Book Title: Bharatiya Yoga Parampara me Jain Acharyo ke Yogadan ka Mulyankan
Author(s): Bramhamitra Avasthi
Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf

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Page 2
________________ E । स्वयं स्वीकृत इसी प्रकार साधना क्रम में अन्तर होते हुए भी क्रम में लक्ष्य और साधक की योग्यता के आधार यदि उसके लक्ष्य के रूप में चित्त की एकाग्रता केन्द्र पर कुछ परिवर्तन भी हुए हैं। हठयोग और नाथ में विद्यमान है, आध्यात्मिक लक्ष्य विद्यमान है, दुःख सिद्धों की साधना पद्धति की प्रतिष्ठा अथवा प्रचलन की आत्यन्तिक निवृत्ति का प्रयोजन विद्यमान है, तो इस सहज परिवर्तन के प्रमाण हैं। उसे योग साधना कहा जाना चाहिए और योग साधना इन परिवर्तनों के प्रसंग में यह ध्यान रखने कहा भी जाता है । इसके अतिरिक्त वर्तमान में उस वाला तथ्य है कि देश विशेष की सीमाएँ अथवा 4G साधना को, उस क्रिया विधि को भी 'योग' अथवा धर्म विशेष का इस पर कोई प्रभाव नहीं रहा है। 'योगा' कहा जा रहा है जिसका कुछ सम्बन्ध पतं- इसीलिए भारतीय साधना पद्धति, नेपाली साधना IV जलि के अष्टांग योग से है। आजकल दिल्ली, नियाति प्रादों को अथवा जैत योग. बौद्ध योग ६५ बम्बई, न्यूयार्क, लन्दन जैसे बड़े शहरों में शरीर को ब्राह्मण या वैदिक योग आदि भेदबोधक शब्दों के यू सुन्दर छरहरा बनाए रखने के लिए कुछ केन्द्र प्रयोग को बहुत गम्भीरता से नहीं लेना चाहिए । (व्यावसायिक केन्द्र) खुले मिलेंगे और उनके नाम इस प्रकार के शब्दों के प्रयोगों का केवल इतना ही आदि देखने को सहज ही मिल जाएंगे। इन अर्थ है कि किसी क्षेत्र विशेष में अधिक प्रचलित केन्द्रों के साथ योग अथवा योगा शब्द जुड़ा हुआ है, साधना विधि, अथवा जैन और बौद्ध सम्प्रदाय के और सामान्य जनता वहाँ की साधना विधि (क्रिया मध्य प्रतिष्ठित आचार्यों के द्वारा स्वयं स्वीकृत विधि) को योग (योगा) कहती भी है, किन्तु उन्हें अथवा उनके द्वारा लिखित साहित्य में मुख्यतया हम योग की सीमा में रखना नहीं चाहेंगे। क्योंकि वणित साधना विधि के कुछ विशिष्ट तत्व। वे ऊपर दी गयी योग की मूल परिभाषा के अन्दर साधना के प्रसंग में इस तथ्य का उल्लेख मैं नहीं आते। निःसंकोच करना चाहूँगा कि साधना से सम्बन्धित ___ योग साधना की अनेक विधियाँ योगसत्रकार दार्शनिक चिन्तन के सन्दर्भ में जैन आचार्यों द्वारा पतञ्जलि के समय में भी प्रचलित थीं इसका संकेत लिखित ग्रन्थों में भले ही पतञ्जलि और व्यास के समान दार्शनिक गम्भीरता न हो, सिद्ध परम्परा के हमें पतञ्जलि के योग सूत्र में ही मिलता है। उसके __आचार्यों की तुलना में दृढ़ता और स्पष्टता कुछ || अनुसार वैराग्यपूर्वक चित्तवृत्तिनिरोध हेतु अभ्यास, अर्थ भावना पूर्वक प्रणव मन्त्र जपरूप कम हो किन्तु कष्टसहिष्णतारूप तपश्चर्या के सम्बन्ध में जितनी दृढ़ता, नियमों में स्पष्टता जैन ईश्वर प्रणिधान, प्राणों की प्रच्छर्दन एवं विधारण रूप विशिष्ट क्रिया प्राणायाम, इन्द्रियों के किसी सन्तों के साधना क्रम में अथवा जैन आचार्यों द्वारा विषय को आधार बनाकर वहाँ चित्त की पूर्ण निर्धारित आचार नियमों में मिलती है, अन्यत्र स्थिरता का प्रयास, पूर्ण वैराग्य, अस्मिता मात्र में मिलता है चित्त की स्थिरता का प्रयास, स्वप्न निद्रा अथवा जैन आचार्यों में मुख्यतः हेमचन्द्र एवं हरिभद्र ज्ञान को आश्रय बनाकर चित्त की स्थिरता का सूरि इन दो आचार्यों ने योगशास्त्र के सम्बन्ध में प्रयास अथवा किसी भी अपने अभिमत देव आदि अपनी लेखनी चलाई है । इनकी रचनाओं में हेमका ध्यान भिन्न-भिन्न परम्पराओं में चित्तवृत्ति- चन्द्रकृत योगशास्त्र एवं हरिभद्रसूरिकृत योगदृष्टिनिरोध के उपाय के रूप में स्वीकृत रहे हैं। उत्तर समुच्चय, योगबिन्दु, योगशतक और योगविशिका काल में भी साधना की पद्धतियों में यथावश्यक ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं । इनमें से अन्तिम दो अर्थात् हरिप्रयोग होते रहे हैं और उसके फलस्वरूप साधना भद्रसूरिकृत योगशतक और योगविंशिका अर्ध VUCRyv 0 तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थON : Jain Education International For Private Personal use only www.jainelibrary.org

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