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१ करुणा और मुदिता आदि वृत्तियों का उदय नहीं उन्नयन होने पर हितकार्यों के सम्पादन में उद्वेग का
होता और चित्त का प्रसादन नहीं होता, तब तक अभाव, तात्विक जिज्ञासा एवं परम तत्त्व विषयक साधक मन की इन स्थितियों को प्राप्त नहीं कर कथा में अविच्छिन्न प्रीति, योगिजनों के प्रति श्रद्धापाता।
तिरेक एवं उनकी कृपा, उनके प्रति पूर्ण विश्वास की हरिभद्र सूरि के अनुसार योग साधना में संलग्न भावना, अकर्मों से निवृत्ति, द्वेषभाव का अभाव, भव साधक जब अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और भय से भी निवृत्ति मोक्ष की प्राप्ति । समस्त दुःखों व अपरिग्रह इन यमों का निष्ठापूर्वक पालन करने की निवृत्ति की अवश्यम्भाविता का विश्वास आदि लगता है, तब उसके मन में मैत्री भाव प्रतिष्ठित मनोभाव चित्त में स्थिर होने लगते हैं। मन की होता है, उसे मित्रा दृष्टि प्राप्त होती है। सामान्य इस स्थिति को तारादृष्टि कहते हैं। पतञ्जलि के
रूप से मैत्रीभाव अथवा मित्रा दृष्टि शब्द से ऐसा अनुसार नियमों की साधना के फलस्वरूप स्वयं ॐ प्रतीत होता है, मानो यह मनोभाव प्रेम से समन्वित अपने शरीर सहित दूसरों के शारीरिक संसर्ग के OF मन की स्थिति है, जो दृष्टि वैरभाव का त्याग करने के प्रति घृणा पूर्ण अरुचि, बुद्धि और मन की पवि
से प्राप्त होती है। पतञ्जलि के अनुसार वैरभाव त्रता, इन्द्रियजय, अतिशय तृप्ति, शरीर और इन्द्रियों की निवृत्ति रूप फल की प्राप्ति अहिंसा नामक यम में अतिशय सामथ्यं, इष्टदेवों की कृपा, चित्त की पूर्णा
न से भी हआ करती है। किन्त एकाग्रता. एवं आत्मदर्शन की योग्यता आदि परियहां वस्तुतः मित्रा दृष्टि में देवों के प्रति श्रद्धा देव णाम साधक को परिलक्षित होते हैं। पतञ्जलि कार्यों के सम्पादन में रुचि, उनके हेतु कार्य सम्पादन निर्दिष्ट इन फलों में शरीर एवं इन्द्रियों में अतिशय के प्रसंग में खेद का अभाव अर्थात् देव कार्यों के सामर्थ्य, इष्ट देवों की कृपा तथा आत्मदर्शन की
सम्पादनार्थ अभूतपूर्व बल एवं साधना से सम्पन्न योग्यता मन की स्थितियां नहीं है। अतः स्वाभाAll होना उन कार्यों में पूर्ण सफल होने का विश्वास विक है कि दृष्टियों अर्थात् मनःस्थितियों की चर्चा
अर्थात् क्रियाफलाश्रयत्व और साथ ही सफलता की करते हए हरिभद्रसूरि इनकी चर्चा नहीं करते । स्थिति में उसके प्रति अन्य जनों के हृदय में साथ ही अन्यथा पतञ्जलि-निर्दिष्ट नियम साधना के प्रायः अन्य जनों के प्रति हृदय में निर्वैर भाव की प्रतिष्ठा सभी फलों की चर्चा यहाँ समान रूप से हुई है।
के साथ सम्मिलित हैं। मन की इस साथ ही योगीजनों के साथ हृदय संवाद और उन 10 स्थिति में तत्त्वज्ञान अत्यन्त प्रारम्भिक अवस्था में ही पर पूर्ण विश्वास की चर्चा हरिभद्र सूरि के अनुभव GL रहता है । इसके अतिरिक्त मित्रा दृष्टि का उदय हो वर्णन में नवीन है। जो उनकी सूक्ष्म दृष्टि और
जाने पर साधक के चित्त में केवल कुशलकर्म करने की अनुभव की ओर इंगित करती है। भावना रहती है, अकुशल कर्मों की स्वतः निवृत्ति होने यहाँ एक बात अवश्य विचारणीय है कि हरिलगती है, उसमें कर्मफल के प्रति आसक्ति सामा- भद्र सूरि के अनुसार मित्रा और तारा दृष्टियाँ र न्यतः नहीं रहती, सांसारिक प्रपंच के प्रति वैराग्य, साधना के मार्ग में चलने वाले योगो के मन की दान कर्म में प्रवृत्ति, शास्त्र सम्मत चिन्तन एवं प्राथमिक दो स्थितियाँ हैं जिनकी प्राप्ति उनके लेखन तथा स्वाध्याय आदि में सहज प्रवृत्ति आदि अनुसार क्रमशः यम और नियमों के पालन करने का भावनाएँ एवं क्रियाएँ उनके जीवन की अंग बनने से होती है। इससे यह भी लगता है कि हरिभद्र लगती हैं।14
सूरि यम और नियमों को साधना के क्रम में क्रमशः साधना के क्रम में, हरिभद्र सूरि के अनुसार अपनाये जाने वाले दो प्राथमिक सोपान के रूप में यमों और साथ-साथ नियमों का भी पूर्ण निष्ठा के स्वीकार करते हैं। जबकि पतञ्जलि इन दोनों का साथ पालन करने से मानसिक स्थिति का कुछ और प्रथम निर्देश करते हुए भी इन्हें प्रथम द्वितीय
तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
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साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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