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की भाषा में 'अहं ब्रह्मास्मि' रूप महावाक्य द्वारा प्रगट किया गया है । यह योगी की पूर्ण सिद्धावस्था है । इसे हरिभद्रसूरि ने परा दृष्टि नाम दिया इस अवस्था में पहुँचने के बाद योगी की भवव्याधि का क्षय हो जाता है । और वह अपनी इच्छानुसार निर्वाण प्राप्त कर लेता है ।
जैसा कि पहले चर्चा की जा चुकी है हेमचन्द्र ने पतञ्जलि निर्दिष्ट साधना सम्बन्धी सिद्धांतों को सम्पूर्णतया स्वीकार किया है किन्तु साथ ही उन्होंने स्थान-स्थान पर जो अपना मौलिक चिन्तन निबद्ध किया है वह साधना के पथ के पथिकों के लिए अपूर्व है।
बारह प्रकाशमय हेमचन्द्र के योगशास्त्र के प्रथम प्रकाश में ही सम्पूर्णकाल में साधना में रत रहने वाले मुनियों, अंशकालीन साधकों के लिए भी सामान्य जीवन में व्यवहार्य साधना विधि का विवरण दिया है । प्रथम प्रकाश में वर्णित साधना विधियों का विस्तार सम्पूर्ण ग्रन्थ में हुआ है । इनके द्वारा निर्दिष्ट द्वादश व्रतों में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह पांच अणुव्रत, दिग्विरति, भोगोपभोगमान, अनर्थ दण्ड विरमण तीन गुणव्रत तथा सामायिक, देशावकाशिक, पौषध और अतिथि संभाग चार शिक्षाव्रत गृहस्थों के लिए ही हैं | गुणव्रतों में इन्होंने मदिरा मांस नवनीत मधु उदम्बर आदि के भक्षण का निषेध करते हुए रात्रि भोजन का भी निषेध किया है । गृहस्थों को भी अपनी आध्यात्मिक साधना से कभी विरत नहीं होना चाहिए यह मानकर इन्होंने ब्राह्ममुहूर्त में जागरण से लेकर रात्रि तक की दिन चर्या का भी स्पष्ट वर्णन किया है जिससे वे भी मोक्षपथ के पथिक बने रहें । साधना के क्षेत्र में यह निर्देश सर्वप्रथम आचार्य हेमचन्द्र ने ही दिया
है ।
सामान्य (मुनि) साधकों के लिए भी आचार्य हेमचन्द्रसूरि का योगशास्त्र अपनी मौलिकता से
तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
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आज भी सर्वातिशयी बना हुआ है । उनके अनुसार साधक को इन्द्रियजय, कषायजय मनःशुद्धि और जय के लिए निरंतर प्रयत्न करना चाहिए । एतदर्थ उन्होंने बारह भावनाओं को उद्दीप्त करने की विधियों का विस्तार से वर्णन किया है जो साधना मार्ग की पृष्ठभूमि कही जा सकती है । इस क्रम में उन्होंने समत्वबुद्धि को सर्वाधिक महत्व दिया है। साथ ही आसन, प्राणायाम और ध्यान का विस्तृत वर्णन किया है । यद्यपि उनकी मान्यता है कि साधना के क्रम में प्राणायाम निरर्थक है, कष्टप्रद है, और इसी कारण मुक्ति में बाधक भी है ।
आचार्य हेमचंद्र ने ध्यान पर सर्वाधिक बल दिया है । उनके अनुसार ध्यान की साधना से पूर्वं साधक को ध्यान, ध्येय और उसके फल को भली जान लेना चाहिए अन्यथा ध्यान साधना में सिद्धि की सम्भावना कम रहेगी। आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार ध्येय पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत भेद से मुख्यतः चार प्रकार का होता है। ध्यान साधना के प्रारम्भ में साधक पिण्डस्थ पदस्थ अथवा रूपस्थ तीनों में से किसी ध्येय का ध्यान कर सकता
है । किन्तु ध्यान साधना की पूर्णता रुपातीत ध्येय का ध्यान करने में ही है । रूपातीत ध्यान में आज्ञा विचय आदि चार प्रकार का धर्म ध्यान तथा पृथक्त्व वितर्क आदि चार प्रकार का शुक्ल-ध्यान होता है। इनका विस्तारपूर्वक विवरण आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में दिया है । इस प्रकार हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में साधना के व्यावहारिक पक्ष का विस्तार से वर्णन करके अन्त में विक्षिप्त, यातायात, श्लिष्ट सुलीन इन चित्तभेदों तथा बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा नाम से आत्म-तत्व का दार्शनिक विवेचन भी किया है ।
आचार्य हेमचन्द्र के योग विषयक विवेचन की तुलना यदि हम पतञ्जलि से करना चाहे तो हमें विदित होता है कि पतञ्जलि ने योग सूत्रों में साधना पक्ष का संकेत मात्र किया है एवं दार्शनिक तथा मनोवैज्ञानिक पक्ष का अत्यन्त गम्भीरता से
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साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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