज्ञान के बाद असम्मोह की अवस्था में पहुँच जाता 710 नियमों के सम्बन्धों में वे ऐसा संकेत नहीं करते है। असम्मोह को इस अवस्था में ज्ञान के सभी पक्ष हैं । तीन, तीन के दो वर्ग बनाते हुए अर्थात् प्रथम ज्ञाता को विदित होते हैं । जैन दर्शन में स्वीकृत वर्ग की साधना की स्थूलता एवं द्वितीय वर्ग की सप्तभंगी नय के अनुसार किसी पदार्थ के भिन्नसाधना की सूक्ष्मता की ओर संकेत करते समय भी भिन्न दृष्टियों से जितने विकल्पात्मक स्वरूप हो वें इन दोनों को किसी वर्ग में सम्मिलित नहीं सकते हैं, उन सभी स्वरूपों का उसे यथार्थबोध PAK करते।
रहता है, फलस्वरूप उसके चित्त में संकल्प की कोई - साधना के परिणामस्वरूप प्राप्त होने वाली सम्भावना नहीं रहती। इसी कारण लौकिक जीवन X|| ततीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
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यात्रा के क्रम में उसके शरीर द्वारा सम्पन्न होने में न फंसता है न उद्विग्न होता है, बल्कि आप्त काम वाले कर्म संकल्प विकल्प के अभाव में बन्धन के की भाँति सर्वत्र अनासक्त और निष्काम बना रहता कारण नहीं बनते । और साधक यदि भावातीत है।24 दत्तात्रेय के अनुसार केवल कुम्भक की सिद्धि अवस्था में विद्यमान है तो वे हो कर्म निर्वाण प्रदान के प्रारम्भावस्था में ही योगी का शरीर कामदेव कराने वाले भी हो जाते हैं।
की भाँति सुन्दर हो जाता है, और उसके रूप पर । साधक की इस चतर्थ अवस्था की प्राप्ति प्राणा- मोहित होकर कामिनियाँ उसके साथ संगम की याम साधना के फलस्वरूप होती है। प्राणायाम कामना करती है । हरिभद्र सूरि न योगी की इस साधना के फल के रूप में योगसूत्रकार पतञ्जलि ने मनः अवस्था को कान्ता दृष्टि कहा है। उनके अनुयद्यपि प्रकाश के आवरण का क्षय और धारणा की सार यह अवस्था धारणा की साधना से प्राप्त योग्यता का उत्पन्न होना ही स्वीकार किया है. और होती है। प्रकाश के आवरण-क्षय होने पर बोध की वह अष्टांग योग का सातवाँ अंग ध्यान है । इसकी स्थिति स्वीकार की जा सकती है जिसे आचार्य साधना में सफलता मिलने पर हरिभद्रसूरि के हरिभद्र सूरि ने असम्मोह कहा है। किन्तु इस प्रसंग अनुसार चित्त में न केवल एकाग्रता आती है बल्कि में दत्तात्रेय योगशास्त्र का वह कथन स्मरणीय है धर्मध्यान में वह लीन रहने लगता है । तत्वबोध के जहाँ प्राणायाम की उत्तर अवस्था केवल कुम्भक साथ सत्य में प्रवृत्ति एवं काम पर पूर्ण विजय इस के सिद्ध होने पर योगी के लिए कुछ भी दुर्लभ नहीं अवस्था में योगी में विद्यमान रहती है अर्थात् कामरह जाता यह स्वीकार किया गया है। साथ ही यह विषयक भावना और कामनाओं का किंचिन्मात्र भी माना गया है कि प्राणायाम के सिद्ध होने पर भी उदय उस अवस्था में योगी के हृदय में नहीं साधक योगी जीवन्मुक्त हो जाता है ।
होता। इसके अतिरिक्त ध्यान के फलस्वरूप अन्तर् ___ आचार्य हरिभद्र सूरि के अनुसार योगी की आनन्द की अनुभूति और पूर्ण शान्ति की अनुभूति पंचम मानसिक अवस्था वह होती है. जब तमो- इस अवस्था में होती है। चित्त की इस अवस्था को ग्रन्थि का भेदन हो जाता है, फलस्वरूप उसकी हरिभद्रसूरि ने प्रभादृष्टि नाम दिया है। इस समस्त चर्याएँ शिशु की क्रीड़ा मात्र रहती हैं, और अवस्था में दिव्य ज्ञान तादात्म्य भाव से चित्त में उसके सभी कर्म धर्मविषयक बाधा को दूर करने निरन्तर विद्यमान रहता है इसलिए इसे प्रभादृष्टि वाले ही हुआ करते हैं । इस प्रसंग में श्रीमद्भगवद् नाम दिया गया है।
गीता में योगीराज कृष्ण के धर्म संस्थापनार्थाय योगी के मन की सर्वोच्च अवस्था समस्त आसंग o सम्भवामि युगे युगे ।"23 वचन तुलनीय है । मन की से अलग रहकर समाधिनिष्ठ रहने की है। समाधिAS इस स्थिति को स्थिरादृष्टि कहा जाता है। और निष्ठ होने के कारण इस अवस्था में पहुँचने पर
यह हरिभद्र सूरि के अनुसार प्रत्याहार की साधना उसे किन्हीं लौकिक आचार के पालन की अपेक्षा से प्राप्त होती है।
नहीं रहती। पूर्वकृतकृत्यता और धर्म संन्यास इस all आचार्य हरिभद्र सूरि ने योगी के मन की छठी अवस्था की मुख्य विशेषता है । जीवनकाल में यह स्थिति वह मानी है जब वह अपनी कमनीयता के योगी ज्ञान कैवल्य अवस्था में रहता है अर्थात् अद्वय कारण सर्वजन प्रिय ही नहीं सर्वजन काम्य हो जाता भाव की अनुभूति उसे सभी काल में बनी रहती है। है। असंख्य स्त्रीरत्न भूता कामिनियाँ उसकी ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय इस त्रिपुटी का भेद उसके | कामना करती हैं किन्तु वह स्थितप्रज्ञ माया प्रपंच मानस से पूर्णतः मिट जाता है। इसे ही उपनिषदों |२३८
तताय
ण्ड : धर्म तथा दर्शन
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की भाषा में 'अहं ब्रह्मास्मि' रूप महावाक्य द्वारा प्रगट किया गया है । यह योगी की पूर्ण सिद्धावस्था है । इसे हरिभद्रसूरि ने परा दृष्टि नाम दिया इस अवस्था में पहुँचने के बाद योगी की भवव्याधि का क्षय हो जाता है । और वह अपनी इच्छानुसार निर्वाण प्राप्त कर लेता है ।
जैसा कि पहले चर्चा की जा चुकी है हेमचन्द्र ने पतञ्जलि निर्दिष्ट साधना सम्बन्धी सिद्धांतों को सम्पूर्णतया स्वीकार किया है किन्तु साथ ही उन्होंने स्थान-स्थान पर जो अपना मौलिक चिन्तन निबद्ध किया है वह साधना के पथ के पथिकों के लिए अपूर्व है।
बारह प्रकाशमय हेमचन्द्र के योगशास्त्र के प्रथम प्रकाश में ही सम्पूर्णकाल में साधना में रत रहने वाले मुनियों, अंशकालीन साधकों के लिए भी सामान्य जीवन में व्यवहार्य साधना विधि का विवरण दिया है । प्रथम प्रकाश में वर्णित साधना विधियों का विस्तार सम्पूर्ण ग्रन्थ में हुआ है । इनके द्वारा निर्दिष्ट द्वादश व्रतों में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह पांच अणुव्रत, दिग्विरति, भोगोपभोगमान, अनर्थ दण्ड विरमण तीन गुणव्रत तथा सामायिक, देशावकाशिक, पौषध और अतिथि संभाग चार शिक्षाव्रत गृहस्थों के लिए ही हैं | गुणव्रतों में इन्होंने मदिरा मांस नवनीत मधु उदम्बर आदि के भक्षण का निषेध करते हुए रात्रि भोजन का भी निषेध किया है । गृहस्थों को भी अपनी आध्यात्मिक साधना से कभी विरत नहीं होना चाहिए यह मानकर इन्होंने ब्राह्ममुहूर्त में जागरण से लेकर रात्रि तक की दिन चर्या का भी स्पष्ट वर्णन किया है जिससे वे भी मोक्षपथ के पथिक बने रहें । साधना के क्षेत्र में यह निर्देश सर्वप्रथम आचार्य हेमचन्द्र ने ही दिया
है ।
सामान्य (मुनि) साधकों के लिए भी आचार्य हेमचन्द्रसूरि का योगशास्त्र अपनी मौलिकता से
तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
आज भी सर्वातिशयी बना हुआ है । उनके अनुसार साधक को इन्द्रियजय, कषायजय मनःशुद्धि और जय के लिए निरंतर प्रयत्न करना चाहिए । एतदर्थ उन्होंने बारह भावनाओं को उद्दीप्त करने की विधियों का विस्तार से वर्णन किया है जो साधना मार्ग की पृष्ठभूमि कही जा सकती है । इस क्रम में उन्होंने समत्वबुद्धि को सर्वाधिक महत्व दिया है। साथ ही आसन, प्राणायाम और ध्यान का विस्तृत वर्णन किया है । यद्यपि उनकी मान्यता है कि साधना के क्रम में प्राणायाम निरर्थक है, कष्टप्रद है, और इसी कारण मुक्ति में बाधक भी है ।
आचार्य हेमचंद्र ने ध्यान पर सर्वाधिक बल दिया है । उनके अनुसार ध्यान की साधना से पूर्वं साधक को ध्यान, ध्येय और उसके फल को भली जान लेना चाहिए अन्यथा ध्यान साधना में सिद्धि की सम्भावना कम रहेगी। आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार ध्येय पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत भेद से मुख्यतः चार प्रकार का होता है। ध्यान साधना के प्रारम्भ में साधक पिण्डस्थ पदस्थ अथवा रूपस्थ तीनों में से किसी ध्येय का ध्यान कर सकता
है । किन्तु ध्यान साधना की पूर्णता रुपातीत ध्येय का ध्यान करने में ही है । रूपातीत ध्यान में आज्ञा विचय आदि चार प्रकार का धर्म ध्यान तथा पृथक्त्व वितर्क आदि चार प्रकार का शुक्ल-ध्यान होता है। इनका विस्तारपूर्वक विवरण आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में दिया है । इस प्रकार हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में साधना के व्यावहारिक पक्ष का विस्तार से वर्णन करके अन्त में विक्षिप्त, यातायात, श्लिष्ट सुलीन इन चित्तभेदों तथा बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा नाम से आत्म-तत्व का दार्शनिक विवेचन भी किया है ।
आचार्य हेमचन्द्र के योग विषयक विवेचन की तुलना यदि हम पतञ्जलि से करना चाहे तो हमें विदित होता है कि पतञ्जलि ने योग सूत्रों में साधना पक्ष का संकेत मात्र किया है एवं दार्शनिक तथा मनोवैज्ञानिक पक्ष का अत्यन्त गम्भीरता से
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________________ वर्णन किया है, जबकि हेमचंद्रकृत योगशास्त्र में उसके दर्शन पक्ष के अध्ययन के लिए ही सम्भवतः साधना पक्ष का बहुत विस्तार से एवं स्पष्ट विव- होता रहा है / जबकि जैन आचार्यों ने ग्रन्थों में भी रण दिया गया है एवं दर्शन पक्ष की भी उपेक्षा उसका निबन्धन करके तथा सामान्य गृहस्थों के नहीं की गई है / इसी प्रसंग में यदि हम आचार्य लिए एक सीमित मात्रा में उसको अनिवार्य घोषित . हरिभद्रसूरि के योगदृष्टिसमुच्चय, योगबिन्दु कर योग साधना को जन सामान्य तक पहुँचाने योगविशिका और योगशतक के विवेचन को का महनीय कार्य किया है। और यह उनका योगभी सम्मिलित कर लें तो यह निष्कर्ष प्राप्त होगा दान लोक तथा योग विद्या दोनों के लिए एक अविकि पतञ्जलि की परम्परा में योग साधना शिष्य स्मरणोय योगदान मानना चाहिए। को गुरु से ही प्राप्त होती रही है, ग्रंथों का अध्ययन C indiansanine सन्दर्भ 1 अभ्यास वैराग्याभ्यां तन्निरोधः। (1.12) ईश्वर प्रणिधानाद्वा (1 प्रच्छर्दन विधारणाभ्यां वा प्राणम्य (1.34) विषयवती वा पंवृत्ति सत्पन्ना मनसः स्थिति निबन्धिंनी (1.35) विशोका वा ज्योतिष्मती (1.36) तीतारागविषयं वा चित्तम् (1.37) / स्वप्ननिद्राज्ञानालम्बनं वा (1.38) यथाभिमतध्यानाद्वा (1.36) / योगसूत्र 2 योगद्दष्टि समुच्चय, 3 3 योगदृष्टि समुच्चय, 4 4 ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा, श्रुतानुमान प्रज्ञाभ्यामन्यविषया विशेषार्थत्वात् / -योग सूत्र 1.48-46 5 योगदृष्टिसमुच्चय 5- 8 6 योगदृष्टि समुच्चय 11 7 गीता 2.56-57 8 क्षिप्तं मढं विक्षिप्तमेकान निरुद्धमिति चित्तभूमयः / योगभाष्य 1.1 पृष्ठ 1 8 निविचार वैशारोऽध्यात्मप्रसादः / ऋतंभरा तत्र प्रज्ञा। तज्जः संस्कारोन्य संस्कार प्रतिवन्धी / तस्यापि निरोध सर्वनिरोधान्निर्वीजः समाधिः।। -योग सूत्र 1.47-48-50-51 10 मित्रा तारा बला दीप्रा स्थिरा कांता प्रभा परा / नामानि योगदृष्टीनां""। -योगदृष्टिसमुच्चय 13 11 यमादि योग युक्तानां खेदादि परिहारतः / अद्वषादिगुणस्थानं क्रमेणैषा सताम्मता। -योगदृष्टि समुच्चय 16 __ अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः / -यो० सू० 2.35. 13 मित्रायां दर्शनं मन्दं यम इच्छादिकं तथा / आवेदो देवकार्यादो अद्वेषश्चापरत्र च ।-योगदृष्टि समुच्चय 21 / / 14 वही० 24-27. 15 यो. सू. 2.46, 52-53 / 16 तदपि बहिरंग निर्बीजस्य / -यो. सू. 3.8 / 17 त्रयमन्तरंग पूर्वेभ्यः / -यो. सूत्र. 37-1 / 18 योगदृष्टि समुच्चय 46-56 / / 16 असम्मोहसमुत्थानि त्वेकान्तपरिरुद्धितः। निर्वाण फलान्याशु भावातीतार्थ यायिनाम् // -वही 126 20 केवले कुम्भके सिद्ध रेचपूरक वजिते / न तस्य दुर्लभं किंचि लिषु लोकेषु विद्यते / / -दत्तात्रेय योगशास्त्र१४-४० 21 वायु निरुध्य मेधावी जीवन्मुक्तो भवेद् ध्र वम् / -वही 246 22 योगदृष्टि समुच्चय 153-161 / 23 भगवद्गीता। __ कन्दर्पस्य यथारूपं तथा तस्यापि योगिनः। तद्रूपवशगा: नार्यः क्षन्ते तस्य संगमम् // -दत्ता० यो० शा० 105-167 240 तुतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन 3 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ . Formsrivated personalise only